Wednesday, December 31, 2008

विदा साल २००८....,


मित्रों काफी लम्बे अरसे के बाद आप लोगों से एक बार फिर मुखातिब हूँ, समय नहीं दे पाने के कारण आप से माफी माँगता हूँ। पिछले दिनों काफी कुछ घटा जिसपर लिखने का मन तड़प उठा लेकिन लिख नहीं सका ये मेरी गलती है,क्षमा करेंगे। साल 2008 अब अपने अंतिम संध्या के कागार पर है, साल 2009 का आगाज़ भी। खैर साल 2008 के अन्त में जो कडुवे अनुभव हुए अम्मीद है कि अगले साल वैसे अनुभव नहीं होंगे। इसी उम्मबद में मैं भी आपलोगों से इतने दिनों अब दूर नहीं रहूँगा। आखिर आप ही तो हमारी ताकत हैं जो इस लेखनी में भर देते हैं कि मैं बेबाक कुछ भी कह देता हूँ।

Wednesday, September 10, 2008

अब तो बस करो.....


साल 2007 से लेकर अब 2008 का सितम्बर माह आ गया है लेकिन, आपसी लडाई है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। लोग हैं कि एक दूसरे को मरने मारने से पीछे नहीं हट रहें हैं। हर बार केवल एक ही मुद्दा कि महाराष्ट्र में हो तो केवल और केवल मराठी ही बोलनी होगी। क्या ये देश का अभिन्न अंग नहीं है, मानता हूँ कि लोग कहेंगे कि जिस जगह प्रांत में रहते हो तो वहाँ का सम्मान तो करों। तो इसमें लोगों को हर्ज क्यों हो रही है। हर बार ये क्या कहना जरुरी होता है कि बाहर से आये लोग यहाँ का सम्मान नहीं करते। मेरे समझ से ये केवल और केवल मुद्दा राजनीतिक बनते जा रहा है। अपनी राजनैतिक रोटीयाँ सेकने के लिए लोग एक दूसरे के खिलाफत सहित मरने मारने पर उतारु हो रहे हैं। पिछले दिनों या यों कहें हर बार जब बंद और विरोध होते हैं तो ये सबसे पहले सरकारी सम्पतियों का निशाना बनाते हैं और उसको तबाह बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। तब कहाँ चली जाती है प्रदेश प्रेम कहाँ रह जाते हैं सम्मान करने के वादे। मैं खुद महाराष्ट्र का नहीं हूँ लेकिन मुझे गर्व है कि मैं देश के उस हिस्से में रहता हूँ जहाँ आजा़दी के बाद ढोरों प्रगति हुई है। इस प्रगति में केवल और केवल इसी प्रदेश के लोगों का हाथ नही है। सबों का सम्मिलित प्रयास है। यहाँ के हिमायती कह सकते हैं कि आप अपने प्रदेश वापस चले जाओं मैं चला जाउगा बेहिचक नहीं रुकूँगा लेकिन एक जवाब जरुर दे दें कि आखिर जो हिमायती है वो बता दें कि आजा़दी में उनका क्या योगदान रहा है। हम तो यह कह रहे हैं कि भले ही प्रयास किया या ना किया अपने प्रदेश के ।उन पहलुओं को भी हमने उन लोगों को बताया जो इस बार में जानकारी ही नहीं रखते थे। लेकिन आप में से कुछ ही लोग हैं जो अपनी संस्कृति के हर पहलू को बाहर से आये लोगों को अवगत कराते हैं।
जब आप अपनी संस्कृति में उनलोगों को समेटेगों नहीं तो वो हरबार अपने आप को उपेक्षित सा समझेंगे। जिससे मन में द्वेष फैलना वाजिब है। ऐसा नहीं है कि यही एक तरीका है ,सबसे इन राजनीति के रोटी सेकनेवालों पर पाबंदी लगाया जाए जिससे अपने आप ये खुद के खोल में ही दुबके रहें। जिससे उन्हें अपने मुँह की खानी पडे। ये शुरुआत से ही लक्षित है कि जिस काम को दबाव के साथ आप करवाना चाहते हैं, वो कभी भी नहीं होता है। आपस में ही मतभेद होने लगते हैं जिससे एक दूसरे पर भड़कना स्वाभाविक है लोग आपस में ही गुत्थम-गुत्था करते रहते हैं। हर बार एक मन में ग्लानि लगती है कि क्या यही वो कल्पनाएँ थी हमारे अपने पुरोधाओं के, ये सारी स्थिती को देखकर शर्म आती है। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि फिर से हम आपसी द्वेष के दौर में जी रहे हैं जहाँ केवल और केवल आपसी रंजिश ही हावी है ना कि आपस में कोई सदभावना है।
मैंने अपने मन का उद्गार आपको बताने की कोशिश की है हो सकता है कि आप इससे सहमत ना हो लेकिन ये बात जरूर है कि आप जब दूसरे को खुले दिल से स्वीकार नहीं करेंगे तो दूसरा आपको दिलखोल के कैसे स्वीकार करेगा। हमने तो कभी दिल के दरवाजे को बन्द नहीं रखा लेकिन ये बाते इतने झकझोर रहीं हैं कि ये क्या हो रहा है... अब भी ये बन्द तो करो राजनेताओं अपने लाभ के लिए हजारों लोखो लोगों को जलते हुए आग में झोकने के बाद भी दिल नहीं ठंढा नहीं हुआ... मीडिया भी तो बाज आए इनको लाभ पहुँचाने से.....।

Tuesday, September 9, 2008

हर बार कि तरह एक बार फिर बेबस......,


साल दर साल लोग भले ही प्रगति करते जाए लेकिन हर बार कि तरह प्रकृति के आगे वेबस हो ही जाते हैं। बचपन से सुनते आ रहें हैं कि मधेस इलाके की शोक है कोसी। कुवांरी नदी कही जानेवाली कोसी के रौद्र रुप को देखकर भय लगना स्वाभाविक लग रहा है। हरबार की भांति अब स्थिती नियंत्रण से बाहर निकलती जान पडती है। हलाकि सरकार के हिसाब से सलाना इससे निबटने के लिए लाखो रुपये भी सरकार खर्च करने से गुरेज नहीं करती है, लेकिन आज के हालात में सब बेमानी नज़र आते हैं। हम उन्हें पिछडा कहे या भ्रष्टाचार में गले तक डूबे हैं ये कहे कुछ स्पष्ट नहीं है। लेकिन हाँ इतना जरुर कह सकते हैं कि वर्तमान बिहार सरकार के नियत में ही खोट है, जिससे मदद के हाथ ना तो बढ रहें हैं और ना ही सही मायनों पर मदद ही मिल पा रही है। लोग कि स्थिती देख कर ना कि दया भाव उमड़ता है ब्लकि क्षोभ होता है कि यही सरकार है जो खुद को जनता का हम दर्द कहती है। लेकिन सतहीतौर पर काम करने में वो बेहद ही नाकारा साबित होते हैं। अपने ही लोंगों के सामने ऐसी बातों को सामने लाते हैं कि यह कहना बेहद मुश्किल हो जाता है कि ये क्या करना चाहते हैं सचमुच ये मदद करना चाहते हैं या मदद के नाम पर कोइ ढोंग। हकीकत में ये मदद से ये कोसो दूर हैं केवल और केवल बस छलावा ही करते रहते हैं।
ये कोई मामूली बात नहीं है,कि लगभग 30 लाख लोग और 200 किलोमीटर तक बाढ की विनाश लीला फैली पडी है। हरबार ये एक ना एक नया बहाना बडी आसानी बना डालते हैं। इस बार का बहाना है कि कोशी के बाँध में दरार आया नेपाल सरकार के अनदेखी के कारण से। मतलब साफ है कि अपनी करतूत को छुपाने के लिए ये लोग नेपाल सरकार के मत्थे सार दोष मढना चाहते हैं। इसबार फिर से अपने आप को पाक साफ साबित करने के होड़ में लगे हैं ये माहानुभाव। वैसे तो होना ये चाहिए कि इस मुसीबत की घडी में ये लोग एक दूसरे का हाथ बटाएँ लेकिन ये एक दूसरे को ही नीचा दिखने के फिराक में हैं। इसी बेबसी के दौरान मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला जो खुद ही इस चक्की में पिस चुका था। अपने परिवार के अधिकांश लोगों को खो चुका वह व्यक्ति कभी एक दरवाजे पर दस्तक लगाता तो कभी दूसरे दरवाजे पर अपने अरदास लेकर के जाता। कहीं किसी अधिकारी का दिल पसीजे और कोई कार्यवाही हो कि जिन्दा ना हो सके तो कम से कम अपने रिश्तेदारों की लाशों को भी तो खोज निकाले जिससे उनके दाह संस्कार किया जा सके। हमने तो यह भली भांति देखा कि वो अफसर इन लाचार और बेबस लोंगों की बातों को सुनना तो दूर बात करने को तैयार नहीं। जब यह रवैया बरदाश्त नहीं हुआ तो कुछ कानूनी और ठोस कदम उठाने पडे जिससे उनकी सुनवाई हो सकी। हालात तब और सोचनीय हो जाते हैं जब इन लोगो को मदद करने के लिए तैयार दल बार बार नि:शुल्क अपनी सहायता के लिए तत्पर रहता है और ये कहते हैं कि इसके लिए कितने पैसे लेंगे। मदद के लिए तैयार लोग भी कभी ये सपने में नहीं सोच पाते हैं कि कोसी की इस रूद्र रुप से निपटने के लिए ऐसा भी होता है क्या? कुछ खबर ऐसी भी आयी कि मृतकों के शरीर को तलाश करने के लिए अधिकारियों ने उनके घरवालों से पैसे माँगे जो देने में समर्थ हुआ वो तो अपने घरवालों का दाह संस्कार कर पाया जो नहीं समर्थ रहा वो आज भी अपने लोगों के अंतिम संस्कार के लिए विभाग-विभाग का चक्कर लगा रहा है। ऐसा नहीं है कि लोगों ने मदद नहीं किया सबों ने खूब मदद किया। आप को शायद जानकर ये आश्चर्य हुआ होगा कि जहाँ इस प्रदेश के लोगों को नफरत की निगाह से देखा जाता है उन लोगों ने भी मदद किया भले ही वहाँ रहनेवाले लोग इसी प्रदेश के हैं। लेकिन एक बात भले ही मैं दबी जुबान से कहूँ लेकिन कहूँगा जरुर कि मदद के लिए सारे प्रदेश के लोग एक जुट होकर के नहीं आये,ये बात अगर किसी और प्रदेश में होती तो सभी बढ चढ करके आते।.. जरा आप भी अपने दिल से सोचिए क्या वो देश का एक हिस्सा नहीं है...क्या उनलोगों को मदद नहीं चाहिए ..रोडे अटकानेवालों को सबक नही सिखाना चाहिए...अफसर क्या जाने लोगों की आप बीती...

Friday, September 5, 2008

आज लिखने का मन करता है.......


कुछ दिनों पहले मैंने सोच ही लिया था कि अब फिर कभी इंडियानामा में कुछ भी नहीं लिखूँगा। लेकिन आस पास इतना कुछ घट चुका कि अब अगर मैं रुकता हूँ तो अपने इंडियानामा के नाम को सार्थक नहीं कर पा रहा हूँ। गुजरात से लेकर के कश्मीर तक जल रहा है। गुजरात में सैकड़ो किस तरह से अनाथ हुए ये सभी जानते हैं। हम और आप भले ही इन बातों को भूल जाएँ लेकिन जिन पे ये बीती है उसको लोग कैसे भूल सकते हैं। आतताइयों की रुह भी नहीं काँपती इन नीरीह लोगों के साथ ऐसी हरकते करते हुए। हालात तो ये तक हो गये कि लोगों के हस्पतालों में ले जाती एम्बेलून्सों पर भी बम का निशाना लगाया। कुछ उत्साही यगये लोगों को बचाने तो वो भी किसी आतंकी के शिकार बन गये। ये तो बातें उस प्रदेश की है जहाँ हर कोई अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहा था जो भी आता वहाँ को रोजगार और शासन की व्यवस्था की प्रशंसा किये बगैर नहीं जाता लेकिन अचानक से हुए इस हादसे ने वहाँ से लोगों के पलायन करने पर मजबूर कर दिया।
हम यों कह सकते हैं कि साल की शुरुआत ही कुछ ऐसी शर्मनाक रही जिसे याद करने पर शुद को भी शर्म आती है। आरक्षण का भूत एक बार फिर जगा और लोगों को बांटता गया। हर किसी के हाथ में कलम कम हथियार ज्यादा दिखने लगो। गुजरों की करतूत ने सरकार सहित देश को लगभग एक हजार करोड़ का नुकसान पहुँचाया। ऐसा नहीं कि आरक्षण मिल जाने से रातों रात उनकी तरक्की हो गयी। वहीं वो भूल गये कि हजार करोड का नुकसान पहुँचाने के बाद उनकी वसूली सरकार उन्हीं से करेगी,भले ही उसका रुप कोई और हो। अभी वो आग बुझी ही नहीं थी कि अपने नेताओं की संसद की करतूत ने हमें कहीं का नहीं छोडा। क्या सरकार को बचाने के लिए कोई ऐसा भपी कर सकता है ? जानवरों की मंडी की तरह बोलिया लगने लगी। बेशर्मी की हद पार करता तब दिखी जब तथा कथित नेता ने ये कहना शुरु किया कि लोग मेरे यहाँ खुद कहने आये थे कि देखिये मैं बिकने को तैयार हूँ आप खरीदेगें क्या। जैसे तैसे यह मामला धीमा पडा कि अहमदाबाद में आतंकियों की करतूत एक और जख्म दे गया। गुजरात के जख्मों पर अभी मरहम लगे नहीं थे कि कश्मीर की हरकत ने और शर्म से अपना सर झुका दिया। एक बार दान में दे जाने के बाद फिर से जमीन लेने की हरकत ने अपने ही इतिहास को झुठला दिया। हमारी बातों को कोई अन्यथा मतलब आप लोग ना निकालें। मैं केवल इस खून खराबे से अपने लोंगों को बचाना चाहता हूँ, ना कि प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहा हूँ। हर बार जाति और धर्म के नाम पर लोगों को बाँटने का काम किया जाता रहा है। हद तो तब होगयी कि जब राजनितिक पार्टियों ने चक्का जाम की घोषणा कर दी। इस चक्का जाम ने कितनों की जान ली ये गिनना तो मुश्किल है। हर जाम ने सैकडो को संकटमें डाल दिया। बेवजह लोगों के कारोबार में नुकसान सहित अनेकों परेशानियों से रुबरु होना पडा। लम्बे अन्तराल से मेरे मन में ये विचार कौंध रहे थे जिससे मजबूर होकर के मैंने फिर से अपने बातों का आपके सामने रखने का फैसला किया है। अब सवाल उठता है कि क्या हम इतने कमजोर हो गये हैं कि हरकोई आता जाता हम पर हमले करता जाएगा और हमारी रीढ को कमजोर करता जाएगा ? जागो मेरे दोस्तों जागों नाकाम करों इन दहशत गर्दों के इरादों को और इन मौका परस्त राजनेताओं को खदेड़ डालो अपनी इस मेहनत से बनाई गयी धरती से जिसे हम वसुन्धरा कहते हैं।

Tuesday, July 15, 2008

दुखवा का से कहूँ......


अपनी इस परिस्थिती से कैसे रुबरु होउ कुछ समझ में नहीं आ रहा है। हर बार अपने जीवन का होना बडा ही निरर्थक लगता है। पिछले दिनों से यही धारणा मुझे अपने घेरे में ले लिया है। इस अवसाद से निकलने का कोई रास्ता नहीं निकल रहा है। लग रहा है कि सब कुछ छूट गया बेहद पीछे और पीछे। हर संभव अपने आप को बटोटरने की कोशिश करता हूँ।लेकिन समुद्र के गर्त में समाते हुए सब डूबता लग रहा है। अब लिखने का साहस नहीं मिल रहा है। लिखूँगा फिर कभी जब यह असह्य पीडा......... विदा मित्रों.......।

Wednesday, July 9, 2008

चलो सजाओ दुकान आ गया राजनीति का मौसम



बाजार में हल्ला मचा कि गई अब कांग्रेस सरकार, वाम पंथियो ने अपना समर्थन वापस ले लिया। लगी सड़क पर सरकारी गाडियाँ तेज गति से दौडने, कोई नेता अपना गठजोड़ बैठा रहा है तो कोई अपनी फिराक में है कि इसबार तो समर्थन करने पर कुछ पारितोषिक के रुप में मंत्री पद मिल ही जाएगा। तो पिछले चुनाव में हारे राजनेता अपनी बारी के इन्तजार में हैं और चुनाव क्षेत्र में कूद पडे कि इसबार तो हरा कर के ही दम लेंगे और खोई हुई अपनी पगडी की लाज वापस लायेंगे। तो बाहुबली नेता अपने चमचों को इकट्ठा करने लेगे और चुनाव जीतने की जुगत भिडाने लगे। लेकिन किसी ने उस जनता कि सुध लेनी नहीं चाही जिसके दम पर अपनी राजनीति की दुकान चलाने वाले राजनेता इतरा रहें हैं। सबसे ज्यादा दुकान तो चल निकली है मिडिया के नाम के बडे रिटेल के माफिक सोच समझकर गणित बैठाने वालों की। मिडिया के हर एक खोमचे पर राजनेता नामक ग्राहक बैठा जनता को अपने पैतरे से अवगत करा रहा है। आँखे तरेर कर यह दिखा रहा है कि विरोधी पक्ष का समूल ही नष्ट कर डालेगा। लेकिन अन्दर अन्दर पकती खिचडी कुछ और ही दिखा रही है। विरोधियों के साथ ही मिलकर राजनीति की गाडी आगे बढाने का अवसर ढूँढ रहा है।किसी भी कीमत पर सरकार को बचाने का प्रयास कर रहा है। अपनी असफलता को भी नहीं जाहिर करना चाहता है। जनता के सामने यह तर्क कि हम जनता पर फिर एक बार चुनाव का बोझ नहीं डालना चाहते हैं। लेकिन मन कि इच्छा है कि कहीं कुर्सी ना चली जाए। सरकार से समर्थन वापस लेने का वामपंथियों के कई तर्क हैं जो कुछ हद तक सही लगते दिख रहे हैं।
लेकिन एक बात समझ से बिल्कुल ही परे है कि आखिर इतने साल साथ-साथ चलने के बाद कौन सी मजबूरी आ गयी जिससे सरकार से कदम से कदम मिलाने वाले अपने ही कदम पीछे लेने लगे। बात एक हो तो कहें मँहगाई सुरसा की तरह मुँह बाये जा रही है सरकारी सहायता तो दूर, कहा गया कि यह कुछ दिनों तक ऐसे ही बनी रहेगी। उपर से न्यूक्लियर समझौता भी भारी रुकावट पैदा कर रहा है सुचारु रुप से सरकार चलाने के लिए। खैर ये तो मुद्दे हैं जिन्हें सुनाकर मैं आपका कीमती वक्त बरबाद नहीं करना चाहूँगा। लेकिन दुकानदारी कि बातें जरुर सुनाउगा। पार्टी कार्यालयों में बडे जोर शोर से रंग रोगन होने लगे। पर्दे लगने लगे गद्दे बदले जाने लगे। अपने चुनाव क्षेत्र से आने वाले लोगों की जो राजनेता कभी सुध नहीं लेते था अब उनकी सेवा टहल में रात के बारह बजे भी दिखाई देने लगे। उनकी खातिरदारी में कोई कमी ना रह जाए इसलिए खानेपीने का प्रबंध चौबीसों घन्टे रहे इसलिए नये खानसामे को बुलाकर एक अलहदा रसोइ का ही प्रबंध किया गया है। इन सबों के अलावा अपनी उपयोगिता बनाए रखने के लिए गाहे-ब-गाहे नए और पुराने मुद्दों की सहायता ली जा रही है। विरोधी खेमे और सत्ता के खेमे दोनों में चक्कर लगाना जारी रखा गया है। अपनी पहुँच का इस्तेमाल करके मिडिया में भी वक्तव्य दिये जाने लगे जिससे अपने आप को खबरों में बराबर बना दिखाया जाए। अब अपनी राजनीति की दुकान सजाकर बैठे लोग बडे व्यापारी दिखने लगे जिससे सारी इनकी कही बातें सच प्रतीत होने लगी। बोली भी लगने लगी, सरकार बचाने के लिए मंत्री पद आपका इन्तजार कर रहा है स्वीकार करों...........।

Tuesday, July 8, 2008

मैं कब हम होगा…. ?


एक सवाल मेरे जेहन में बराबर कौंधता रहता है कि मैं कभी हम में बदलेगा या नहीं। अपनी अपनी परिस्थितियाँ हैं कि किस तरह से एक दूसरे के करीब लोग लाते हैं। अगर अपनी बात करूँ तो कभी भी मैं में नहीं जीता क्योकि यह एक ऐसी परिस्थिती है जो अगर हावी हो गया तो अहम को दिलो दिमाग पर छाप डालता है। खुद की परिस्थितियों पर अगर विचार करू तो सारी बातें मेरी समझ में भी आ जाती है कि मैं भी मैं की भाषा बोलता हूँ। लेकिन जब से नाम इंडियानामा जुडा है तो धीरे धीरे मैं हम में बदलते जा रहा है। ना कोई जात रहा ना कोई धर्म और ना ही कोई प्रांत-प्रदेश सब समान दिखने लगे। ये बदलाव अनयास नहीं हुआ लगे सालों साल इसके पीछे। हरबार अपनी पहचान को भूलाकर नई दिशा पर चल निकला एक दूसरे से लोगों को जोडने के लिए तो विचारों में भी बदलाव लाया और फिर हम कि राह पर निकल पड़ा। लेकिन घर में आज भी मैं मै ही हूँ कारण यही है कि जिसको जिस भाषा में समझाना चाहिए उसी भाषा में समझाता हूँ। मेरा यही अभी तक मानना है लेकिन हो सकता है कि इस विचार को त्यागना पडेगा ना कि मेरे लिए बल्कि हर किसी को। इस तर्क के पीछे एक छोटा सा वाकया आपको बताता हूँ , वो यूँ है कि अपनी घूमन्तू प्रवृति के चलते कई बार ऐसी जगहों पर निकल पड़ता हूँ कि कहना मुश्किल होता है कि कहाँ आ गया हूँ। हुआ ऐसा ही घूमते घूमते बहुत दूर निकल आया था। गाँव की पगडंडियाँ थी लेकिन चेहरे और भाषा बिल्कुल ही अन्जाने थे। हर कोई अपरिचित की निगाहों से देख रहा था।लेकिन अचानक मेरे दिमाग में ये बिजली कौंधी कि मैं कैसे इनको अपने से जोडूँ।क्योकि इन लोगों का शोषण काफी लोगों ने किया है अब बारी है इनको इनकी स्थिती का भान कराने का। इसलिए सबसे पहले वहाँ घूमते बच्चों के बीच शहर से लाई टॉफियों का अम्बार लगा दिया और बगल के खेत में चला गया हल जोतते किसान के साथ मैं भी शरीक हो गया। तब क्या था सबकी चुप्पी टूटी और मैं, मैं से हम में बदल गया।
यही बात अगर आप दुहराये तो हो सकता है कि आपके बीच का भी मैं कहीं खो जाये और हम में बदल जाये। आज के परिवेश में जितना जल्द यह बदलाव हो वह एक मध्यम वर्गीय के लिए अच्छा है। मसलन लगभग 2 करोड अबादी वाले शहर में रहने को घर का सपना देखने वालों लाखो लोग आज भी अपना दम फूटपाथ पर तोड़ देते हैं। आखिर घर नसीब होता है तो, उसीको जो जितना ही जल्द मैं को छोड़कर हम को अपना लेता है। ठेठ में बोलूँ तो जिसने एक दूसरे का हाथ पकडा उसने अपने सर के उपर छत पाया। मतलब साफ सहकारिता ने ही मध्यम वर्ग को सहारा दिया। सैकड़ो कॉपरेटिव सोसाइटी ने इस महनगर में लोगों को शरण दी। जिसके बदौलत लोगों के सर पर छत है। ये इतिहास गवाह है चाहे वो प्राकृतिक प्रकोप हो या वो मानव के जरिये बनाई संकट उससे निज़ात मिला है समवेत स्वर से उठाये विरोध से ही। आर्थिक प्रगति में नई क्रांति लाकर के दूध की नदी बहा दी आनंन्द गाँव ने। अमूल नाम से नई पहचान ही दे दी। महाराष्ट्र के हर इलाके में चीनी मिलें इसका जीता जागता उदाहरण हैं। ये किसी एक ने नहीं किया है सैकड़ो हाथों ने मिलकर किया है। तब किसी एक के भडकाने पर क्यों एक दूसरे के हम दुश्मन बन जाते हैं यह बडी गंभीरता से सोचने वाली बात है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किसी के भडकाने पर मैं से अलग हट कर हरकोई हम के रुप में आगे बढे और डटकर उसका मुकाबला करे और मैं के रुप मे खडा भडकाने वाले दानव का नाश कर डाले..... जरा गंभीरता से सोचिए......।

Monday, July 7, 2008

मँहगाई की मार गरीब की हार


हाल फिलहाल की आर्थिक उथल पुथल ने आम जनता की परिस्थितियों को ऐसी जटिल कर दी है कि लगता ही नहीं कि वो कभी भरपेट खाना भी खाते थे। शहर में निकलो तो हर तरफ एक ही चर्चा कि मँहगाई ने कमर तोड़ कर रख दी है। लोग खाने के लिए तरस रहे हैं, अब अच्छे पकवान तो केवल सपनों में ही आने लगे हैं। हर किसी के जुबान पर सरकार के खोखले वादों की चर्चा रहती है, कि कब सरकार अपने इन झूठे वादों से बाज आयेगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है । हमारे जैसे कई लोग सरकार को दोषी ठहराने से बाज़ नहीं आते,या एक अर्थ में आप ये भी कह सकते हैं कि सरकार को उसकी खामियों को दिखा डालते है। सरकार केवल बडे बडे वादे करती है लेकिन कभी भी देश के 60 फिसदी लोगों का ख्याल नहीं रखती है।लगभग 1.5 अरब अबादी वाले देश में गरीबी रेखा से नीचे जीनेवालों की संख्या भी कम नहीं है। अपने अपने साध को साधनेवालों की भी कमी नहीं है हर कोई अपनी ही धुन में रहता है कि कब कोई इस परिस्थिती में पीस जाये और समय की ताक में रहने वाला लाभ उठा जाए, कहा नहीं जा सकता है।सरकार है कि उसे कुर्सी बचाने से ही फुरसत नहीं है। हम और आप मँहगाई मँहगाई चिल्लाते रहे लेकिन सरकार ने इस चिल्लाने पर भी पाबंदी ये कह कर लगा दिया कि ये मँहगाई केवल हमारे ही देश में नहीं है बल्कि सारे देशों मे ये समस्या है जिससे सारा विश्व जूझ रहा है। और तो और ये भी कह गयी कि बढती मँहगाई कुछ दिनों तक और बरकरार रह सकती है। अब भला इसपर कोई सरकार को घेरे तो कैसे। हम और आप केवल अपनी किस्मत को रो सकते हैं कि हमने चुना तो किसे। अगर खास किसी प्रदेश की बात करें तो कोई अपवाद नहीं है हर जगह वही हालत हैं। जनता के रहनुमा अपनी तिजोरी भरने में लगे रहते हैं, अभी एक समस्या निपटी नहीं थी कि दूसरी ने आ घेरा। जहाँ मँहगाई से निपटने के तरीके ढूँढ ही रहे थे कि रही सही कसर बाढ की विभीषीका ने निकाल दी। अब दौर चला बाढ से निपटने की तैयारी होने लगी। सरकारें अपने बजट बनाने लगी कि कैसे इसका फायदा अपने खुद के घर भरने में उठाया जाए। महानगर सहित गाँव देहात के इलाकों में डिजास्टर मनैजमेंन्ट के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। लेकिन जब सही वक्त बचाव के लिए आता है तो तो आसपास कोई नजर नहीं आता है लोग डूबते उतराते हैं लेकिन कोई हाथ आगे नहीं आता है, फिर शायद यही हो कि कोई आगे ना आये और लोग फिर से अपने पुराने परिस्थियों से जूझते रहें।
लेकिन शायद इस बार सरकारी तौर पर खूब मगरमच्छी आँसूओं का सैलाब दिखाई दे, क्योकि चुनाव जो नजदीक है। ताज को हथियाने के होड़ में हर कुछ करने को आतुर ये लोग ये नहीं भूलेंगे कि जनता सब जानती है। लेकिन मेरा मानना है कि जनता की यादाश्त बेहद कमजोर है हरबार अपने साथ किये गये छलावा को भूल जाती है, और जो सामने आता है उसी में अपने दुःखों को दूर करने का सामर्थ्य देखने लगती है। लेकिन हाथ में फिर मिलता है छलावा। जनता कि हालत उस बच्चे जैसी है जो रेत का घरौंदा समुद्र के किनारे बनता है और समुद्र की लहरें उस घरौंदे को मिटा देती है, बालक उसे फिर से बनाने कि लिए जूझता रहता है। लेकिन ये सरकार ऐसा नही करती घरौदा तो तोडती ही है सपने भी तोड़ डालती है सो जनमानष समेट लो अपने बल को कर डालो उपयोग अपने हक का........।

Monday, June 30, 2008

भारतीयता भूलते भारतीय...


हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमारे इंडियानामा में इस विषय पर भी लिखना पड़ सकता है कि भारत में ही भारतीयता से कोसो दूर जा चुके हैं धरती के लाल। लाख कोशिशों के बाद ना तो वो दर्जा मिल रहा है ना ही वो आधार जो कि एक सम्मान का जगह भी दिला सके। हाताश मन अपने आप में ही इन बातों का अर्थ ही ढूँढने लगता है कि क्या होगा। आखिर क्यों ये बातें हो रही हैं ? कहीं प्रयास की दिशा तो सही नहीं है, या मेरे प्रयास को लोग गलत समझ रहें हैं। हर किसी को यही समझाने की कोशिश करता हूँ कि पहले आप भारतीय हैं बाद में आप किसी प्रांत और कस्बे से जुडे हैं। आपकी पहचान भारतीय होने से है ना कि किसी प्रांत विशेष की बातें सबसे पहले आती है।
अब आखिर ये बातें उठती हैं तो इसके पीछे कारण क्या है कुछ बातें धुँधली सी नजर आने लगती है कि ये और कुछ नहीं केवल और केवल राजनीतिक सोंच है जिसे एक दूसरे पर हावी करने की मंशा होती है। ये हालात भले ही क्यों ना एक जगह की हो लेकिन यह बेहद आम बात है कि अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए लोग बराबर एक दूसरे के छाती पर पैर रखते हैं जिससे तकलीफ उन्हें कम उनको देखनेवालों को ज्यादा हो। आखिर आप कह सकते हैं कि मैं इन बातों को आपके सामने क्यों ला रहा हूँ। तो जाहिर है कि मेरा ध्येय है कि बहुजन हिताए और बहुजन सुखाए। लेकिन इस सारे गतिरोध में कौन हितकर्ता है और कौन दोषी ये तो कहना बेहद ही मुश्किल होगा कि और इसका मंजिल क्या और भी कठिन हैं। बचपन का एक द्वन्द है जिसे मैं आप तक पहुँचाने की कोशिश करता हूँ, हरबार एक चाहत होती है कि मैं अकेला क्यूँ रहूँ क्यों ना कोई साथी ढूँढू और उसके साथ अपने विचार की एक एक बारीकियों को खोल दूँ। लेकिन सामनेवाले का विचार देख कर सारे सपने चूर-चूर होते नजर आते हैं। हर बार खुद को मैं दोषी नहीं मान सकता कि आखिर क्यों ऐसा हो रहा है। जब साथ साथ दिन बिताए लोग ही खुद को किनारा करने लगे तो अपने आप को उपेक्षित सा समझना वाजिब है। आखिर क्यों सवाल बड़ा है, ये मेरे समझ से परे है। मन छोटा हो जाता है कि कहाँ तो सोचा था कि हर किसी के दिल से दिल को जोड़ दूँ लेकिन जब खुद को ही किनारा किया हुआ महसूस करता हूँ तो सारे काम काज ठप्प हो जाते हैं।
हमारे पुरखे बहुत पहले ही कह चुके हैं कि दिल से दिल को मिलाओ ना कि उपर ही उपर और अन्तरात्मा को भूल जाओ। पैसा कमाने से ज्यादा लोग कमाने पर तवज्जो दो लेकिन यहाँ तो हर कोई अपनी ही धुन में खो जाता है कि किसको फुरसत है आदमी पर ध्यान दे। बस चले तो उसे रौंद कर आगे बढ जाये बिसात ही कहाँ कि कोई चूँ भी कर दे।हम अपनी कमजोरी समझते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि सामनेवाला हमारी स्थिती पर ध्यान नहीं देता। हमेशा वो नजर गडाये ही रहते है अपनी तो स्थिती यही है कि कुछ ना होते हुए भी सब कुछ मान लेना पड़ता है कि सरासर मेरी ही गलती है। अब चुप बैठना उचित नहीं है, जितना जल्द हो सके लोगों को जगाना होगा कहीं देर ना हो जाये और आने वाली पीढी बहुजन हिताए के बदले निज़ स्वार्थ को ही सर्वोपरी माने.....मानव से मानव को जोडो....

Monday, June 9, 2008

क्या कोई पितृ घातक भी हो सकता है.......?


ऐसा हम आये दिन ही सुनते हैं, ये कोई नई बात नहीं है। लेकिन सवाल उठता है उस बेटे के बारे में जो अपना जीवन ही परिवार और माता पिता के लिए छोड दिया वो कभी अपने आदरणीय पिता का घातक हो सकता है क्या ? इसका जवाब हमें नहीं मिला। लेकिन अगर गंभीरता से इसपर विचार करें तो सारी हकीकत समझ में आ जायेगी। पहले एक वाकया आपको बताता हूँ। बात कोई बहुत ही ज्यादा पुरानी नहीं है, यही कोई दो चार साल पहले की है। एक जानकार थे नाम था ब्रह्मदत्त राय अपने तीन पुत्रों में सबसे ज्यादा स्नेह था अपने दूसरे बेटे से।लेकिन एक-एक कर जब बेटे उनसे अलग होने लगे तो वो अपने आप को मरा हुआ समझने लगे। किसी को उन्होंने कुछ नहीं कहा। लेकिन जब दूसरा बेटा अलग होने लगा तो उन्होंने आग्रह किया कि बेटा छोड़कर जाने से पहले मेरा पिन्ड दान करके जाओ पता नहीं राम ना करे अगर कहीं लौट के ना आ सके तो कमसे कम मेरा, तुम पिन्ड दान तो कर ही चुके रहोगे । अब हम अगर बात करें पितृ घातक की तो लोगों ने ब्रह्मदत्त जी के दूसरे बेटे को ही माना क्योकि उसी में उनका स्नेह बसा था और उसी के जाने के बाद उन्होने प्राण त्याग दिये। ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं था और यह सब कुछ अचानक सा हो गया। ज्यादा स्नेह दूसरे बेटे से होने के चलते सभी उसी को अपने पिता का प्राणघातक मानने लगे थे। सबों के जाने के बाद ब्रह्मदत्त जी पर कोई असर नहीं पड़ा, लेकिन दूसरे बेटे के जाने के बाद तो सारी कायनात ही बदल गयी।
इस घटना ने तो खासकर मुझे तो मेरी अन्तरात्मा तक को झकझोर दिया। लेकिन बातों की गहरायी में गया तो मैं दोष किसको दूँ यह तो समझ से परे हो गया। दोनों ही एक दूसरे पर अपने-अपने प्राण न्योक्षावर करने को तैयार थे, लेकिन उनको घातक की संज्ञा देना मेरे दिमाग पर मनो बोझ सा लग रहा है। बात की गहराई में गया तो समाज में मौजूद घूटन सामने आ गया। सेवानिवृत होने के बाद ब्रह्मदत्त जी की जिन्दगी बिल्कुल ही कठिन हो गयी थी। पत्नी का देहांत होने से पहले ही टूट चुके थे। अब सामाजिक धारणाएँ उनके जीवन को और भी कष्ट दायक बना दी थीं। हालात यहाँ तक आ पहुँचे थे कि उन्होने कई बार घर की परेशानियों से तंग आकर के आत्म हत्या करने का भी प्रयास किया, लेकिन दूसरे बेटे के प्रयास ने उनको सारी कठिनाइयों से बाहर निकाला, तब से उससे और भी ज्यादा स्नेह बन गया। बेटे का बाहर निकलने का भी एक कारण बना घरेलू कलह, जिससे बहुत पहले अपने प्राणों को त्याग देने वाले व्यक्ति को इससे कोई मोह रहा ही नहीं और फिर इस दुनिया को छोड़ चला। ये सारी बातों मेरी आँखो के सामने चलचित्र की भाँति घूमती रहीं है जिससे मैं खुद को कभी भी व्यवस्थितसा नहीं महसूस कर पा रहा हूँ। हर बार ब्रह्मदत्त जी के दूसरे बेटे के बारे में सोंचता हूँ तो उसके प्रति हो रहे अन्याय को अपने उपर ही मानता हूँ। लेकिन मैं उस व्यक्ति को पितृघातक तो कतई ही नहीं मानता हूँ। क्या समाज अपना सोच नहीं बदल सकता ? जो मातृ और पितृ देवो भवो मानता था वो घातक कैसे गो सकता है , क्या पूरा परिवार जिम्मेवार नहीं है........?

जो देखा नहीं वो भी अपना लगे….


क्या आपको कभी ऐसा लगता है कि जब किसी दूरदराज़ में बैठे व्यक्ति से बात करते हैं, तो लगता है कि उससे पहले भी मिल चुके हैं या यूँ कहें कि वर्षों से उसे जानते हैं। मेरे साथ तो यह हमेशा ही होता है। मैं शहर दर शहर तो शुरुआती दौर से ही भटकता से रहा हूँ। इसी घुम्मन्तु प्रवृति के चलते कई बार नये नये लोंगों से मिलता रहता हूँ। कई बार फोन पर भी बातें करता रहता हूँ। हर बार एक नया ही दोस्त बना लेता हूँ। अनेक दफ़ा तो यही लगता है कि जिस व्यक्ति से मैं बाते कर रहा हूँ उससे तो वर्षों पहले मिल चुका हूँ और वो तो जैसे मेरे बचपन का ही दोस्त है। मैं पहले ये गौर नहीं कर पाता था लेकिन साल 2007 से इन बातों पर गौर किया तो पता चला कि हू-ब-हू ये बाते सोलहो आने सच हैं। वाकया यूँ सामने आया कि काम के सिलसले में मेरे हेड ऑफिस से मिला ऑडर ने ऑडर देनेवाले के आवाज़ में ऐसा अधिकार जता दिया कि, मैं तो उसे वर्षों से जानता हूँ। उस आवाज़ में पता नहीं क्या ऐसी बात लगी कि मैं तो समझ गया कि भाई दसकों से बिछड़ा यही मेरा वो दोस्त है, जो कि बचपन में बनारस से तबादला होने की वजह से बिछड गया था। बार बार उससे बात करने का मन करने लगा। लेकिन नया कार्य क्षेत्र होने के वजह से ये संभव नहीं हो सका। खैर काम के आपा धापी में मैं वो सारी बातें भूल गया। रह गया याद तो केवल और केवल वह आदेश। आगे का किस्सा सुनाऊँगा फिर कभी क्यों कि उसी ने जीवन में एक अच्छे दोस्त की कमी को पूरा किया है। उसने हम से कुछ माँगा नहीं है बस दिया ही दिया है। और मैं अभागा उसे आज तक कुछ भी नहीं दे पाया हूँ।
खैर बात ये है कि जिसे आप देख भी नहीं पाते हैं वो भी आपको अपना लगने लगे तो कैसा लगता है। मेरे दिमाग से वो एक कडी होती है एक दूसरे से जोडने की। मस्तिसक के लाख कोशिकाओं में हलचल होने लगती है, तरंगे अपना काम और ही तेजी से करने लगती हैं। शायद ये केवल मेरा मानना हो लेकिन कल्पना किजिए कि जिसे आपने देखा तक नहीं वो अगर आप कोई काम बिगाड़ देता है तो आप उससे गुस्से के मारे आपे से बाहर हुए जाते हैं अगर वही व्यक्ति आपसे माफी माँग लेता है तो आपका सारा गुस्सा काफूर होकर के गायब हो जाता है। लेकिन कई बार आपकी इस भावना का गलत इस्तेमाल भी होता है। हाल ही में एक टेलीफोन कम्पनी ने इसी भावना को विज्ञापन के रुप में इस्तेमाल किया है। कोई महालिंगम साहब हैं जो इस भावना को रख कर एक सर्विस देने वाली कम्पनी में फोन करते हैं जहाँ लोग आवाज़ बदल कर उनसे बातें करते हैं बदले में फोन को सुननेवाले लोग टाकटाइम पाते हैं। ये बात तो विज्ञापन की है लेकिन अगर इसके सही मायनों में लिया जाए तो आज भी लोग टेलीफोन पर यही कहते मिल सकते हैं....देखा भले ही ना हो लेकिन तुम तो लगे प्यारा ।

Monday, May 26, 2008

तेल का खेल.... कहीं कंगाल तो कहीं मालामाल...!


आपने कभी सोचा होगा कि तेल इतना असर डाल सकता है, हमारे रोज रोज के खर्चे पर। लेकिन ये हुआ, और अब तो हालात ये है कि तेल ने अपना असर न केवल एक क्षेत्र पर दिखाया है, बल्कि हर ओर बखूबी अपनी महत्ता को दिखा गया। हम और आप समझते हैं कि मँहगाई ने हमारी और आपके बजट को बिगाड़ कर रख दिया है लेकिन कुछ लोग या यूँ कहें तो बेहतर होगा कि कुछ देश को मालामाल कर रहे हैं। खास कर के अमेरीकी हो या तेल के कुँए कहे जाने वाले पश्चिम एशिया देश हों। इस खेल ने हर किसी को एक अलग तरीके से ही असर डाला है। हल्ला है कि क्रुड ऑयल की कीमत आने वाले दिनों में 200 डॉलर प्रति बैरल तक हो जाएगा। बात सच है आज से मात्र एक साल पहले इसी तेल की धार 70 से 85 डॉलर प्रति बैरल के हिसाब से आसानी से अपने देश में लाया जाता था लेकिन अब यह धार इस कीमत में केवल सपना मात्र रह गया है। मैं सोचा करता था कि ये क्रुड ऑयल मुआ क्या बला है जो कि हर किसी के थाली में से अच्छे पकवान तक गायब कर जा रहा है। जनाब यही वह बुनियाद की ईंट है जो दिखाई नहीं दे रहा है और मकान को मज़बूती दिये हुए है। अगर यह ईंट कमजोर निकली को मकान भरभरा कर गिर जाएगा। वही है मरदूत क्रुड ऑयल, अगर हमारे देश में यह बहुतायत में मिलती तो तेल निकालने वाले देशो के तरह हम भी इस प्रकृति के नायाब तोहफे का दोहन करते और भले कुछ और नहीं उपजाते लेकिन अपनी ही शर्तो पर दुनिया को रखते जब चाहे कीमतों में उछाल लाते और जब चाहे कीमतों में गिरावट लाते। अव मूल रुप से सवाल उठता है कि आखिर क्रुड ही क्यों असर डालता है। भाई जवाब साफ है कि हमारी सारी अर्थनीति अब निर्भर करती है इस तेल के कमाल पर। भले ही कपडे बनाने कि लिए उपयोगी पॉली फाइबर हो या दवाओं को बनने में लगने वाला पेन्सिलीन हो ये सभी क्रुड ऑयल से ही बनते हैं। जहाँ अब इतनी बातों पर निर्भरता बढ़ती जाती है ये क्रुड अपना क्रूर रुप क्यो भला ना दिखाये। एक तो अपनी स्थिती ऐसी है दूसरी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे राजनीतिक उठापटक और भी परेशान कर रहे हैं,जिससे हमारी ही जनता मँहगाई जैसे दानव से दो चार होते रहती है। ऐसी परिस्थितियों में जनता दोनों ही पातों में पीसती नजर आती है। हलाकि इसके बीच का रास्ता केवल और केवल सरकार ही निकाल सकती है। लेकिन सरकार तो अपनी ही मकड़जाल में उलझती नजर आ रही है। एक ओर कोई निदान नहीं निकलता दूसरी ओर अपनी ही मंत्रियों के गलत बयानी पर सफाई देती फिरती है। मंत्री हैं कि अपने लोगों के सामने शेखी बघारने से बाज नहीं आते हैं। जनता है कि यही सोचती है कि मंत्री जी ने बहुत ही बढिया कहा इससे तो विदेशीयों सहित हमारी विरोधी पक्ष को मुँह सील जाएगा। सील तो अपना मुँह भी जाता है। उसमें अनाज का एक कण भी समाने लायक जगह सरकार सहित मातहत नहीं छोडते। अब अगर अन्न का दाना भी ना समाये तो सरकार के विरोध में बोलने की भी शक्ति नहीं रहती है। जिसका नतीजा है कि बस सरकार का गुणगान करते हैं, या तो चुप ही रहते हैं। लेकिन अब बरदाश्त से बाहर है क्योकि चूल्हे भी अब जलना बन्द हो सकते हैं क्योकि आसमान छूती तेल की कीमत से अब रसोई में ताला लगाने की नौबत आ चुकी है।हम और आप भले ही चीख-चीख कर अपनी गुहार लगायें लेकिन कान में तेल डालकर सोई सरकार कभी भी नहीं जगेगी। अब तो जागो सरकारी ठेकेदारों.......

Thursday, May 22, 2008

सरकार के हुक्कमरान


अभी एक दर्दनाक हत्याकांड की बातों को लोग भूल भी नहीं पाये थे, कि नोयडा निठारी हत्याकांड के बाद फिर दहल उठा, आरूषी के हत्या से। हुक्कमरान सकते में हैं कि इस घोर पाप का सूत्रधार कौन है। हरबार लोग इस शर्मनाक अपराध के लिए कभी सरकार के निठ्ठल्लेपन को ,तो कभी अपने आप को कोसते रहते हैं। एक घर में दो हत्याएँ होती है और पुलिसिया तुर्रा ये कि वह दो दिन लगाती है इसको पता लगाने में कि पहली हत्या कब हुई। दूसरी हत्या का पता लगता है उस मृत शरीर को मिलने के बाद जिसे लोंगों ने बताया वह भी दो दिन बाद। अब सवाल यह है कि क्या पुलिस केवल और केवल दिखावा ही करती रह रही है। थाने से महज 50 फर्लांग पर दूर रहे मकान के बारे में क्या हो रहा है किसी पुलिसिया हुक्कमरान ने जानने की जहमत नहीं उठाई। ये तो बात हुई राजधानी के निकट रहे शहर के बारे में। अब थोड़ा बात सबसे विकसित और महनगरी मुम्बई की भी सुन लें। एक घर में व्यक्ति की हत्या करके उसके 300 टुकडे किये जाते हैं फिर उन टुकडों को बैग में बन्द करके कहीं और ले जाकर के जला दिया जाता है। सवाल उठता है कि मारनेवाले के हाथों में कहीं कम्पन नहीं हुई होगी। मानवता तो भले ना जगे क्या मांस के टुकडों को देखकर कहीं विचलित नहीं होगा। मांस भक्षण करने वाले भी एक साथ इतना मांस देखकर के घबरा जाते हैं। लेकिन ये बात ही कुछ और है। कहाँ मर गयी है मानवता, किसने खोयी है इस लिजलिजे समाज में जीवन को। मैं ऐसा नहीं कि कमजोर दिल का इन्सान हूँ लेकिन जब देखता हूँ इसतरह के घृणित कृत्य को तो सहम कर के रह जाता हूँ। अभी बात ज्यादा दिनों की नहीं है कि सडकों पर बेतहासा दौड़ती गाडियों ने कई मासूमों को रौंद दिया था ,ये तो सरेआम कत्ल ही है।
हमने भले ये बातें आपको सुनाई है, लेकिन ये बातें आपसे छुपी नहीं हैं। अपनी इन हरकतों से शर्मसार किया है पूरे देश को। पहली घटना में शक की सूईया घर सहित घर से जुडे लोंगो तक घूमती रही हैं। लेकिन दूसरी घटना ने शर्म और भावना की हर हद को पार कर दिया। पहले की प्रेमिका ने हत्या को अंज़ाम दे दिया। इनको आप क्या कहेंगे हो सकता है कि आप ये कहें कि कोई मजबूरी होगी। लेकिन 300 टुकडे करना कौन सी मजबूरी, ये बात कुछ पल्ले नहीं पड़ती। खैर कोई बात नहीं मैं आपको यह कह रहा था, कि पुलिस को कोई भय और डर नहीं इनलोगों को कि इतने रोंगटे खडे कर देनेवाले काम कर दिये। बचपन की एक घटना याद आगयी , घर के करीब ही पुलिस ने चार डाकूओं को मारा था, और उनके लाश के साथ थाने में फोटो खिचवाये थे। उस घटना में एक पुलिस का जवान भी शहीद दो गया था। लेकिन उसके बाद सालों साल तक इलाके से डाकूओं का तो सफाया ही हो गया था। लेकिन अब तो अगर लोगों की कही बातों पर विश्वास करु तो पुलिस के भेष में ये डाकू हो गये हैं। निठारी से लेकर के आरुषी तक घटनाएँ चीख चीख कर यही कह रही हैं। रही सही कसर बदले की आग ने पूरी कर दी। सचमुच यह कौन सी बदलाव है समझना बड़ा मुश्किल –माटी रौदे कुम्हार को वाली कहावत सही हो गयी है....।

Tuesday, May 20, 2008

कमरतोड़ती मँहगाई


एक बात बार बार आपसे पूछने का मन करता है कि आपके जेब में आजकल पैसे रहते हैं कि नहीं ? मैं अपनी बात कहूँ तो शर्माते हुए कहना पडेगा कि 20 तारीख से मैं एक 50 को नोट बचा कर रखा हूँ कि अगर कहीं इमरजेन्सी पडेगी तो इसको खर्च करूगा, वरना वेतन आने तक इसे बचा कर रखूँगा। अगर मैं दिल की बात बोलूँ तो इसके लिए कई अपमान भी सहने पडे।जहाँ खर्च करने थो वहाँ कंजूसी से काम चलाया। अपने ही लोगों से नजरे चुराया। समझ में नहीं आ रहा था कि इस मंहगाई में काम चलाए तो कैसे। दुकानदार कहते हैं कि ग्राहक नहीं हैं। सवाल उठता है कि ग्राहक रहे भी तो कैसे उपनी रही सही जमा पूँजी तो सरकार और साहूकारों के हवाले चढ़ चुकी है। आखिर करे तो क्या करें, तन ढंके तो पैर से चादर सरक जाए और अगर पैर को ढंकने की कोशिश करें तो सर से चादर और छत दोनों ही गायब होने की नौबत आएगी। कई बार महगाई बढ़ने के सरकार ने अलग अलग तर्क दिये कभी वायदा बाजार को जिम्मेदार ठहराया तो कभी अंतरराष्ट्रीय कारणों को जिम्मेदार ठहराया। अपने ही देश में लोग खाने के लिए तरसने लगे। सब्जीयों की कीमतें आसमान पर छू कर आम इन्सान की पहुँच से कब की बाहर हो चुकी हैं। जबकि पश्चिमी देशों के जानकारों ने एशिया महादेश में हो रहे आर्थिक बदलावों को इस महँगाई का कारण बताया। कुछ नहीं मिल पाया तो वायदा बाजार को भी इस मँहगाई को बढाने में जिम्मेदार माना। अपने ही लोग आज भी भूखो सोते जागते रह रहे हैं। सरकार खुद ही उलझी है कि इस बढती हुई मँहगाई पर लगाम लगाए तो कैसे। कभी कुछ करती है तो कभी कुछ कहती है कि लोग ही ज्यादा खाने लगे हैं जिससे मँहगाई बढने लगी है। लगे हाथ व्यापार करने वालों की भी अगर बातें करें तो उनकी तो बल्ले ही है।खूब बिक्री हो रही है, हर जगह उनकी ही चाँदी ही चाँदी है। शहरी बाबूओं के पास ढेर सारे पैसे हैं, जिसको वो खर्च करने के लिए बस जरिया ढूँढ रहे हैं। रोज ही एक नई दुकान और बडी अट्टालिकाओं की तरह “मॉल” खुल रहा है। जहाँ लोग दनादन खर्च कर रहे हैं।
अब बात सरकारी महकमे की करें तो उनको इससे कोइ लेना देना ही नहीं है। सरकार चलाने वाले नेता अपने आलीशान सरकारी महलों में बैठे सरकारी पैसे पर आराम से पसर कर रह रहकर के कुछ कह देते हैं। जिससे सरकारी स्तर पर मँहगाई को रोकने छलावा लोगों को दिया जा सके। अगर हम और आप मँहगाई से लड़ भी लें, लेकिन गाँव के किसान और केवल घर में एक आदमी ही कमाई करने वाला हो तो उसकी हालत कैसी होगी इसकी कल्पना से ही सिहरन होने लगती है। कई लोंगों से मैं मिला उन्होने तो यही कहा कि अगर परिवार का पेट पालने के लिए कहीं दूर देश में चाकरी और मजदूरी करनी पडे तो उसके लिए कोई गुरेज नहीं है। कम से कम परिवार के लोग तो दो समय भरपेट खाना खा सकेंगे..जीना है तो संघर्ष करना ही है......

Monday, May 19, 2008

पधारो म्हारे देश में बमों की गूँज !




यह कहना गलत नहीं होगा कि पधारों म्हारे देश में आतंकवाद का साया मडरा रहा है। हर बार हम ये जरूर कहते हैं कि इस बार आतंकवादियों का मुँहतोड़ जवाब देने को हम तैयार हैं। लेकिन वक्त आने पर हमारी सारी तैयारी धरी की धरी रह जाती है। फिर एक बार हम एक दूसरे को ही संदेह की नजरों से देखने लगते हैं। हम और आप अपने किस्मत को रोते रहते हैं, और यहाँ लगभग 80 लोगों को आतंकियों ने अपने निशाने पर लिया। सैकड़ो घरो के चिराग बुझ गये, पीछे छुट गये बिलखते लोग। और सरकार है कि मुआवजे की घोषणा करके अपना पल्लू झाड़ ले रही है। खबरिया चैनलों ने चीख चीख कर सरकार के इस निक्कमेपन की फज़ीहत की, लेकिन सरकार ने बस अपने आप को बंद कर लिया है कुँए में बस यही उनकी दुनिया है। सरकार अपनी पीठ को थपथपा रही है कि हमने कुछ और आगे नही होने दिया है। अब सवाल उठता है कि आये दिन ये हो रहे धमाकों के जिम्मेवार कौन हैं। अपनी तरफ से इसके जाँच के आदेश को देकर के निश्चिन्त होते नजर आती है सरकार।
सरकार पर अपनी भडांस निकालने के चक्कर में, मैं अपको पधारों म्हारे देश में लोगों की दर्द की कहानी ही बताना भूल गया। शादी की अभी वर्षगांठ भी नहीं मनी थी कि, मौत के ने उनको अपने आगोश में ले लिया। दोनो ही एक दूसरे के साथ में ही दम तोड़ दिये। इस त्रासद घटना ने हर किसी के दिल को झकझोर कर रख दिया। जिस किसी ने इन लोगों के मृत शरीर को देख उसके आँसू रुकते ही नहीं थे। जहाँ अपने अतिथियों को दिल खोल कर आगवानी करनेवाले लोग अपने ही घर में अतिथियों के चलते खून से लतपथ बिखरे पडे हैं।राजस्थानी जहाँ अपने आन बान और शान के लिए जाने जाते थे वे आज अपने ही घरों में दहशत गर्दों की करतूतों की सज़ा भुगत रहे हैं। आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है जब उन सारी बातों को याद करते हैं। घटनाएँ ऐसी हो रही हैं कि किसे भूलू और किस से अपने देश के सरकार को लज्जित करुँ कुछ समझ में नहीं आता। अगर पिछले कुछ सालों का ब्योरा लें तो हर बार सरकार के जरिये किये गये काम पर कोफ़्त होता है। इस परिस्थिती में हम केवल यही कह सकते हैं कि सरकार और उसमें समाये लोग केवल अपना ही लाभ देख रहे हैं। अपनी ही स्थितियों के साथ तो यही कहा जा सकता है कि जनता केवल और केवल उनके हाथ की कठपुतली है। उनके इशारों पर ही चलना अब मजबूरी है।
पधारो म्हारो देश में हमने तो अतिथियों को बुलाया है ना कि दहशत गर्दों को बुलाया है। अतिथि के नाम पर आनेवाले लोग किस तरह से व्यवहार करते हैं, यह तो कहना बेहद मुश्किल हैं। लेकिन हम तो दिल खोल कर यही कहते रहेंगे कि.... जीव जी पधारो म्हारो देश......!

Wednesday, May 7, 2008

एक द्वन्द


कई बार लिखते लिखते मन उदास हो जाता है। पिछले काफी दिनों से कई तरह के काम के दबाव या परिस्थितियों के कारणवश कुछ समझ नहीं पाता हूँ कि क्या करुँ। ऐसा नहीं कि जीवन से हार गया लेकिन निराशा घर जरुर कर गया है। शब्द आपस में ही उलझ रहे हैं। आखों के आगे कुछ विचार कौंध रहें हैं जिनके बारे में कुछ भी समझ में नहीं आ रहा कि उनको शब्दों में कैसे ढालूँ। लेकिन इतना जरुर कहूँगा कि जीवन ने अपने उथल पुथल में मुझे हरा दिया। बन्धनों ने ही और भी कस कर बाँध दिया। जो विचार थे उडने के समाज को नई दिशा देने का वो शायद सपना रहा गया। उम्मीद है कि ईश्वर एक नया जीवन दे,शायद नये सफर की यह तैयारी हो। विदा मित्रों जल्द ही फिर मिलेंगे........

Tuesday, April 29, 2008

ऋणम् लित्वा घृतम् पीवेत् !


यह एक कहावत है जो सदियों से हर किसी ने वक्त बे वक्त अपने सुविधा के अनुसार कहा ही है। एक बार मेरे भी जेहन में यह कौध गया जब मैंने अपने आसपास या यूँ कहे कि अपने ही लोगों को यह करते हुए देखा। यह तो हो नहीं सकता कि आप अपने जीवन में कोई शादी या बारात में शामिल नहीं हुए हों। आमतौर पर शादी के समारोहों के पीछे एक दर्द का चेहरा छिपा रहता है, जो शायद ही कोई देख पाता हो। मुझे एक मौका मिला उत्तर भारत के एक शादी में शरीक होने का। देखा हर तरफ लोग हँसी खुशी से सराबोर अपनी खुशी में डूबे हुए थे। मैं भी उस खुशी में शामिल हो गया। नाच गाने से शुरुआत से ही कोसो दूर था, लेकिन ढोल के बजते थाप ने थिरकने पर मजबूर कर दिया। मैं भी त्रिभंगी का नाच बोले या शंकर का नटराज नृत्य का अनुकरण करते हुए, इस थिरकते हुए लोगों के बीच अपने आप को पेबस्त करने की कोशिश कर रहा था। जब थक कर बैठ गया तो थोड़ी सी राहत महसूस हुई। गर्मी का मौसम और बाहर बहती ठंढी बयार का आनंन्द लेते हुए घर से थोडी दूर चला आया। शांत बहते समीर के बीच अमराई से अचानक किसी की हिचकी भरे दबे गले से रुलाई की अवाज सूनाई दी। मेरा सारा का सारा समारोह का उमंग कब कर्पूर की तरह उड़ गया पता ही नहीं चला। जैसे जैसे मैं बागीचे के नजदीक पहुँचता गया और दिल को चीर देनेवाली आवाज कानों में सीसा घोलते जा रही थी। मेरी बेचैनी और बढ रही थी, दिल की धड़कन तेज होते जा रही थी। नजदीक जाकर के देखा तो मेरे होश ही फाख्ता़ हो गये------- ये तो घर के मालिक थे।
अपने ही घर में घर के मालिक का रोना मुझे बडा ही अचम्मभे में डाल दिया। आखिर कारण क्या है समझ में ही नहीं आ रहा था। सभी अपने अपने समान उम्र के लोगों के साथ हिले मिले थे, लेकिन अचानक ये रुलाई की बातें केवल मैं जानता था और घर मालिक। मैं उनके सामने खड़ा था तो मुझे अचानक से देख कर उनकी आवाज ही बन्द हो गयी। बस आँखों से केवल और केवल आँसू बहते जा रहे थे। बहुत जोर देने पर बताया कि समारोह की सारी तैयारी के लिए उन्होने ढेरों कर्ज लिये हैं, जिसे चुका पाने में असमर्थ हैं, जिससे उनकी यह मनो दशा सामने आ रही है। मैं सुनकर सन्न रह गया कि समारोह के खर्च उठाने कि लिए घर तक को गिरवी रख दिया है। अब यह व्यक्ति रहेगा कहॉ और खायेगा क्या। सारे के सारे दाव को तो यह चल चुका है। अपनी असमर्थता को जाहिर भी तो नहीं कर सकता है। यह हालत न केवल एक घर का है बल्कि भारत के हजारों घरों का यही हाल है। अगर झूठी शान को बरकरार रखने के लिए यही सब होता रहा तो शायद वह दिन दूर नहीं जब हर घर का मालिक अपने लोगों के सामने नकली चेहरा लगा कर हँसे फिर दूसरी ओर किसी को बिना बताए रोता रहे। कहावत वही होगी..... हँसते चेहरे के पीछे बेपनाह दर्द छिपा है।.....

Tuesday, April 22, 2008

आपके साथ एक साल


लगभग एक साल से मैं आपके साथ हूँ। गाहे ब गाहे आपको मैं अपने करीब मानता गया हूँ। लेकिन आज आपलोंगों से जुड कर यही लगता है कि कुछ तो होगा जो मुझे आपके करीब ला रहा है।वही है कि मैं अपने कैमरा मैन उदय जी के काफी करीब हो चुका हूँ। उदय जी से लगता ही नही हैं कि उनसे पहलीबार मिला हूँ। लेकिन तब और दःख हुआ जब उनकी पत्नी के दुर्घटना की खबर सुनी तो कलेजा मुँह को आ गया।भले ही उनसे एकबार भी नहीं मिला हो लेकिन जो आत्मियता मिली है वो आज भी याद है।
हम आज उनकी याद को ही रख सकते है। जब व्यक्ति चला जाता है तभी उसकी कीमत समझ में आती है। आप भी कह सकते हैं ये सारी बाते हमें आप क्यों सुना रहे हैं। कारण है बेलगाम चलती बसों ने उनकी जान ले ली। जिसके जिम्मेवार हम और आप हो सकते हैं, कभी भी हमने उनको रोकने का प्रयास नहीं किया। नहीं तो कहाँ बिहार के जहानाबाद जिले के रहने वाले उदय जी को अपनी पत्नी का दाह संस्कार अहमदाबाद में नहीं करना पड़ता। शुरुआत से बदनाम बिहार के बयों और ट्रकों ने उनकी जान नहीं ली। सबसे उन्नत राज्य के बेलगाम ट्रक ने उनकी जान ले ली। पीछे छोड़ गयी दो संतान। अब उनका सहारा कौन होगा यह चिन्ता न हमें बल्कि उदय जी के साथ रहनेवाले हर किसी को है।
ताज्जुब तब होता है जब इस मामले को प्रदेश के लोग रफा दफा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। तब अपनी और उदय की आवाज नक्कारखाने में खोती सी नजर आती है। मैं तो हर कदम पर उनके साथ हूँ, चाहूँगा कि आप भी अपने इस सहयोगी को संबल दे। क्योकि संबल का एक वाक्य इस बेरहम दुनिया में जीने का सहारा बन जाता है।.....हे ईश्वर इतना कठोर मत बनो।

Monday, April 14, 2008

और क्या !



हालाकि शब्द बहुत ही छोटा है लेकिन इसके पीछे कितनी गहराई है यह कहना बेहद मुश्किल है। हर दिन कुछ ना कुछ रोज घटते रहता है।रोज रोज अपनी पहचान और राजनितिक गतिविधियों को तेज करने के लिए एक नया शिकार खोजते रहती हैं,राजनैतिक पार्टियाँ। अपने ही बुने जाल में अब फसने लगी हैं राजनैतिक पार्टियाँ। जब उनके मकसदों को लोग जानें तब तक वो अपने मकसदों में कामयाब हो चुकी रहती हैं। हाल फिलहाल में जब राजनैतिक पार्टियों ने अपने अपने क्षेत्रवाद को लेकर के मुद्दा बनाया तब तो उनके बाजार गरम हो गये। अगर हम इसी बात को गहरायी से समझे तो अपने आप में यह बहुत बडी बात है। हालत यह है कि, अपने स्वार्थ के लिए इनलोगों ने एक दूसरे को बांट दिया। वर्षों से चले आ रहे संबंधो में दरार पैदा कर दी इन लोगों ने।जो लोग पहले एक दूसरे को इज्जत की निगाह से देखते थे।अब वही हिकारत भरी निगाहों से देखते हैं जैसे परप्रान्ती कोई बहुत ही बड़ा मुजरिम हो। लेकिन कुछ बातें हैं, जो कि परप्रान्ती को शर्मशार करती हैं।उन बातों में तो सबसे ज्यादा है कि रहन सहन का तरीका बिल्कुल ही नहीं बदला भले ही वो अपने चौपाल पर बैठे हों। या किसी महानगर में हों। हो सकता है कि कई भाई यह बोलें भी यह बकवास है लेकिन मैं अपनी आँखों देखी बात बता रहा हूँ।
वाकया है 2006 के छठ पर्व का, मुम्बई के जुहू चौपाटी पर लाखो लोग जमा हुए थे छठ पर्व को मनाने। हर किसी ने अपनी दुकान सजा रखी थी। कोई कांग्रेस, कोई समाजवाद का नारा, तो कोई भारतीय जनता पार्टी का झंडा बुलंद कर रहा था। और तो और कोई शिवसेना का ही जयघोष कर रहा था और पूजा करने आनेवाले लोगों के साथ बढचढ कर हिस्सा ले रहा था। रही सही कसर सांस्कृतिक कार्यक्रमों ने पूरा कर दिया था। लाखो की भीड अपने चहेते कलाकार को देखने सुनने के लिए जमा हुए थे। लेकिन लड़कियों और औरतों के साथ बदतमीजी करना भीड़ मे जमा मनचलों की पहली पूजा थी। ये और कोई नहीं वहीं परप्रान्तीय भाई थे, हद तो जब हो गयी जब चहेते कलाकारों ने उन्हें शराफत से रहने की नसीहत दे डाली। जुहू समुद्र तट का रेत कब कलाकारों का सिरमौर बन गया पता ही नहीं चला। कलाकारों के गुहार लगाने के बाद भी हुड़दंगपने मे कोई परिवर्तन नहीं आया। संक्षेप में जम कर लोगों ने अपने चाल चलन का परिचय देकर सबों को शर्मसार कर दिया।
आमतौर पर ऐसी घटना पूरे समाज को नीचा दिखा देती है, लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योकि यही इनकी फितरत रही है। अब राजनेता इसी बात को भूनाना चाहते हैं। मुम्बई के लोग इनके इस तरह के पूजा पाठ का विरोध कर रहे हैं तो उल्टे उन्ही पर नास्तिकता का ठीकरा फोड़ रहे हैं। चाहे जो भी हो दोनों तरफ से तलवारें खिंच चुकी हैं और नीरीह आम जनता कर सर बेधड़क कट रहा है। इसे रोकना भी हमें ही होगा। ---वसुधैव कुटुम्बकम्!

Thursday, March 20, 2008

जो हम कह ना सकें


हर कोई अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने के लिए कुछ ना कुछ माध्यम अपनाता है चाहे वह कोई भी हो। माँ अपने बेटे तक अपनी बात पहुँचाने के लिए अपनी सेवा सहित हर उस छोटी छोटी बात के ख्याल कर बेटे को जता देती है कि उससे कितना प्यार करती है। पिता भले ही उपर से सख्त हों लेकिन वक्त बे वक्त अपनी संवेदनाओं को जाहिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। चाहे वो एक आम इन्सान या कोई बहुत ही बड़े सेलीब्रेटी ही क्यों ना हों। अब रही बात बेटों की तो इसमें थोड़ी सी कंजूसी आसानी से देखी जा सकती है। बात हम अपने आस पास की करें तो ये बातें हम यूँ ही राह चलते हुए देख सकते हैं। आधुनिक कहे जाने वाली संतान कहती है कि ये तो उनके फर्ज था, सो ये तो उनको करना ही था। कुछ और मॉडर्न ख्याल की संताने कहती हैं कि, पैरेंन्टस तो अपनी मस्ती मना रहे थे,उसी के नतीजे के रुप में हम पैदा हो गये हैं। अब भला उनको कोई कैसे समझाये कि आज के इस सोंच तक आप को पहुँचाने के लिए माता-पिता ने कितने पापड़ बेले।
लेकिन संवेदनाएँ मरी नहीं हैं। आज भी लोग हैं जो श्रवण कुमार की याद ताजा कर देते हैं। माता पिता को भले ही अपने कंधे पर बिठा कर तीर्थ यात्रा तो नहीं करा रहें हैं लेकिन वो भाव रखते हैं। अमिताभ बच्चन अपनी माँ के देहान्त के बाद बिखरते से नजर तो आये लेकिन अपनी सारी शक्ति को समेट कर माँ के साथ हर उस पल को समेट कर रखा जो उनके दिल के बेहद करीब था। ये बात साफ जाहिर कर दिया कि क्या अहमियत थी उनके जीवन में माता-पिता की। अब एक सवाल यह भी उठता है कि अमिताभ के किए को तो सबों ने देखा लेकिन बनारस के उस कन्हैया के किये को किसी ने नहीं जाना जिसने अपने देवता समान माता पिता के लिए हर संभव प्रयास किया बचाने के लिए शरीर का एक एक अंग बेचकर उनको लम्बी बीमारी से मुक्ति दिलाई। मैं खुद अपने दिल के हर उस कोने से मुबारक देना चाहता हूँ। और उसपर गर्व भी करता हूँ कि गुमनामी में रह कर उसने वो कर दिखाया जो बड़े बड़े लोग नहीं कर सकते हैं।
अब मूल विषय पर बात करें तो ,कुछ बातें वो होती हैं जिन्हें हम कह नहीं पाते हैं, उनको कहने के लिए भावनाए सबसे ज्यादा बलवती होती हैं। हमें तो चाहिए उन भावनाओं की सहायता ले उन बातों को अपने आदर्शों तक पहुँचाने के लिए। बातों को जितना जल्दी हो कह देना चाहिए कहीं देर ना हो जाए। पुराणों में लिखी बातें मातृ देवो भव पितृ देवो भव, शत प्रतिशत सही हैं।

Wednesday, March 12, 2008

रेल का सफर- यात्री और अधिकारी हे राम, मंत्री जी वाह राम

बात बहुत छोटी सी है हम और आप आये दिन सफर करतें हैं कई बार या यूँ कहें बार बार रेल सफऱ के दौरान टिकट कन्फर्म नहीं होने का शिकार होते रहते हैं। लगता है कि रेल विभाग बदमाशी कर रहा है सारे सीट खुद ही हजम कर जा रहा है। अब लोगों की बातें करें तो उनका कहनाम ही यही है कि रेलवाले चोर और भ्रष्ट हैं। लेकिन सारी में से मैं कुछ वाकये आपको सुना रहा हूँ।मसलन, दिल्ली से मुम्बई का सफर लगभग 1400 किलोमीटर का सफर था, हर कोई अन्जान और अपरचित अचानक किसी ने आवाज दी कितनी सीट है आपके पास। मुडकर देखा तो पाया कि ये तो रेलवे के ही स्टाफ हैं। मैने पूछा मजाक है या सचमुच कोइ सीट नहीं है। जानकर हैरान कि सचमुच कोइ सीट नहीं कन्फर्म हुई भले ही क्यों ना साठ दिन पहले ही टिकट कटाई गयी हो। अब सवाल ये उठता है कि आखिर इस उहापोह की स्थिती क्यों होती है। जब जानकारी हुई तो होश उडने लगे। रोज रोज लोगों की सेवा टहल में लगे अधिकारी आज अपने ही सीटों के लिए टी.टी. के आगे पीछे चक्कर लगा रहें हैं। टी.टी हैं कि अपनी ही उपयोगिता सिद्ध करने में लगे हैं। हर बार दुहाई दे रहें हैं कि आज ट्रेन में बिल्कुल ही जगह नहीं है।
लेकिन सवाल अपनी जगह फिर बना हुआ है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ कि कोई सीट उन महाशय की कनफर्म नहीं हुई है। जवाब मिला कि आज मंत्री जी के कोटे से सारे स्टॉफ कोटा फुल है। अचानक से ऐसा क्यों होने लगा बडा माथा पच्ची किया तो भी समझ में नहीं आया। अचानक धयान में तारीख आया तो सारा गणित साफ हुआ। दो दिनों बाद पार्टी की रैली मुम्बई में है सो लोग पहले से ही वहाँ पहुँचे इसकी व्यवस्था मंत्री जी के झोलटंगवनों ने की थी। पार्टी के नाम पर अधिकारियों पर धौंस जमा कर सब के सब सीट हड़प कर लिये।
इसके लिए अधिकारी भी कम दोषी नहीं हैं अगर उनको समाने ऐसी बातें उभर कर सामने आयी तो उनको बतानी चाहिए, जनता के सामने खुलकर बोलना चाहिए तो ऐसा करना तो दूर भरपूर पक्ष रखते हैं मंत्री जी और उनके चमचों के भजनगान में कोई कमी नहीं छोड़ते। अब जब खुद पर बन पडी तो दबी जुबान से ही सही लेकिन बातें निकलनी शुरु हुई। अब ये समझ से बाहर की चीज है कि इनको रोका कैसे जाए। एक ही रास्ता बच रहा है कि इनके कच्चे चिटठे को जनता के सामने लाया जाए और इनका फैसला जनता जनार्दन खुद करे। अरबों रुपये कर के रुप में देने के बाद खुद भेड बकरियों की तरफ जनचा सफर करे,और ये नेतागिरी के नाम पर दुकान चलाने वाले आराम से जनता के पैसे पर ऐश करें ऐसा अब सभव नहीं है। जवाब अधिकारी सहित नेताओं को भी देना होगा—नेता जी चेत जाओ वरना जनता आती है,बडे बड़ो को वह अच्छा सबक सिखाती है।