Thursday, December 20, 2007

टूटने का दर्द और आवाज,


जो बनता है उसका बिगडना या टूटना निश्चय है। प्रकृति का यही सच है कि हर चीज नश्वर है,आत्मा कोई वस्तु नही सो वही केवल अजर अमर है।अब बात यूँ है कि आखिर यह कैसी टूट है जिससे दर्द व्यक्ति को होता है। सम्बनध जब टूटते हैं तो दर्द हर व्यक्ति को होता है जो संवेदनाए समझता है। जिसे संवेदनाओं से कोई लेना देना नहीं उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। माता पिता अपने दर्द को बडे ही गंभीरता से छुपा लेते हैं लेकिन दूसरे शायद ऐसा नहीं कर पाते हैं। आज परिवार की परिभाषा ही बदल गयी है। सभी एकाकी ही रहना चाहते हैं कोई नहीं चाहता है कि मैं किसी और की जिम्मेवारी लूँ। केवल और केवल देहज सम्बनधों की परिभाषा बनते जा रही है। कहने के लिए रह गये हैं रिश्ते नाते। ऐसा ये नहीं है कि ये मेरा मत है, मैं खुद रिश्तों और नाते-दारियों को खूब दिलो जान से चाहता हूँ। अपने आस पास देखता हूँ तो लगता है कि ये कैसे भाई है जो कभी एक दूसरे पर जान छिड़कते थे आज अलग अलग राहों पर चलने की बातें करते हैं। कभी लगता है कि इनकी महत्वाकांक्षा ही इनको इस मोड पर लाइ है। कभी लगता है कि शायद इनके मन में कुछ और आ गया है जिसे मानवीय आँखे नही देख पा रहीं है।
खैर जो भी हो लेकिन जन्म देने वाले माता पिता की दशा बेहद दयनीय होने लगती है कि अपने किस पक्ष को वो गलत ठहराये। एक उनका दाहिना हाथ तो एक उनका बांया हाथ।दोनों में से कोइ एक टूटता है तो दर्द तो उनको ही होता है। समाज सहित अंतर्मन को जवाब उन्हें ही देना पड़ता है कि क्या परिवरिश में कोइ कसर रह गयी है। नयी पीढ़ी उन्हे समझा देती है कि अब यही समय की जरुरत है।
यह विषय मेरी समझ से परे लगता है। हो सकता है कि मैं केवल एक पक्ष देखता हूँ। लेकिन आपके विचार भी जानना चाहूँगा। क्योकि भारत के अधिकांश परिवार की टूट ने ही उन्हें कमजोर कर दिया। चाहे अम्बानी भाई हों, विद्याचरण शुक्ल हों, प्रमोद और प्रवीण महाजन हों, ललित नारायण मिश्रा और जगन्नाथ मिश्रा हों, चाहे नए पीढ़ी के राजनेता अमर सिंह हो। देखें इस मसले पर आप क्या कहते हैं।

हमारे पिता जी का कहनाम है कि पाँच उँगलियों के मिलने से बनने वाली मुट्ठी की ताकत बेहद ज्यादा होती है।

सत्य की भाषा


एक जमाना था जब सत्य को सबसे उपर और पवित्र माना जाता था। लेकिन समाज में हुए बदलाव और परत दर परत पड़ते वक्त की धूल ने पूरे सत्य को धुँधला कर दिया है। सत्य कब और कहॉ चला गया किसी को इसका ख्याल ही नही रहा। आप भी कहेंगे क्या बकवास बातें हैं, लोग नून तेल लकड़ी की जुगा़ड में हैं, कौन सत्य वत्य की बीती बातें सुनता है। जनाब अब पानी सर से उपर बह रहा है, कहीं कोई बात होती है, तो उसके पीछे कुछ तो सच्चाई और हकीकत है। उदाहरण सामने है, पुलिसिया कहर से सभी परिचित हैं, लेकिन राज्य के मुख्य मंत्री ही इस बात को एक सिरे से नकांरें, तो बात कुछ हजम नहीं होती। आखिर हो भी तो कैसे एक दफा खुद ही सरकार के मुलाजिमों को सी.एम. साहेब को नहीं पहचानने से सारी वर्दी उतारने की धमकी खुले आम दे चुके हैं।अब वकालत करते है तो उनके ही आचरण पर सवालिया निशान उठते हैं कि सच क्या है। जनता या उसके जरिये चुने गए लोग जो सच को मिनरल वाटर की तरह पीते चले जा रहें हैं। यही मात्र एक उदाहरण नहीं है कई पड़े है,जैसे महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री की बातों को ही ले लें। जैसे जैसे दिल्ली की तरफ जाते हैं भींगी बिल्ली, सरीखा व्यवहार करते रहते हैं। किसानों का मसला हो या राज्य में विकास का मुद्दा हो केन्द्र को बरगलाने के लिए झूठ का ही सहारा लेते हैं यानि सच्चाई से कोसो दूर भागते हैं।

कुल मिला करके बोलें तो मानवता मर गई है, सच्चाई का भी लोप हो गया है। बचा हैं तो केवल और केवल ढकोसला, जो दिनों दिन सच्चाई की दूसरी भाषा बनते जा रहा है।इसके बारे में यदि कुछ भी बोलना होगा तो बोलेगा कौन, अब यह एक सवाल बना हुआ है। हाल में ही सर्वोच्च न्यायलय ने अपने पत्रकार मित्रों को भी आड़े हाथों लिया है। जैसे तैसे ही सही उनकी भी स्मिता पर यह कह कर अपना तुगलकी फरमान चलाया कि आप ने संविधान के विरूद्ध आचरण किया है। देश के विधिपालिका के कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया। हम पूछते हैं कि ये कौन होते कि इनकी गलतियों की पर्देदारी की जाए। यदि इनकी सुनें तो इनके हिसाब से ये चोरी भी करेंगे और सीना जोरी भी करेंगे। फैसला सुनाते सुनाते क्या जाने अपने आप को ईश्वर का ही दूसरा रुप समझने लगो हैं। खैर एक सीख तो मिली कि अब सच को छुपाना सरल नहीं होगा। लोग अपने बातों को फिर से सामने लाएगे चाहे किसी नेता के खिलाफ हो या अपने ही राष्ट्र के तथाकथित कर्णधारों की बातें। जिन्दाबाद जनता ..........।

सफ़र के राही


आज पहलीबार सफऱ करते करते लिखते का मन कर रहा है, सो लिखने बैठ गया हूँ। कई बाते आ और जा रही हैं कि कहाँ से शुरुआत करुँ। एक विचार आया कि कुछ राजनिति की बातों को आपको बताऊ, लेकिन बात हमारी इंडियानामा की है तो सोचा सफर के दौरान लोगों की बातों को ही आपको सुनाऊ। आखिर भारत के लगभग 6 लाख गाँवो से भी आपका परिचय भी तो कराना है। सफर पर निकल पडा अपने ही लोगों के साथ रास्ते भर हर तरह के लोग मिलते गये। भाषाएँ अलग रहन सहन अलग बोलचाल में एक दूसरे की बातें समझने में असमर्थ लेकिन एक चीज की समानता थी, खाने के मामले पर सभी करीब-करीब साथ ही थे। अपने ही लोंगों के साथ होने से थोड़ा ज्यादा लोग सुरक्षित महसूस कर रहे थे। अब यदि एक उस व्यक्ति की बात करें जो बिलकुल ही अनजान उन नये रास्तों से तो हम उसे बेबस ही मानेंगे लेकिन वह भी अपने आप में मस्त है। कुछ लोग और ही समझ कर अपनी ही दुनिया अलग बसा लेता है।या तो कोइ किताब पढ़ता है या कोई पेपर से ही अपने मुँह को ढाँप लेता है। जिससे ना तो वो दूसरों को देख सके और ना ही दूसरे उसको देख सकें। अब उनकी बातें जो अपने पूरे परिवार और लावलश्कर के साथ सफऱ पर निकल पड़े हैं। अपने ही लोगों के बीच में अनजान से बनते हुए उन्हें ये लगता था कि इसबार थोड़ा पहचान हो सकेगा। और इस बार लोगों में गाहे-बगाहे कोइ मिला भी लेकिन मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। आये भी तो कैसे सबसे पहले अपने स्वार्थ जो निहित थे। कुछ लोगों ने अपने अपने दिल के बंद दरवाजे खोले भी लेकिन खुद को असुविधा होता देख असे बंद करने में कोई संकोच नहीं रखा। अपने गाँव घर से दूर आकर के लग जरुर रहा था कि इसबार कुछ नये दोस्त मिलेंगे कुछ नयी जगहों से परिचय हो सकेगा।जगहों से अपनी पहचान तो जरुर हुई लेकिन लोग से दूरी बरकरार रही। लोग उस अपरिचित से व्यक्ति के दूसरे प्रांत से होने के चलते एक अजीब सी निगाह से देखते थे। लगता था कि वो किसी अन्तरिक्ष से आया हो।
अचानक रात के 11 बजे एक अजीब सा हंगामा सुनाई दिया क्या है कुछ समझ में अनयास नहीं आया लेकिन जब ध्यान दिया तो सारा मामला साफ नजर आया। कोई उच्चक्का समान लेकर के भागने के फिराक में था कि नईनवेली दुल्हन जिसे गहनों से अभी लगाव की शुरूआत ही हुई है, या यों कहें कि पिया के बिना ट्रेन की सेज पर नींद नहीं आ रही रात थी सो रात जगती हुई काट रही थी। चोर आने से पहली नींद टूटी शोर मचाने के बाद सभी जग गये। पकडकर पहले को उसकी खूब धुनाई की तब जाकर के पुलिस के हवाले किया। गौर तलब है कि हल्ला सुनकर सबसे पहले सचेत हुआ, वही अजनबी सा व्यक्ति, हरकत में आकर के चोर को पकड़ा। बड़ा जोखिम का काम था क्योकि पता नहीं था कि उसके पास क्या हथियार है। सभी अब उस व्यक्ति के करीब आ गये मेलजोल बढ़ गया।खैर जो भी हुआ चोर के भाग्य से ही सही लेकिन उपेक्षित सा रहने वाला व्यक्ति भी अब सबों के साथ हो गया। सफऱ के अन्त तक वह भी अब लोगों से बातें कर सकता है। घटना या दुर्घटना ही सही लोगों को एक दूसरे के करीब तो आये। जो भी हो चोर मिलाए लोग-- हो सकता है अगलीबार उसके साथ ऐसी नौबत ना आये।

Monday, December 17, 2007

दीपावली के दीपक अब गुजरात की गरीमा

राम को घर आये सदियाँ बीत चुकी हर बार हम उनके घर आने को धूमधाम से मनाते हैं। जिससे लोग उनके कष्ट भरे दिनों को याद करें और उससे कुछ सीख ले सकें। 14 सालों का बनवास कोई मामूली बात नहीं थी,वो भी एक सुकुमार राजकुमार के लिए जो कभी भी पैदल चला तक न हो। माल कि मात्र ये कोरी कल्पना है तो भी एक हद तक बेहद सटीक है। राम अपने पूरे कूनबे के साथ जंगल और पहाड़ो की खाक छानते रहे, अपने पिता की शपथ को पूरा करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। रघुकुल की मर्यादा की जो बात ठहरी। बात जब शपथ की आती है तो हम अनयास ही अपने शपथ को लेकर के थोड़े से ज्यादा ही संवेदनशील होने लगते हैं।अब सदियों से जलनेवाले इुन दीपकों को ही ले ये जलते हैं कि इस बार तो सारी दुनिया को रौशन कर देंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। हर बार अपने पूरे दम से प्रयास तो करते हैं लेकिन उसमें सफल नहीं हो पातें हैं। अपने आप को भी जलाकर के सारे संसार के अन्धकार को मिटाने में वो सफल नहीं हो पाते है। लेकिन जलने में एक मजा उसे आता है । हर किसी को यह तो बता देता है कि केवल अपने स्वार्थ के लिए जीना तो आसान है लेकिन यदि अपने स्वार्थ से उपर उठ कर किसी और के लिए थोडा़ सा भी एक कदम आगे बढा़ते हैं तो बड़ा सुकुन मिलता है। हम और आप सोचते रहते हैं करने वाला काम कर जाता है। इस थोड़े से उमर भर के लिए एक बार भी कुछ अच्छा सोंचे तो हर एक व्यक्ति अपने आप में एक आयाम खड़ा कर सकता है जिससे फिर कभी जलने की जरुरत नहीं पड़ेगी।

अब बात करें अपने गुजरात की, कहाँ तो तय हुआ था कि यह एक ऐसा प्रदेश होगा जिसमें कोइ भेदभाव नही होगा। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ, और किसी ने करने का मन बनाया उसे भी रोका गया। राम के नाम पर राजनीति जम कर लोगों ने की आखिर चुनाव जो है। हर किसी को छूट मिलनी चाहिए सो लोगों ने पुरजोर कोशिश लगा रखी है। अपनी अपनी कमानों से तीर को निकाल कर धनुष पर चढ़ा चुके हैं कि कब हम उन्हें इस मसले पर घेरे जिससे विरोधी पक्ष की फजीहत हो।नारे खूब लग रहें हैं लोगों को आपस में जुझाने की दबी-दबी तैयारियाँ भी हो चुकी है। भगवान ना करे कि लोगों की बुद्धि में फिर से शैतान घर कर जाए और लोग एक बार फिर मरने मारने पर उतारु हों जाए। याद तो उन्हें दीपक को करना चादिए कि कैसे खुद जलता है और दूसरों को राह दिखाता है। अब ना तो राम हैं ना ही दीपक सो जनाब लोग तो यहाँ हर बात जायज मानते हैं। खैर देखे चुनाव के और कौन- कौन से रंग होते हैं।