Thursday, December 20, 2007

टूटने का दर्द और आवाज,


जो बनता है उसका बिगडना या टूटना निश्चय है। प्रकृति का यही सच है कि हर चीज नश्वर है,आत्मा कोई वस्तु नही सो वही केवल अजर अमर है।अब बात यूँ है कि आखिर यह कैसी टूट है जिससे दर्द व्यक्ति को होता है। सम्बनध जब टूटते हैं तो दर्द हर व्यक्ति को होता है जो संवेदनाए समझता है। जिसे संवेदनाओं से कोई लेना देना नहीं उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। माता पिता अपने दर्द को बडे ही गंभीरता से छुपा लेते हैं लेकिन दूसरे शायद ऐसा नहीं कर पाते हैं। आज परिवार की परिभाषा ही बदल गयी है। सभी एकाकी ही रहना चाहते हैं कोई नहीं चाहता है कि मैं किसी और की जिम्मेवारी लूँ। केवल और केवल देहज सम्बनधों की परिभाषा बनते जा रही है। कहने के लिए रह गये हैं रिश्ते नाते। ऐसा ये नहीं है कि ये मेरा मत है, मैं खुद रिश्तों और नाते-दारियों को खूब दिलो जान से चाहता हूँ। अपने आस पास देखता हूँ तो लगता है कि ये कैसे भाई है जो कभी एक दूसरे पर जान छिड़कते थे आज अलग अलग राहों पर चलने की बातें करते हैं। कभी लगता है कि इनकी महत्वाकांक्षा ही इनको इस मोड पर लाइ है। कभी लगता है कि शायद इनके मन में कुछ और आ गया है जिसे मानवीय आँखे नही देख पा रहीं है।
खैर जो भी हो लेकिन जन्म देने वाले माता पिता की दशा बेहद दयनीय होने लगती है कि अपने किस पक्ष को वो गलत ठहराये। एक उनका दाहिना हाथ तो एक उनका बांया हाथ।दोनों में से कोइ एक टूटता है तो दर्द तो उनको ही होता है। समाज सहित अंतर्मन को जवाब उन्हें ही देना पड़ता है कि क्या परिवरिश में कोइ कसर रह गयी है। नयी पीढ़ी उन्हे समझा देती है कि अब यही समय की जरुरत है।
यह विषय मेरी समझ से परे लगता है। हो सकता है कि मैं केवल एक पक्ष देखता हूँ। लेकिन आपके विचार भी जानना चाहूँगा। क्योकि भारत के अधिकांश परिवार की टूट ने ही उन्हें कमजोर कर दिया। चाहे अम्बानी भाई हों, विद्याचरण शुक्ल हों, प्रमोद और प्रवीण महाजन हों, ललित नारायण मिश्रा और जगन्नाथ मिश्रा हों, चाहे नए पीढ़ी के राजनेता अमर सिंह हो। देखें इस मसले पर आप क्या कहते हैं।

हमारे पिता जी का कहनाम है कि पाँच उँगलियों के मिलने से बनने वाली मुट्ठी की ताकत बेहद ज्यादा होती है।

सत्य की भाषा


एक जमाना था जब सत्य को सबसे उपर और पवित्र माना जाता था। लेकिन समाज में हुए बदलाव और परत दर परत पड़ते वक्त की धूल ने पूरे सत्य को धुँधला कर दिया है। सत्य कब और कहॉ चला गया किसी को इसका ख्याल ही नही रहा। आप भी कहेंगे क्या बकवास बातें हैं, लोग नून तेल लकड़ी की जुगा़ड में हैं, कौन सत्य वत्य की बीती बातें सुनता है। जनाब अब पानी सर से उपर बह रहा है, कहीं कोई बात होती है, तो उसके पीछे कुछ तो सच्चाई और हकीकत है। उदाहरण सामने है, पुलिसिया कहर से सभी परिचित हैं, लेकिन राज्य के मुख्य मंत्री ही इस बात को एक सिरे से नकांरें, तो बात कुछ हजम नहीं होती। आखिर हो भी तो कैसे एक दफा खुद ही सरकार के मुलाजिमों को सी.एम. साहेब को नहीं पहचानने से सारी वर्दी उतारने की धमकी खुले आम दे चुके हैं।अब वकालत करते है तो उनके ही आचरण पर सवालिया निशान उठते हैं कि सच क्या है। जनता या उसके जरिये चुने गए लोग जो सच को मिनरल वाटर की तरह पीते चले जा रहें हैं। यही मात्र एक उदाहरण नहीं है कई पड़े है,जैसे महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री की बातों को ही ले लें। जैसे जैसे दिल्ली की तरफ जाते हैं भींगी बिल्ली, सरीखा व्यवहार करते रहते हैं। किसानों का मसला हो या राज्य में विकास का मुद्दा हो केन्द्र को बरगलाने के लिए झूठ का ही सहारा लेते हैं यानि सच्चाई से कोसो दूर भागते हैं।

कुल मिला करके बोलें तो मानवता मर गई है, सच्चाई का भी लोप हो गया है। बचा हैं तो केवल और केवल ढकोसला, जो दिनों दिन सच्चाई की दूसरी भाषा बनते जा रहा है।इसके बारे में यदि कुछ भी बोलना होगा तो बोलेगा कौन, अब यह एक सवाल बना हुआ है। हाल में ही सर्वोच्च न्यायलय ने अपने पत्रकार मित्रों को भी आड़े हाथों लिया है। जैसे तैसे ही सही उनकी भी स्मिता पर यह कह कर अपना तुगलकी फरमान चलाया कि आप ने संविधान के विरूद्ध आचरण किया है। देश के विधिपालिका के कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया। हम पूछते हैं कि ये कौन होते कि इनकी गलतियों की पर्देदारी की जाए। यदि इनकी सुनें तो इनके हिसाब से ये चोरी भी करेंगे और सीना जोरी भी करेंगे। फैसला सुनाते सुनाते क्या जाने अपने आप को ईश्वर का ही दूसरा रुप समझने लगो हैं। खैर एक सीख तो मिली कि अब सच को छुपाना सरल नहीं होगा। लोग अपने बातों को फिर से सामने लाएगे चाहे किसी नेता के खिलाफ हो या अपने ही राष्ट्र के तथाकथित कर्णधारों की बातें। जिन्दाबाद जनता ..........।

सफ़र के राही


आज पहलीबार सफऱ करते करते लिखते का मन कर रहा है, सो लिखने बैठ गया हूँ। कई बाते आ और जा रही हैं कि कहाँ से शुरुआत करुँ। एक विचार आया कि कुछ राजनिति की बातों को आपको बताऊ, लेकिन बात हमारी इंडियानामा की है तो सोचा सफर के दौरान लोगों की बातों को ही आपको सुनाऊ। आखिर भारत के लगभग 6 लाख गाँवो से भी आपका परिचय भी तो कराना है। सफर पर निकल पडा अपने ही लोगों के साथ रास्ते भर हर तरह के लोग मिलते गये। भाषाएँ अलग रहन सहन अलग बोलचाल में एक दूसरे की बातें समझने में असमर्थ लेकिन एक चीज की समानता थी, खाने के मामले पर सभी करीब-करीब साथ ही थे। अपने ही लोंगों के साथ होने से थोड़ा ज्यादा लोग सुरक्षित महसूस कर रहे थे। अब यदि एक उस व्यक्ति की बात करें जो बिलकुल ही अनजान उन नये रास्तों से तो हम उसे बेबस ही मानेंगे लेकिन वह भी अपने आप में मस्त है। कुछ लोग और ही समझ कर अपनी ही दुनिया अलग बसा लेता है।या तो कोइ किताब पढ़ता है या कोई पेपर से ही अपने मुँह को ढाँप लेता है। जिससे ना तो वो दूसरों को देख सके और ना ही दूसरे उसको देख सकें। अब उनकी बातें जो अपने पूरे परिवार और लावलश्कर के साथ सफऱ पर निकल पड़े हैं। अपने ही लोगों के बीच में अनजान से बनते हुए उन्हें ये लगता था कि इसबार थोड़ा पहचान हो सकेगा। और इस बार लोगों में गाहे-बगाहे कोइ मिला भी लेकिन मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। आये भी तो कैसे सबसे पहले अपने स्वार्थ जो निहित थे। कुछ लोगों ने अपने अपने दिल के बंद दरवाजे खोले भी लेकिन खुद को असुविधा होता देख असे बंद करने में कोई संकोच नहीं रखा। अपने गाँव घर से दूर आकर के लग जरुर रहा था कि इसबार कुछ नये दोस्त मिलेंगे कुछ नयी जगहों से परिचय हो सकेगा।जगहों से अपनी पहचान तो जरुर हुई लेकिन लोग से दूरी बरकरार रही। लोग उस अपरिचित से व्यक्ति के दूसरे प्रांत से होने के चलते एक अजीब सी निगाह से देखते थे। लगता था कि वो किसी अन्तरिक्ष से आया हो।
अचानक रात के 11 बजे एक अजीब सा हंगामा सुनाई दिया क्या है कुछ समझ में अनयास नहीं आया लेकिन जब ध्यान दिया तो सारा मामला साफ नजर आया। कोई उच्चक्का समान लेकर के भागने के फिराक में था कि नईनवेली दुल्हन जिसे गहनों से अभी लगाव की शुरूआत ही हुई है, या यों कहें कि पिया के बिना ट्रेन की सेज पर नींद नहीं आ रही रात थी सो रात जगती हुई काट रही थी। चोर आने से पहली नींद टूटी शोर मचाने के बाद सभी जग गये। पकडकर पहले को उसकी खूब धुनाई की तब जाकर के पुलिस के हवाले किया। गौर तलब है कि हल्ला सुनकर सबसे पहले सचेत हुआ, वही अजनबी सा व्यक्ति, हरकत में आकर के चोर को पकड़ा। बड़ा जोखिम का काम था क्योकि पता नहीं था कि उसके पास क्या हथियार है। सभी अब उस व्यक्ति के करीब आ गये मेलजोल बढ़ गया।खैर जो भी हुआ चोर के भाग्य से ही सही लेकिन उपेक्षित सा रहने वाला व्यक्ति भी अब सबों के साथ हो गया। सफऱ के अन्त तक वह भी अब लोगों से बातें कर सकता है। घटना या दुर्घटना ही सही लोगों को एक दूसरे के करीब तो आये। जो भी हो चोर मिलाए लोग-- हो सकता है अगलीबार उसके साथ ऐसी नौबत ना आये।

Monday, December 17, 2007

दीपावली के दीपक अब गुजरात की गरीमा

राम को घर आये सदियाँ बीत चुकी हर बार हम उनके घर आने को धूमधाम से मनाते हैं। जिससे लोग उनके कष्ट भरे दिनों को याद करें और उससे कुछ सीख ले सकें। 14 सालों का बनवास कोई मामूली बात नहीं थी,वो भी एक सुकुमार राजकुमार के लिए जो कभी भी पैदल चला तक न हो। माल कि मात्र ये कोरी कल्पना है तो भी एक हद तक बेहद सटीक है। राम अपने पूरे कूनबे के साथ जंगल और पहाड़ो की खाक छानते रहे, अपने पिता की शपथ को पूरा करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। रघुकुल की मर्यादा की जो बात ठहरी। बात जब शपथ की आती है तो हम अनयास ही अपने शपथ को लेकर के थोड़े से ज्यादा ही संवेदनशील होने लगते हैं।अब सदियों से जलनेवाले इुन दीपकों को ही ले ये जलते हैं कि इस बार तो सारी दुनिया को रौशन कर देंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। हर बार अपने पूरे दम से प्रयास तो करते हैं लेकिन उसमें सफल नहीं हो पातें हैं। अपने आप को भी जलाकर के सारे संसार के अन्धकार को मिटाने में वो सफल नहीं हो पाते है। लेकिन जलने में एक मजा उसे आता है । हर किसी को यह तो बता देता है कि केवल अपने स्वार्थ के लिए जीना तो आसान है लेकिन यदि अपने स्वार्थ से उपर उठ कर किसी और के लिए थोडा़ सा भी एक कदम आगे बढा़ते हैं तो बड़ा सुकुन मिलता है। हम और आप सोचते रहते हैं करने वाला काम कर जाता है। इस थोड़े से उमर भर के लिए एक बार भी कुछ अच्छा सोंचे तो हर एक व्यक्ति अपने आप में एक आयाम खड़ा कर सकता है जिससे फिर कभी जलने की जरुरत नहीं पड़ेगी।

अब बात करें अपने गुजरात की, कहाँ तो तय हुआ था कि यह एक ऐसा प्रदेश होगा जिसमें कोइ भेदभाव नही होगा। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ, और किसी ने करने का मन बनाया उसे भी रोका गया। राम के नाम पर राजनीति जम कर लोगों ने की आखिर चुनाव जो है। हर किसी को छूट मिलनी चाहिए सो लोगों ने पुरजोर कोशिश लगा रखी है। अपनी अपनी कमानों से तीर को निकाल कर धनुष पर चढ़ा चुके हैं कि कब हम उन्हें इस मसले पर घेरे जिससे विरोधी पक्ष की फजीहत हो।नारे खूब लग रहें हैं लोगों को आपस में जुझाने की दबी-दबी तैयारियाँ भी हो चुकी है। भगवान ना करे कि लोगों की बुद्धि में फिर से शैतान घर कर जाए और लोग एक बार फिर मरने मारने पर उतारु हों जाए। याद तो उन्हें दीपक को करना चादिए कि कैसे खुद जलता है और दूसरों को राह दिखाता है। अब ना तो राम हैं ना ही दीपक सो जनाब लोग तो यहाँ हर बात जायज मानते हैं। खैर देखे चुनाव के और कौन- कौन से रंग होते हैं।

Wednesday, September 19, 2007

सेतू के पहरेदारों का सच .. भाग—2,


सेतू के पहरेदारों की हालत दिनों दिन बेहद खास्ता होते चली जा रही थी। उनकी गुहार थी कि भगवान इस बार उन्हें बचा लेंगे। इस बार कोई जाति और धर्म का मामला नहीं है। अब तो वो निराश होकर के कहने लगे, हाय रे राम जी कहाँ शेषनाग पर सोये हैं, यहां हमारी भद हो रही है,अब तो नींद खोलिए, हे सीता मईया आप ही भगवान से हमारे दुःख की कहानी कहिए। लेकिन सब कुछ बीतता जा रहा है,उनकी फजीहत में कोइ कमी नहीं आ रही है, ब्लकि अब तो उसमें इजाफा ही हो रहा है। देखे आगे आने वाले दिन उनपर कितने भारी होते हैं।
खैर एक बात तो मानना ही होगा कि शांत जल में कंकड डालने की कला भारत की राजनितिक पार्टियाँ बेहद तरीके से जानती हैं। कोई नया मुद्दा हो या ना हो गड़े भूत को उखाड़ने में उन्हें खूब मजा आता है। इसके पीछे भी एक गहरी सोंच है कि क्यों ये पुरानी बातों को दुहराते हैं। इसका सीधा जवाब हमारे बडे बुजुर्ग एक कहावत के रूप में देते हैं। वे कहते हैं पुराने चावल का ही पन्थ्य होता है। यानि बीमारी से निजात दिलाने की दवा पुराना चावल ही है,जो आसानी से पच जाता है। वही है कि पुराने मुद्दे बेहद आसानी से लोगों के दिमाग पर घर कर जाता है। पिछले कई दसकों में जो भी लोगों को बाँटने वाले मुद्दे हुए,वो सभी पुराने पन्नों में दबे मामले और घटनाएँ थी। इसके जवाब में कोई भी अपनी सफाई देने को न तो तौयार है ना ही बात भी करना चाहता है। उल्टे ही जनता पर ही दोष मढ़ा जा रहा है। पर्दे के पीछे से वार करने वाले कभी भी सामने आने की हिम्मत नहीं करते हैं, तो अब कैसे सामने आ करते हैं। जलते हुए राष्ट्र के पुरोधा आग में इसे झोक कर के चुपचाप तमाशा देख रहे थे। जैसे समुद्र में ज्वार भाटा को बाहर बैठ करके लोग देखा करते हैं। अब जलता हुआ छोड़ करके सभी किनारा करने लगे थे।
लेकिन बीच बहस में , इसके लाभों की कोइ चर्चा ही नही हुई। थोड़े संक्षेप में ही सही, कई अलग अलग रोजगार के अवसरों के साथ, विकास का नया अध्याय ही लिखा जा सकता है। हर बार 2500 किलोमीटर के सफर से भी बचा जा सकता है। थोड़े देर के लिए सेतू के बारे में प्रचलित पौराणिक बातों को ही सच मान लें तो भगवान कभी भी मानव के विकास के रास्ते में रूकावट बनकर नहीं आये हैं। ब्लकि एक रास्ते ही खोले हैं, तब हम और आप कौन होते है विरोध का स्वर खड़ा करने वाले। इतिहास और पुराण दोनों गवाह हैं कि परिवर्तन कृष्ण और राम ने भी किया था। जब जरुरत थी तो समुद्र
को ही सुखा देने पर उतारू थे। हम तो केवल रास्ता बनाने की बात सोंच रहे हैं। हमें तो चाहिए कि राम का नाम लेकर काम शुरू कर देना चाहिए।

सेतू के पहरेदारों का सच



राम के नाम पर राजनीति करने वालों के लिए जैसे भगवान ने एक नया जीवन दान ही दे दिया हो, सरकार रुपी माध्यम से राम सेतू नामक मुद्दा देकर के। समाप्ति के करीब पहँच चुकी पार्टी के लिए ऑक्सीजन का काम किया इस विकास की घोषणा ने। हर जगह एक बार फिर लोगों को भेड़ की तरह हॉक करके ले जाने की तैयारी शुरू हो गई और लोग फिर से मरने मारने पर उतारु दिखने लगे। सबसे पहले नजर में आयी सरकारी सम्पतियों को ही नष्ट करने का बीडा उठाया गया। देखते देखते आग राजधानी से छोटे शहरों की तरफ भी सुरसा की तरह अपना मुँह फैलाए पहुँचती गयी। सरकारी सम्पतियों को आग के हवाले करने में कोइ संकोच बचा ही नहीं। दुगने और चौगुने उत्साह से मौका मिलने पर आम जनता इस आग में घी डालने का काम करती रही। लेकिन सच्चाई से अन्जान और राजनैतिक पार्टियों का मोहरा बनते रही। जबकि मामले की हकीकत कुछ और बयान करती है।
भूगौलिक उथल पुथल के चलते एक स्थल से दूसरे स्थल के टूटने पर भी आपस में हल्की सी लकीर की भाँति दोनों जुडे रहते हैं। वही हाल भारत और श्रीलंका के बीच है। जबकि पुराण के हवाले से यह कहा गया कि लंका पर चढ़ाई के दौरान राम जी ने नल, नील और वानर सेना के सहयोग से एक पुल बनाया था। अब सवाल यह उठता है कि यदि पुल चढाई के दौरान बना था,तो लौटते वक्त उसका इस्तेमाल क्यों नही हुआ। जवाब तैयार मिला कि घर पहुँचने की जल्दी थी, और पुष्पक विमान भी जो मिल गया था। फिर भी बाद में किसी ने पुल का रास्ता, अपनाने की जहमत नहीं उठाई। विभीषण कभी भी पुल होने के वावजूद राम दरबार में नहीं आए। पुराणों को मानने वाले कह सकते हैं कि ,राज काज में व्यस्त हो गये सो आने में कठिनाई थी नही आ सके। लेकिन कोई निरा दूत भी तो नहीं आया। मतलब साफ है ,कही तो किवदन्ती के अनुसार पुल एक बार के उपयोग के लिए बना था। या बाद में समुद्र के पानी में बह गया। या यू कहें कि सच्चाई में बना ही नहीं था। अब थोथी राजनीति है साबित तो करना होगा ही कि पुल वहीं था और आज भी अपने अवशेष के रुप में मौजूद है।राजनेता अब लगे इतिहास और भूगोल दोनों को खंगालने मिला तो मिला नहीं, तो जय जय सीता राम करना ही है। खगोलशास्त्रीयों ने एक सिरे से सारी धारणाएँ खारिज कर दी फिर भी ये हैं, कि मानते ही नहीं। अबकी बार कुछ जोरदार खबर ले कर आने की तैयारी में है कि कहीं से फिर रामलला का कोई प्रतीक मिल जाए कि विकास विकास चिल्लाने वाले नास्तिकों के मुँह पर करारा तमाचा जड़े। अगली गुहार के लिए अगले क्रम में मुलाकात होगी........

Monday, September 17, 2007

धारावी के कायापलट को तैयार जमीन के सौदागर, भाग-2,


दूसरे भाग में हम बताने की कोशिश कर रहें हैं कि आखिर इस प्रोजेक्ट में सरकारी रुख क्या है। एस .आर.ए. के नाम से ही बिल्डरों को भोले इन्सानों को ठग कर अपनी तिजोरियॉ भरने के कई मौके मिलने की संभावनाएँ जगने लगी। सरकार ने कमान कसने के लिए नियंत्रण खुद अपने ही हाथों में लेने का निश्चय किया। अपने कायापलट के कार्यक्रम में 10 चरणों में पूरे धारावी को बाँटा गया है,पहले चरण में 8 सेक्टरों का विकास किया जाएगा। 5600 करोड़ रुपये के इस प्रोजेक्ट में कई देशी और विदेशी टाउनशिप डेवलपर्सों से निवदा मँगाई है।यहाँ रहनेवाले लोगों को 225 स्कावर फीट का घर दिया जाएगा। यहाँ कई जोनों में सात मंजिले इमारत का निर्माण कर इन हजारों लोगों को वहीं रखा जाएगा। सबसे बड़ी बात घर उन्हीं लोगों को दिया जाएगा जो 1 जनवरी 1995 से पहले धारावी के बस्तियों में घर बनाकर रह रहे हैं। विस्थापन के दौरान,बिजली,पानी,टेलीफोन का खर्च विकास कार्य करनेवाले लोग उठाएगे जाहिर है,निजी कम्पनियॉ इसमें अपना लाभ देखेगी। साल 1971 में बने एस.आर.ए.अधिनियम में यह जाहिर है कि घर देने के बाद बचे जमीन का उपयोग डेवलपर्स अपने व्यवसायिक उपयोग कर सकते हैं,यही उनका स्वार्थ और लाभ निहित रहता है।
सबसे अन्त में यहाँ फैले हजारों स्मॉल स्केल इन्डस्ट्रीज पर ठोस निर्णय करने की बारी आती है। सरकारी वायदे के मुताबित इन 5000 कारखानों को सरकारी जाँच के बाद रजिस्टर्ड कर सारे छोटे उपक्रम के लाभ दिये जाएँगे। इनलोगों के लिए कुटीर उद्योग का दिया जाएगा। लेकिन सरकारी पेंच में इन उद्यमियों को अपने पिछले अनुभव से भय लगता है, कि कहीं इस बार फिर वे ठगे न जाए। दिसम्बर 2007 से इस प्रोजेक्ट के शुरूआत होने के बाद लगभग 3 से 4 साल लगेंगे, इन लोंगों को घर देने में। लेकिन विस्थापन की अवस्था में रोजगार चालू रखने का प्रावधान सरकार कर रही है। लेकिन सतही तौर पर इसको अमल लाने में कई उलझनें हैं। राजनौतिक पार्टियाँ चुनाव नजदीक देख कर मुद्दे को हवा दे रही हैं। जगह 225 से ज्यादा देने के लिए दबाव बना रही हैं. राज्य सरकार, निजी कम्पनियों और राजनैतिक पार्टियों के हस्तक्षेप के बाद प्रोजेक्ट पर सही तौर से काम करके उचित न्याय हो पाये, यही धारावी का असली कायापलट होगा।

धारावी के कायापलट को तैयार जमीन के सौदागर


मुम्बई शहर के बीचो बीच दिल के आकार में बसा धारावी, आर्थिक राजधानी में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोडता। धारावी 223 हेक्टेयर में फैला हुआ, लगभग 70 हजार लोगों को अपने आप में समेटे हुए है। 1909 में धारावी 6 बडे मछुआरा कॉलेनीयों को मिलाकर बना। जहॉ लोगों के जीवीका का आधार था अरब सागर की गहराईयों में जाकर के मछली पकडना और शहर सहित दूसरे शहरों में भी इनका व्यापार करना
फिर वक्त ने पलटा खाया शहर भर में फैले मिलों पर राजनीति का रंग चढ़ने लगा, मिलों मे ताला लगने लगे। अब मजदूरों के पास जीवन में संधर्ष के सिवा कोई और विकल्प नहीं बचा। पहले से सीखे काम के साथ नये काम के साथ नये काम को भी अपनाया। कपडा उद्योग के अलावा चमड़ा,बेकरी, जरीदारी, प्रिन्टिंग के साथ-साथ सौराष्ट्र से आये लोगों ने कुम्हारवाड़ा के नाम से एक मुहल्ला ही बसा लिया। कुल 5000 छोटे मोटे रोजगार होने लगे। अनुमान के हिसाब से लगभग 2000 करोड का व्यवसाय यहाँ से देश के कोने कोने में होता है। हर घर एक कारखाना है,जहॉ लोग रहने के साथ जीवन को बेहतर बनाने के लिए काम को इसका आधार बनाते हैं। फिल्मों में दिखाये गये धारावी का वर्णन भी कुछ हद तक सच है। इन गलियों में कई सही गलत काम को अनजाम देने वाले लोगों की बदनामीयों को भी अपने आप में समेटे हुए है धारावी। मुम्बई के अपराध की दुनिया में अपनी छाप धारावी ने कई बार छोड़ा है। यहॉ रहने वाले लोग मूल रूप से मछुआरे तो है ही समुद्र की गहराईयाँ नापते नापते अपराध के रास्ते पर कब मुडते हैं पता ही नहीं चलता।
दक्षिण भारत के लोगों का बाहुल्य है। देश के उत्तर क्षेत्र और दक्षिण भारत के मुस्लिमों का समुदाय भी बड़े पैमाने पर है, जो सिलाई और ज़रदोजी़ का काम बखुबी निभाता है। गुजरात और सौराष्ट्र के लोग मिट्टी के नायाब और खूबसूरत सामानों को बनाकर धारावी को नाम को और ऊँचा करते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार से आये लोग भी अपनी जीविका का आधार इन तंग गलियों में ढूढते हैं।मुम्बई के मिलों से विस्थापित लोगों को भी शरण धारावी ने ही दी।
कई बार सरकार की नजर चमचमाते मुम्बई शहर के दिल पर टाट के पेवन्द की तरह लगती धारावी झुग्गी बस्ती पर नजर पड़ी। स्लम रिहाइबिलीटेशन स्कीम के तहत, इसे झुग्गी के जगह गगनचुम्बी इमारत में बदलने का फैसला किया है। शेष दूसरे भाग में.......

Thursday, September 13, 2007

पुलिस की मुसीबत और गणपति त्योहार


भगवान के दरबार में सभी एक बराबर हैं।लेकिन अब लगता है कि भगवान भी पहरेदारी के बिना नहीं रह सकते हैं। दिनों दिन आतंकवाद की धमकी और असमाजिक गतिविधियॉ सरकार के नाक में दम कर रखा है। सरकार भी अंधेरे में तीर मारने का काम करती रही है।फिर उसी ताक में है कि कब मौका मिले,फिर से अपने पीठ थपथपाने का।लगे हाथ अपनी भी वाह वाह हो जाएगा,और कुछ जन कल्याण का भी काम हो जाएगा। इस दौर में गणपति उत्सव पर कड़ी चौकसी करने के लिए भारी पुलिसिया बन्दोबस्त किया गया है। जरुरी किया गया कि हर मंडल में सुरक्षा के भरपूर इन्तजाम हों। प्राइवेट सिक्यूरटी एजेन्सीयों की तो चाँदी ही हो गयी।अपनी कीमत भी उन्होंने दुगनी चौगुनी कर दी।
त्योहार के मजा में रही सही कसर पूरा करने पर उतारु है मुम्बई महानगर पालिका। यानी भक्ति की समय सीमा रहेगी कोइ भी इस सीमा को पार करेगा तो बी.एम.सी. को जुर्माना रूपी चढ़ावा गणपति के नाम पर चढाएगा। पुलिस जाँच के भरपूर के पहले से कमर कस चुकी है। सबसे ज्यादा मुसीबत की घड़ी आ सकती है जब धनिक गणपति मंडलो के सुरक्षा का सवाल उठता है पुलिस के लिए दिनों दिन सिर दर्द बनते जा रहा है। कुछ भी हो लेकिन भक्ति के नाम पर जागरुकता और लोगों को एक साथ लाने की बात आज की नहीं है। लेकिन यह कहने के बाद आप ही कहेगें कि मैं नया आपको क्या बता रहा हूँ। मित्रों आज नया यही है कि जहाँ एक तरफ सरकार साफ सुथरी बनती है वहीं दूसरे तरफ इसे कदम अपनाती है जिसे कहते हुए संकोच होता है। उदाहरण बिहार के लें,उत्तर प्रदेश का राजनितिक दॉव पेंच को लें या मुम्बई की बार बालाओं की बात करें। एक तरफ सरकारी मंत्रीगण इसे बन्द करने की नीति अपनाते हैं,वहीं दूसरी तरफ उनके ही जलसे में जमकर नाच होता है।
खैर मैं विषयान्तर हो रहा हूँ। साल दर साल गणपति को बनाने में प्लास्टर ऑफ पेरिस का इस्तेमाल दिनों दिन वातावरण के लिए जहरीला बनते जा रहा है।ध्यान देने वाले इधर देखना तो दूर सोचना भी कब का छोड़ चुके हैं। मुम्बई की महापौर पहले तो बेहद गंभीरता से मुद्दों को देखती गयी। लेकिन विदेशी हवा यानि अमेरिका से लौटने बाद ख्याल ही कुछ बदले बदले से लगने लगे। अब गणपति विसर्जन और बाढ में लोगों के हालचाल जानने के लिए हैलिकॉप्टर की सवारी करने की बात कही। वो भी किसी से किराया ना लेकर के ब्लकि नया खरीदा जाए, खर्चे की कोई चिन्ता नहीं। यानि गणपति के लिए अब एक नया मुद्दा भी ढूँढा।

Saturday, September 8, 2007

गुरू जी की दुर्गति


वक्त बदलने के साथ समाचार के मायने भी बदलने लगे। ब्रेकिंग न्यूज देने के लिए होड़ सी मची हुई है। हर व्यक्ति समाचार देने के लिए अपने स्तर से नीचे गिरता और उठता है। हद तो तब हो जाता है जब खबरों को मसालेदार बनाने के लिए खबरों को तोड मरोड कर पेश करते हैं। शिक्षकों पर भी देहव्यापार के लिए अपने छात्रों पर दबाव डालने का आरोप लगाया गया। भले ही बाद में इसे झूठी खबर के लिस्ट में शुमार किया गया। देश का कोई भी कोना ऐसा नहीं रहा जहाँ शिक्षकों पर हमले ना हुए हों। ऐसा ना केवल दिल्ली में हुआ,ब्लकि देश का कोई कोना इससे अछूता नहीं रहा । हर जगह यही हाल रहा चाहे वो सुदूर पिछड़ा इलाका केरल रहा या अति आधुनिक बनने वाला राज्य महाराष्ट्र। हर जगह ज्ञान बाटने वालों की जम कर फजीहत हुई। इस दुर्गति के पीछे पर्दे में छीपे राजनेताओं ने खुले हाथ से राजनीति की। गाहे ब गाहे महिला मंडलों के जरिये अपने छिपे प्रतिद्वन्दियों की धुनाई भी करवाई, नाम दिया कि पीटने वाला व्यभिचारी है। शिक्षक दिवस हम जरुर मनाते हैं लेकिन उन बातों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं कि गरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर महेश्वर, गुरुर साक्षात देवः । गुरु को नमन तो छोडिये मौका मिले तो गुरु की ही खाट खडी करने पर उतारु हो रहे हैं। अब तो कम से कम अपने अपने अंतरात्मा की आवज सुनना होगा जिससे इस तरह के बहकावे में ना आकर सही और गलत का कम से कम फैसला तो कर सकें। ऐसा नही है कि हर कोई सौ
फिसदी सही हो और ऐसा भी नही है कि कोई बिल्कुल ही गलत होता है। पहचान और सजा देने के हकदार हम नहीं खास करके ऐसे मामलों में। चेतना की बातें भी होनी चाहिए तभी इसका हल संभव जान पड़ता है।

Wednesday, September 5, 2007

गोकुल अष्टमी के बदलते स्वरुप में अपनी जिम्मेवारी


एक जमाना था,जब कान्हा ने भी मटकी फोड़ी थी,लेकिन वो वक्त था द्वापर का । मटकी फोड़ने का चलन तो आज भी है लेकिन कलयुग में इसके मायने बदल गए हैं । खासकर मुंबई में तो यह राजनीतिक पार्टियों का मात्र प्रचार का स्टेज भर रह गया है। इसकी रही सही कसर फिल्मी अभिनेताओं ने निकाल दी है। मुझे तो यहां हर कोई उत्साह बढ़ाने के बहाने, अपनी ही मार्केटिंग करता नजर आया। खत्म होते गये तो वो मायने, जिसे लेकर इस उत्सव को सोल्लास मनाने की परंपरा को बढ़ावा मिला। फिल्मों में दिखायी गयी गोकुलाष्टमी हकीकत से कोसों दूर होती है ,लेकिन लोग उसी में जीना चाहते हैं। राजनेता भी अपना फायदा इसी में देखते हैं, जिसके चलते वे बड़े से बड़े आयोजनों का बढ़ावा देते हैं। भले ही आधुनिक गोपाल शिष्टाचार के हदों को पार कर जाएं । लेकिन ऐसे ही गोपाल गोकुलाष्टमी के बहाने मटकी फोड़ने को बेताब नजर आते हैं। पल भर ये गोपाल यह भूल जाते हैं कि कल से फिर उसे नमक तेल लकडी के जुगाड में जुटना होगा। औऱ आज उत्साह बढ़ाने को जुटे नेता राजनेता कहीं आसपास भी नजर नहीं आएंगे।
लोकनमान्य तिलक के प्रोत्साहन से शुरु हुए ऐसे सार्वजनिक उत्सवों में जन जन से जुड़ाव के साथ साथ देश के परम्पराओं की झलक दीखती है। गोकुलाष्ठमी के दौरान मटकी फोड़ना भी मस्ती,सार्वजनिक उत्सव,समान अवसर को देने की कोशिश,और एक दूसरे को आगे आने का मौका देने के अलावे यह आम जन को बेहद करीबी रिश्तों में बाँध देता है। इन रिश्तों की गर्माहट फिर से महसूस करनी और करानी होगी हर किसी को तभी तो सही मायने में इस त्योहार के साथ न्याय हो पायेगा। वक्त के बदलते करवट में भले ही नेता अपना फायदा देखें,लेकिन हमें साथ चलने के मौका को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।

Tuesday, September 4, 2007

सरकारी बनाम प्राइवेट नौकरी


नौकरी छोड़ना और नई नौकरी को पाना जहॉ एक बेहद अनुभव सहित दक्ष व्यवसायिकता का काम है, वहीं कई बार भावनाएँ ,ज्यादा बलवती हो जाती हैं। मुश्किल होने लगती है ,कभी कभी जमी जमायी नौकरी और कम्पनी को छोडना । लेकिन हर बार काम के साथ अपनी ही आगे बढ़ने की चाहत, ज्यादा मजबूत होती हैं। आज के जमाने में युवा अब आजाद है, समझदार है अपना घाटा नफ़ा देख सकता है। मौके भी कई उपलब्ध है तो क्यों कोई अपने सपनों को बंधन में बाँधे। सबसे ज्यादा उठापटक होती है पत्रकारिता में, वो भी टी.वी. पत्रकारिता में। एक दिन में पूरी दुनिया सहित सारे तौर तरीके ही बदल जातें हैं। अब उसे लगता है कि उसके मेहनत का सही आकलन होगा। कुछ हद तक यह होता भी है, तब जाकर के युवा अपने निर्णय से संतुष्ट हो जाता है।

पुरानी कम्पनी उस में अपना फायदा देखती है, कि कभी तो उसके जाल में आधुनिक युवा फसेगा, लेकिन यह हो नहीं पाता है। खैर कही ना कही उस युवा के दिल में भी एक डर समाया रहता है कि भविष्य क्या होगा, फिर अब भरोसा जाता है ईश्वर की तरफ।

आज भी हालात वहीं है नौकरीयॉ लाखों बिखरी पड़ी हैं, लेकिन देने वाले अपनी शर्तों पर ही नौकरी देते हैं। सरकारी नौकरी मिलने से तो रही, आरक्षण का भूत जो सालों पहले शरीर सहित आत्मा पर अपना अधिकार जमा चुका है। पढ़ने की थो़ड़ी सी ललक रखने वाले लोग चाहते है कि काम सम्मान का मिले। जिसमें नाम सहित इज्जत भी मिले, इसी लालसा में दधीचि की तरह हड्डीयो के ढांचा में शरीर को बदल डालते है। गॉव घर के लोग कहते थे ,कि शरीर है तो जहॉ है, लेकिन आज यही उलट हो गया है कि जहॉ है तो शरीर भी हो ही जाएगा। कॉल सेन्टर की नौकरी हो चाहे कोइ बडी कम्पनी का अधिकारी ही क्यों ना कोई बन जाए लेकिन सरकारी नौकरी ना मिलने का दर्द उसे कम, उससे जुड़े लोगों को ज्यादा सालता है। कई बार मेरी भी बहस की कचहरी, मेरे हितैषियों के साथ लगती रही है। पिता जी हर संभव समझाने की कोशिश करते रहें है। लेकिन मैंने हर बार नकारा ही है, जिद्दी बालक की तरह अपनी ही जिद पर अडा रहा। पिता जी से अपना दर्द कहे तो कैसे कहें। कहीं पिता जी ये ना समझ बैठे कि उनका सुपुत्र या यों कहें उनका कुपुत्र हार मान गया। पिता जी ही कहा करते हैं संघर्ष ही जीवन है तो घबराना क्यों। रेत से भी तेल निकलेगा, चट्टान से भी ,मीठे सोते की धारा निकल पड़ेगी ये तो केवल नौकरी का ही सवाल है। एक नौकरी जाएगी तो दूसरी मिलेगी, लेकिन यदि आपका विश्वास टूटेगा तो दूसरा फिर से नहीं मिलेगा। बडी पुरानी कहावत है कि हारने वाले का साथ कोई नहीं देता। अतः यदि साथ चाहिए तो जीत को किसी भी कीमत पर हासिल करना ही होगा।

बाढ़ का कष्ट


हर बार कुछ अच्छा लिखने की चाहत रहती है, लेकिन दुर्भाग्यवश नियमित रुप से कुछ लिख पाना संभव नही हो पाता है। आपा धापी की जिन्दगी में व्यक्ति भूल जाता है कि कुछ मन के हिसाब से भी करना चाहिये। खैर देर आये, आये तो सही। आस पास बहुत कुछ घट चुका, बड़े लोगों ने कलम तोड़ कर लिखा भी है। लिखावट की बाढ़ सी आ गयी है। अरे हॉ बाढ़ से याद आया, देश के एक बहुत ही बड़े हिस्से के लोग बाढ़ की विकरालता से जूझ रहे हैं।

धुरन्धर नेता लोग अपनी रोटी सेकने का कोइ भी मौका हाथ से निकलने नहीं देना चाहते । झपट पड़े हैं मौके को अपने हक में भुनाने के लिए। कही कोइ सहायता बांटने की वकालत कर रहा है तो कहीं कोइ जनता का हाल लेने पहुँच रहा है अपने उड़न खटोले में सवार होकर के । लेकिन अपना अंदाज भी दिखा गये कि भाई अब हम प्रदेश के नहीं देश को चलाने वाले हैं। हम कहीं भी कुछ कर सकते हैं,चाहे उड़न खटोले को क्यों ना सड़क पर ही उतार दें। कोइ बोल कर के तो दिखाए, मजाल है एक चूँ की भी आवाज निकल पडे। यदि आवाज निकलेगी भी तो मंत्री जी अपने अंदाज विशेष से उसे हँसी ठट्ठे में उड़ा देंगे। हुआ भी वही , विरोधी पक्ष चिल्लाता रहा मंत्री जी ने कहा अंगूर खट्टे हैं इसलिए लोग अपनी भंडास निकाल रहें हैं। खैर बात आयी और गयी लेकिन लोंगो को मिला कोरा छलावा। अपने लोंगों को भी नहीं मिला कोइ निदान, अब दौर चला सरकार पर दोषारोपण करने का।

ताज्जुब तब होता है जब प्रदेश मुख्यमंत्री को विदेश दौरे से फुरसत ही नहीं मिल रही है। लौट कर आने पर अपनी जनता की सुध लेनी चाही और जनता को राह चलना सीखाने लगे। एक बार फिर राहत का सिलसिला चलाने की शुरूआत हुई। इस बार राहत कार्य का काम किसे सौपा जाए एक सवाल बन गया। मन बे-मन से काम सरकारी देखरेख में करवाना शुरू हुआ। ठेकेदारों को इसमें कोइ मलाई जो नहीं मिलनी थी सो काम में केवल खाना पूर्ति किया गया। पखवारे भर लोग घरों में दुबके रहने को मजबूर रहे, गॉव देहातों में तो लोग नित्य क्रिया को भी पूरा करने में असमर्थ रहें। फिर भी कोइ ठोस नतीजा नहीं निकला। हर बार यही होता रहा है चाहे कम विकसित प्रदेश हो देश की आर्थिक राजधानी ही क्यों ना हो। एक बार फिर सारे दावे खोखले साबित हुए है। सरकार , आबादी के एक तिहाई लोगों के दुख दर्द से क्यों बेखबर है यह विकट मसला जनता सहित विचारकों के लिए अब अनसुलझा बना है। सब माया है, माया तू बड़ा ठगनी।

Wednesday, May 16, 2007

उपभोक्तावाद और नारी


प्रोडक्ट को बाजार में लाने से पहले कम्पनियॉ ,उसके उपयोग करने वालों पर अपनी गिद्ध नजर गडाये बैठी रहती हें। उसे बाजार में सफल बनाने के लिए कई हथकंडो का इस्तेमाल किया करती हैं। मुहम्मद गोरी की तरह बराबर ग्राहक के दिलो दिमाग पर चढ़ाई करती रहती हैं कि पृथ्वीराज रुपी ग्राहक कभी तो प्रोडक्ट रुपी संयोगिता के रुप-जाल में उलझेगा और जेबों पर कम्पनियों का कब्जा होगा। इसी तरह का एक वाकया साफ नजर आया जब मुम्बई के नरीमन प्वाईन्ट से चर्च गेट के लिए सामूहिक टैक्सी में बैठा। भले ही प्रोडक्ट और उसका लक्ष्य यानी उस प्रोडक्ट का उपयोग करनेवाली एक महिला ग्राहक रुपी संयोगिता ही थी। कम्पनी रुपी मुहम्मद गोरी ने बडी सोच विचार कर अपनी मार्केटिंग टीम के सिपाहियों को नरीमन प्वाइन्ट के टैक्सी स्टैन्ड पर खड़ा कर दिया ,नए साड़ी पिन के पैकेट के साथ। टीम के सदस्य टैक्सी में बैठने वाली महिला सवारियों को पैकेट फ्री में देते साथ में टैक्सीवाले को महिला सवारी का किराया भी। किराया देते वक्त यह कहना नहीं भूलते, केवल महिलाओं के लिए। यानी उपभोक्तावाद की नजर उन पर गड़ चुकी है। पुरुष सहयात्री हक्के बक्के रह गये। गॉव तो अभी इससे अछूते हैं,लेकिन कब तक। विज्ञापनों की बाढ ने वहॉ भी अपने चढाई के रंग ढंग दिखाने शुरू कर दिये हैं। अधनंगे विज्ञापन, जिनमें महिलाओं का भरपूर प्रदर्शन किया जाता रहा है बार बार अपनी असली मकसद को जाहिर करते हैं। मुम्बई महानगरपालिका की महिला नगरसेविका ने इसके विरुद्ध कड़ा रुख अख्तियार किया। लेकिन मुहम्मद गोरी की जड़ें मजबूत हो चुकी हैं। महानगर पालिका की आय की कुज़ी इन विज्ञापनों को हटाना अब उनके लिए भी संभव नहीं। मुँह पर भले ही इन विज्ञापनों को भला बुरा कह लें लेकिन आयेंगे फिर उन्हीं के सामनें, आखिर जमाना उपभोक्तावाद का जो है। इस कमजोर नस पर गोरी रुपी कंपनियों का हमला बदस्तूर जारी रहेगा, सो मित्रों जागो ...... जागो इस मुहम्मद गोरी को रोको..... ।

Friday, May 11, 2007

सदी के महानायक के बेटे की शादी और मीडिया ।


जब से महानायक के बेटे की शादी की घोषणा हुई है महिला टी.वी.पत्रकारों के लिए तो मुश्किलों की ही शुरुआत हो गई है। एक तो फिल्मी दुनिया के चर्चित अविवाहित युवा से फ्लर्ट करने को नही मिलेगा दूसरे शादी की तैयारियां भी करनी पडेगी। एन्कर और महिला रिपोर्टरों ने ब्यूटी पार्लर से लेकर फैशन डिजाइनरों तक के दरवाजे पर मैराथन दौड़ शुरू कर दी है,अपने रुप और फैशनेबल कपड़ो को संवारने के लिए। चवन्नीछाप पत्रकारों के लिए ज्यादा के मुश्किल की घड़ी आने लगी जिन्होंने अभिनेता और अभिनेत्रियों के मुँह से अपनी प्रशंसा में कसीदे पढ़वाए थे। सवाल यह है कि अब किससे अपनी प्रशंसा करवाएगे। फिल्मी हस्तियों के अलावा राजनेता और बौद्धिक लोग भी जो वहॉ रहेंगे। बौद्धिकों के सामने तो कलई खुलते देर नहीं लगेगी। यानि चवन्नीछाप एन्करिंग और रिपोर्टिग दो कौडी की हो जाएगी। फिर भी मन में समुद्र हिलोरें मार रहा था। जलसा या प्रतीक्षा में कोइ तो मिलेगा , और तो और वहॉ कोइ नहीं मिलेगा तो ऐश्वर्या के घर पर ही किसी को घेरेंगे। किसी थक चुकी हीरोइन की प्रशंसा का हथियार चलाएँगे जिससे रिटर्न फायर में वह कुछ तो दे जाएगी। लेकिन मन का जहाज तब समुद्र में डूबने लगा जब अमिताभ ने किसी को शादी में आने का न्योता ही नहीं दिया। सारी इन्टरटेनमेंन्ट रिपोर्टिंग की हवा फुस्स हो गई। आखिर पहले से कह जो रखा है कि हमारी पहुँच बड़े बड़े कलाकारों के ड्राइंगरुम से बाथरुम तक है। अब अपनी लाज और अमिताभ के प्रति गुस्सा को छुपाएं कैसे। अमिताभ कद काठी से काफी ऊँचे है वहाँ तक गुस्सा पहुँचकर उलटे अपने उपर ही आ गिरेगा जेड सिक्यूरिटी के रुप में। अमिताभ को अपने बेटे की शादी भी चैन से नहीं करना देने चाहते थे ये लोग और उनके गुस्से से भी बचना चाहते थे। तो शुरुआत हुआ प्लान बनाने का। आज तक जो अपने घर और शरीर का प्लान नहीं बना सकते थे वे मिडिया कवरेज की बातें करने लगे। आखिर दिखाना जो था कि हम भी हैं किसी काबिल। फील्ड के हर रिपोर्टर और कैमरामैनों को एक लाइन से लगा दिया गया। दूसरा कोई खबर अहम हो ही नही सकता सिवाय इसके। कैमरामैनों और रिपोर्टरों को हिदायत दे दी गई कि अमिताभ के घर से निकलने वाले कुत्ते का भी फुटेज लेना है। शादी के दिन रास्ते में हर किसी को लगाया गया कि अभिषेक,अमिताभ और उनके नौकरों तक तस्वीर नहीं छुटनी चाहिए। लेकिन खिसीयानी बिल्ली खम्भा नोचें वाली कहावत तब चरितार्थ हुई जब सारे बराती चमचमाती गाडियों में सवार तेजी से निकलते गए। अब वो अमिताभ के घर की दीवार नोचे या अपने बाल। इन्तजार तो उन्हें करना पडेगा शायद अभिषेक-ऐश्वर्या के बच्चे की शादी तक...

Thursday, May 10, 2007

इंडियानामा की शुरुआत...

आप सबका मेरे इस ब्ल़ॉग में स्वागत है...मेरी ये कोशिश रहेगी कि मैं अपने देश और देशवासियों की पसंद औऱ नापसंद का ख्याल रखते हुए छोटी छोटी जानकरियां देते रहूंगा ।




जल्दी ही फिर मिलेंगे....