Tuesday, July 15, 2008

दुखवा का से कहूँ......


अपनी इस परिस्थिती से कैसे रुबरु होउ कुछ समझ में नहीं आ रहा है। हर बार अपने जीवन का होना बडा ही निरर्थक लगता है। पिछले दिनों से यही धारणा मुझे अपने घेरे में ले लिया है। इस अवसाद से निकलने का कोई रास्ता नहीं निकल रहा है। लग रहा है कि सब कुछ छूट गया बेहद पीछे और पीछे। हर संभव अपने आप को बटोटरने की कोशिश करता हूँ।लेकिन समुद्र के गर्त में समाते हुए सब डूबता लग रहा है। अब लिखने का साहस नहीं मिल रहा है। लिखूँगा फिर कभी जब यह असह्य पीडा......... विदा मित्रों.......।

Wednesday, July 9, 2008

चलो सजाओ दुकान आ गया राजनीति का मौसम



बाजार में हल्ला मचा कि गई अब कांग्रेस सरकार, वाम पंथियो ने अपना समर्थन वापस ले लिया। लगी सड़क पर सरकारी गाडियाँ तेज गति से दौडने, कोई नेता अपना गठजोड़ बैठा रहा है तो कोई अपनी फिराक में है कि इसबार तो समर्थन करने पर कुछ पारितोषिक के रुप में मंत्री पद मिल ही जाएगा। तो पिछले चुनाव में हारे राजनेता अपनी बारी के इन्तजार में हैं और चुनाव क्षेत्र में कूद पडे कि इसबार तो हरा कर के ही दम लेंगे और खोई हुई अपनी पगडी की लाज वापस लायेंगे। तो बाहुबली नेता अपने चमचों को इकट्ठा करने लेगे और चुनाव जीतने की जुगत भिडाने लगे। लेकिन किसी ने उस जनता कि सुध लेनी नहीं चाही जिसके दम पर अपनी राजनीति की दुकान चलाने वाले राजनेता इतरा रहें हैं। सबसे ज्यादा दुकान तो चल निकली है मिडिया के नाम के बडे रिटेल के माफिक सोच समझकर गणित बैठाने वालों की। मिडिया के हर एक खोमचे पर राजनेता नामक ग्राहक बैठा जनता को अपने पैतरे से अवगत करा रहा है। आँखे तरेर कर यह दिखा रहा है कि विरोधी पक्ष का समूल ही नष्ट कर डालेगा। लेकिन अन्दर अन्दर पकती खिचडी कुछ और ही दिखा रही है। विरोधियों के साथ ही मिलकर राजनीति की गाडी आगे बढाने का अवसर ढूँढ रहा है।किसी भी कीमत पर सरकार को बचाने का प्रयास कर रहा है। अपनी असफलता को भी नहीं जाहिर करना चाहता है। जनता के सामने यह तर्क कि हम जनता पर फिर एक बार चुनाव का बोझ नहीं डालना चाहते हैं। लेकिन मन कि इच्छा है कि कहीं कुर्सी ना चली जाए। सरकार से समर्थन वापस लेने का वामपंथियों के कई तर्क हैं जो कुछ हद तक सही लगते दिख रहे हैं।
लेकिन एक बात समझ से बिल्कुल ही परे है कि आखिर इतने साल साथ-साथ चलने के बाद कौन सी मजबूरी आ गयी जिससे सरकार से कदम से कदम मिलाने वाले अपने ही कदम पीछे लेने लगे। बात एक हो तो कहें मँहगाई सुरसा की तरह मुँह बाये जा रही है सरकारी सहायता तो दूर, कहा गया कि यह कुछ दिनों तक ऐसे ही बनी रहेगी। उपर से न्यूक्लियर समझौता भी भारी रुकावट पैदा कर रहा है सुचारु रुप से सरकार चलाने के लिए। खैर ये तो मुद्दे हैं जिन्हें सुनाकर मैं आपका कीमती वक्त बरबाद नहीं करना चाहूँगा। लेकिन दुकानदारी कि बातें जरुर सुनाउगा। पार्टी कार्यालयों में बडे जोर शोर से रंग रोगन होने लगे। पर्दे लगने लगे गद्दे बदले जाने लगे। अपने चुनाव क्षेत्र से आने वाले लोगों की जो राजनेता कभी सुध नहीं लेते था अब उनकी सेवा टहल में रात के बारह बजे भी दिखाई देने लगे। उनकी खातिरदारी में कोई कमी ना रह जाए इसलिए खानेपीने का प्रबंध चौबीसों घन्टे रहे इसलिए नये खानसामे को बुलाकर एक अलहदा रसोइ का ही प्रबंध किया गया है। इन सबों के अलावा अपनी उपयोगिता बनाए रखने के लिए गाहे-ब-गाहे नए और पुराने मुद्दों की सहायता ली जा रही है। विरोधी खेमे और सत्ता के खेमे दोनों में चक्कर लगाना जारी रखा गया है। अपनी पहुँच का इस्तेमाल करके मिडिया में भी वक्तव्य दिये जाने लगे जिससे अपने आप को खबरों में बराबर बना दिखाया जाए। अब अपनी राजनीति की दुकान सजाकर बैठे लोग बडे व्यापारी दिखने लगे जिससे सारी इनकी कही बातें सच प्रतीत होने लगी। बोली भी लगने लगी, सरकार बचाने के लिए मंत्री पद आपका इन्तजार कर रहा है स्वीकार करों...........।

Tuesday, July 8, 2008

मैं कब हम होगा…. ?


एक सवाल मेरे जेहन में बराबर कौंधता रहता है कि मैं कभी हम में बदलेगा या नहीं। अपनी अपनी परिस्थितियाँ हैं कि किस तरह से एक दूसरे के करीब लोग लाते हैं। अगर अपनी बात करूँ तो कभी भी मैं में नहीं जीता क्योकि यह एक ऐसी परिस्थिती है जो अगर हावी हो गया तो अहम को दिलो दिमाग पर छाप डालता है। खुद की परिस्थितियों पर अगर विचार करू तो सारी बातें मेरी समझ में भी आ जाती है कि मैं भी मैं की भाषा बोलता हूँ। लेकिन जब से नाम इंडियानामा जुडा है तो धीरे धीरे मैं हम में बदलते जा रहा है। ना कोई जात रहा ना कोई धर्म और ना ही कोई प्रांत-प्रदेश सब समान दिखने लगे। ये बदलाव अनयास नहीं हुआ लगे सालों साल इसके पीछे। हरबार अपनी पहचान को भूलाकर नई दिशा पर चल निकला एक दूसरे से लोगों को जोडने के लिए तो विचारों में भी बदलाव लाया और फिर हम कि राह पर निकल पड़ा। लेकिन घर में आज भी मैं मै ही हूँ कारण यही है कि जिसको जिस भाषा में समझाना चाहिए उसी भाषा में समझाता हूँ। मेरा यही अभी तक मानना है लेकिन हो सकता है कि इस विचार को त्यागना पडेगा ना कि मेरे लिए बल्कि हर किसी को। इस तर्क के पीछे एक छोटा सा वाकया आपको बताता हूँ , वो यूँ है कि अपनी घूमन्तू प्रवृति के चलते कई बार ऐसी जगहों पर निकल पड़ता हूँ कि कहना मुश्किल होता है कि कहाँ आ गया हूँ। हुआ ऐसा ही घूमते घूमते बहुत दूर निकल आया था। गाँव की पगडंडियाँ थी लेकिन चेहरे और भाषा बिल्कुल ही अन्जाने थे। हर कोई अपरिचित की निगाहों से देख रहा था।लेकिन अचानक मेरे दिमाग में ये बिजली कौंधी कि मैं कैसे इनको अपने से जोडूँ।क्योकि इन लोगों का शोषण काफी लोगों ने किया है अब बारी है इनको इनकी स्थिती का भान कराने का। इसलिए सबसे पहले वहाँ घूमते बच्चों के बीच शहर से लाई टॉफियों का अम्बार लगा दिया और बगल के खेत में चला गया हल जोतते किसान के साथ मैं भी शरीक हो गया। तब क्या था सबकी चुप्पी टूटी और मैं, मैं से हम में बदल गया।
यही बात अगर आप दुहराये तो हो सकता है कि आपके बीच का भी मैं कहीं खो जाये और हम में बदल जाये। आज के परिवेश में जितना जल्द यह बदलाव हो वह एक मध्यम वर्गीय के लिए अच्छा है। मसलन लगभग 2 करोड अबादी वाले शहर में रहने को घर का सपना देखने वालों लाखो लोग आज भी अपना दम फूटपाथ पर तोड़ देते हैं। आखिर घर नसीब होता है तो, उसीको जो जितना ही जल्द मैं को छोड़कर हम को अपना लेता है। ठेठ में बोलूँ तो जिसने एक दूसरे का हाथ पकडा उसने अपने सर के उपर छत पाया। मतलब साफ सहकारिता ने ही मध्यम वर्ग को सहारा दिया। सैकड़ो कॉपरेटिव सोसाइटी ने इस महनगर में लोगों को शरण दी। जिसके बदौलत लोगों के सर पर छत है। ये इतिहास गवाह है चाहे वो प्राकृतिक प्रकोप हो या वो मानव के जरिये बनाई संकट उससे निज़ात मिला है समवेत स्वर से उठाये विरोध से ही। आर्थिक प्रगति में नई क्रांति लाकर के दूध की नदी बहा दी आनंन्द गाँव ने। अमूल नाम से नई पहचान ही दे दी। महाराष्ट्र के हर इलाके में चीनी मिलें इसका जीता जागता उदाहरण हैं। ये किसी एक ने नहीं किया है सैकड़ो हाथों ने मिलकर किया है। तब किसी एक के भडकाने पर क्यों एक दूसरे के हम दुश्मन बन जाते हैं यह बडी गंभीरता से सोचने वाली बात है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किसी के भडकाने पर मैं से अलग हट कर हरकोई हम के रुप में आगे बढे और डटकर उसका मुकाबला करे और मैं के रुप मे खडा भडकाने वाले दानव का नाश कर डाले..... जरा गंभीरता से सोचिए......।

Monday, July 7, 2008

मँहगाई की मार गरीब की हार


हाल फिलहाल की आर्थिक उथल पुथल ने आम जनता की परिस्थितियों को ऐसी जटिल कर दी है कि लगता ही नहीं कि वो कभी भरपेट खाना भी खाते थे। शहर में निकलो तो हर तरफ एक ही चर्चा कि मँहगाई ने कमर तोड़ कर रख दी है। लोग खाने के लिए तरस रहे हैं, अब अच्छे पकवान तो केवल सपनों में ही आने लगे हैं। हर किसी के जुबान पर सरकार के खोखले वादों की चर्चा रहती है, कि कब सरकार अपने इन झूठे वादों से बाज आयेगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है । हमारे जैसे कई लोग सरकार को दोषी ठहराने से बाज़ नहीं आते,या एक अर्थ में आप ये भी कह सकते हैं कि सरकार को उसकी खामियों को दिखा डालते है। सरकार केवल बडे बडे वादे करती है लेकिन कभी भी देश के 60 फिसदी लोगों का ख्याल नहीं रखती है।लगभग 1.5 अरब अबादी वाले देश में गरीबी रेखा से नीचे जीनेवालों की संख्या भी कम नहीं है। अपने अपने साध को साधनेवालों की भी कमी नहीं है हर कोई अपनी ही धुन में रहता है कि कब कोई इस परिस्थिती में पीस जाये और समय की ताक में रहने वाला लाभ उठा जाए, कहा नहीं जा सकता है।सरकार है कि उसे कुर्सी बचाने से ही फुरसत नहीं है। हम और आप मँहगाई मँहगाई चिल्लाते रहे लेकिन सरकार ने इस चिल्लाने पर भी पाबंदी ये कह कर लगा दिया कि ये मँहगाई केवल हमारे ही देश में नहीं है बल्कि सारे देशों मे ये समस्या है जिससे सारा विश्व जूझ रहा है। और तो और ये भी कह गयी कि बढती मँहगाई कुछ दिनों तक और बरकरार रह सकती है। अब भला इसपर कोई सरकार को घेरे तो कैसे। हम और आप केवल अपनी किस्मत को रो सकते हैं कि हमने चुना तो किसे। अगर खास किसी प्रदेश की बात करें तो कोई अपवाद नहीं है हर जगह वही हालत हैं। जनता के रहनुमा अपनी तिजोरी भरने में लगे रहते हैं, अभी एक समस्या निपटी नहीं थी कि दूसरी ने आ घेरा। जहाँ मँहगाई से निपटने के तरीके ढूँढ ही रहे थे कि रही सही कसर बाढ की विभीषीका ने निकाल दी। अब दौर चला बाढ से निपटने की तैयारी होने लगी। सरकारें अपने बजट बनाने लगी कि कैसे इसका फायदा अपने खुद के घर भरने में उठाया जाए। महानगर सहित गाँव देहात के इलाकों में डिजास्टर मनैजमेंन्ट के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। लेकिन जब सही वक्त बचाव के लिए आता है तो तो आसपास कोई नजर नहीं आता है लोग डूबते उतराते हैं लेकिन कोई हाथ आगे नहीं आता है, फिर शायद यही हो कि कोई आगे ना आये और लोग फिर से अपने पुराने परिस्थियों से जूझते रहें।
लेकिन शायद इस बार सरकारी तौर पर खूब मगरमच्छी आँसूओं का सैलाब दिखाई दे, क्योकि चुनाव जो नजदीक है। ताज को हथियाने के होड़ में हर कुछ करने को आतुर ये लोग ये नहीं भूलेंगे कि जनता सब जानती है। लेकिन मेरा मानना है कि जनता की यादाश्त बेहद कमजोर है हरबार अपने साथ किये गये छलावा को भूल जाती है, और जो सामने आता है उसी में अपने दुःखों को दूर करने का सामर्थ्य देखने लगती है। लेकिन हाथ में फिर मिलता है छलावा। जनता कि हालत उस बच्चे जैसी है जो रेत का घरौंदा समुद्र के किनारे बनता है और समुद्र की लहरें उस घरौंदे को मिटा देती है, बालक उसे फिर से बनाने कि लिए जूझता रहता है। लेकिन ये सरकार ऐसा नही करती घरौदा तो तोडती ही है सपने भी तोड़ डालती है सो जनमानष समेट लो अपने बल को कर डालो उपयोग अपने हक का........।