Monday, December 28, 2009

यही है पथ....


हर कदम एक परीक्षा यही नियती है भले ही हमारी हो या आपकी, लेकिन सच्चाई यही है। ये परीक्षा आपने खुद के जीवन में कई बार दुहराई होगी। लेकिन आखिर में तन्हा ही दिखा होगा सारा आकाश। कभी तो खुद का जीवन ही पूरा का पूरा एक परीक्षा का मंच कहें या यो कहें, कदम कदम पर परीक्षा होने लगती है। लगता है कि तलवार की धार पर चल रहे हैं। कई बातें हैं जिनमें आगे बढने की होड़ हो या किसी और तरह का दबाब जिसमें लगता है कि तलवार पर चले चलें, भले ही खुद के पैर जख्मी हो जाए। जबतक साँस है तब तक तो चला ही जा सकता है। लोग भले ही सोंच सकते हैं इससे होगा क्या आखिर, ये तो बिल्कुल मूढ व्यक्ति है। मैं कहता हूँ कि ये तेरा, ये मेरा, ये मैं तभी तक है जब तक शरीर में जान और अहं है। जब यही नहीं रहेगा तो कौन किससे मेरा तेरा करता रहेगा। रही बात की आखिर इससे मिलेगा क्या । तो कुछ बातें होती हैं जिसमें घाटा नफा नहीं देखा जाता है केवल और केवल तम को जलाया जाता है। शरीर का तम जैसे जले जलना चाहिए यही एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए। परीक्षाएँ तो कक्षाओं में पास बहुत ही की होगी आपने भी और हमने भी, लेकिन कुछ हैं कि चाहते हुए भी उन परीक्षाओं से बाहर नहीं आया जा सकता है, शायद इसे ही ज़िन्दगी की हकीकत कहते हैं.... दो विचार आपस में गुत्थम गुत्था कर रहे हैं...लगता है मैं विषय से विषयांतर हो रहा हूँ... आगे थोडा ही लिख रहा हूँ....
यह लडाई, जो कि अपने आप से मैने ठानी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढी है,
यह पहाडी, पांव क्या चढते,जो धमनियों के भरोसे चढी है,
सही हो या गलत है,
अब तो पथ यही है।

और कितना बाँटोगे....


1947 के बँटवारे का दर्द हम आज भी झेल रहे हैं। ज़मीनों के बँटवारे हो गए जिसने दिलों पर लकीर खींच दी। एक बार फिर इन दिलों को बाँटने का सिलसिला शुरु हो गया। कोई कहता है भाषा के आधार पर बाँट दो तो कोई कहता कि नहीं, क्षेत्रफल और दूरियाँ ज्यादा है इस लिए एक और राज्य दे दो। दहल उठा समाज, होने लगी मारा-मारी, एक दूसरे के ही खून के प्यासे हो गये लोग। हर कोई नफरत करने लगे एक दूसरे से। राजनेता अपने ही राजनीतिक रोटियाँ सेकने में लगे हैं। कोई ये नहीं सोंच रहा है कि सदियों से साथ-साथ रहते आये लोंगों को ही एक दूसरे के खिलाफ भडका रहे हैं तो कहीं आगे चलकर यही उल्टे उनके उपर ही न आन पडे। 28 भागों में तो पहले ही बँट गए हैं और भी बाँटने की भरपूर कवायद शुरु है। कहीं जात के आधार पर तो कहीं धर्म के आधार पर लोग अपने अलग राज्य की माँग करने लगे हैं। वो दिन दूर नहीं कि आने वाले दिनों में चार गाँव वाले मिलकर कहने लगेंगे कि हमें भी एक अलग राज्य दे दो। अगर बँटवारा का सिलसिला यही रहा तो सिंन्धु प्रदेश कहे जाने वाला राष्ट्र महज कुछ ही किलोमीटर में सीमित रह जाएगा।
फिलहाल तो ज़मीनों की ही बँटवारा हो रहा है, आने वाले दिनों में जिस तरह से बँटवारा पर राजनीति हो रही कोई एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में भी जाने के लिए हमें सोंचना होगा। तब क्या होगा ये सोंच कर मैं तो चिन्तित होता हूँ, शायद आप भी सोंचने लगेंगें इसकी कल्पना मात्र से। अभी महज कुछ सालों की ही बात है, जिसमें उत्तरांचल को उत्तर प्रदेश से अलग किया गया और झारखंड को बिहार से, लेकिन अगर इन इलाकों में प्रगति की सोंचे तो दूर-दूर तक कोई नामों निशान नहीं है। हाँ ये जरुर है कि राजनेताओं ने कई बेनामी संपत्ति जरुर बना ली। गरीब और गरीब होते गए जबकि खद्दरधारी मोटे सेठ के रुप में बदलते गए। सरकार भी इस तरफ से आँखें मूँद ली है इसके पीछे भी अपने ही स्वार्थ हैं कि लोग लडते रहें जिससे उनकी खामियों पर पर्दा पडा रहे। हालाकि इन बातों को ना तो गंभीरता से देखी जा रही है ना ही सूनी जा रही है। इस बँटवारे का विरोध करने वालों की आवाजें गूँज तो कतई नहीं सरकार के सामने फुस्फुसाहट से भी कम ही अपनी उपस्थिति दाखिल करा पा रही हैं। जिन लोगों के विकास की बातों की गई थी आज भी उनके पास ना तो खाने के आनाज के दाने हैं और ना ही तन ढंकने के लिए कपडे। कोफ्त होती है कि हमारे ही चुने लोग हमें नोंच नोंच के मार रहें हैं। बदले तो किसे बस केवल इनका मुँह तकते रहना है और कहना है, जमीन बाँट रहे हो , दिलों को बाँट रहे हो, पानी को बाँट दिया अब क्या धमनियों में चलनेवाले रक्त को भी बाँट डालोगे.....

Sunday, December 27, 2009

धीरे धीरे सब गए...


आप से वादा किया था कि मैं जरुर आपके पास फिर आउँगा। तो लिजिए एक बार फिर आपके सामने मुखातिब हूँ। आपकी और हमारी बात अधूरी रह गयी थी। जी हाँ मैं भूला हुआ नहीं हूँ, आपसे वायदा किया था कि मैं आपको दूसरी कडी सुनाने को। जनाब अब ज्यादा समय नहीं लूँगा हाजिर है दूसरी कडी---
पके आधे बाल मेरे,
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मंद होती,
देख रहा हूँ आ रही,
मेरे दिवस की अवसान बेला।...
ये कहानी यही कहती है कि धीरे धीरे सभी जाएँगे। लोकिन जीतेगा वही जो समय से अपना रण ले हरा दे उसे। लेकिन इसके लिए अद्मय हिमत की जरुरत है उस साहस की जो शायद मुझ से निकल गया है क्योकि जब दिवस का अवसान सामने दिखाई देने लगता है तो हर बात साफ और स्पष्ट दिखनी खुरु हो जाती है। मेरे साथ ये बातें एक एक अक्षर तक साबित हो रही हैं।

मैं कौन....


मैं आप से मुखातिब होता हूँ तो लगता है कि घर आ गया हूँ। सच भी है मेरे पिता जी कि दो बातें आज मुझे कुछ सोंचने पर मजबूर करती हैं। परिवार तो गाँव की मिट्टी से जूडा ही था लिहाजा घर सें सगुण और निर्गुण बंदिशों की भरमार हुआ करती थी दो हैं आप को बताता हूँ।
पहला---- मन फूला- फुला फिरे,
जगत से कैसा नाता रे,
माता कहे कि पुत्र हमारा, बहन कहे वीर मेरा,
भाई कहे ये भुजा हमारी, नारी कहे नर मेरा,
पेट पकड कर माता रोए बाह पकड कर भाई,
लपट झपट कर तिरिया रोए हँस अकेला जाई,
जब लगे जीवा माता रोवे, बहिन रोवे दस मासा,
तेरह दिन तक तिरया रोव, फिर करेघर बासा,
चार गज चरगजी मँगाया, चढे काठ की घोडी,
चारो कोने आग लगाया फूँक दिया जस होरी,
हाड जरे जस जरे लाकजी, केश जरे जस घासा,
सोने जैसी काया जर गयी कोई ना आया पासा,
घर की तिरीया ढूँढन लगी , ढूँढ फिरी चहुँ देशा,
छोडो जग की आशा.....
इसके साथ एक और है वो भी आपके सामने ला रहा हूँ.... लेकिन हकीकत ये है कि जैसे ही पिता जी इसकी शुरुआत करते घर में सन्नाटा छा जाता... सभी चुप हम भी.. । इसके अलावा दूसरी वंदिश जो थी वो है.. उसे लिखूँगा लेकिन इस पर पहले आप लोगों के मन के उद्गार तो जान लूँ....

Thursday, December 24, 2009

एक उलझाव....


एक उलझाव है, वो ये कि शहर आखिर बदल क्यों रहें हैं। हर शहर के साथ लोगों का मिज़ाज बदल रहा है। लोग एक दूसरे से नफ़रत करने लगे हैं। कोई सुनने को तैयार नहीं है दूसरे कि बात। शायद मैने नहीं सोचा था कि लोग ऐसे भी होंगे। पिछले दिनों कई वाकयों से रु-ब-रू होने का मौका मिला। सोच कर बेहद अफसोस होने लगा। माना कि वो समाज के सभ्रांत तबके से हैं, लेकिन कमजोरों के साथ इस तरह तो व्यवहार नहीं किया जा सकता। वाकया है रोड पर हो रहे एक्सीडेन्टों का। एक्सीडेन्ट तो किसी से हो सकता है लेकिन सड़को पर चल रहे दूसरे लोगों लम्बी गाडियों पर चलने वाले लोग शायद कीडे मकोडे की तरह समझते हैं। लिहजा उन्हें कुचलने में कोई संकोच नहीं होता। मुम्बई के छत्रपति शिवाजी एयरपोर्ट पर की घटना ज्यादा ही व्यथित कर देती है। छोटी सी बात पर किसी की जान ले लेना कहाँ तक की मानवता है, कौन कह सकता है कि ये किसी साभ्रांत व्यक्ति का काम है। एक दूसरे से आगे चलने की होड में आपसी बहस ने झगडे का रुप अख्तियार कर लिया। उँची गाजी में चलने वाले जनाब ने उसे अपनी बडी गाडी के नीचे कुचल डाला। ऐसी ही एक घटना दिल्ली में हुई थी। जिसे कोई भूल नहीं सकता। अपनी स्कार्पियो गाजी से पडोसी को कुचल कर मारने वाला व्यक्ति और उसके बाद जश्न मनाने वाला हर किसी के जेहन में कौंध जाता है।
आखिर कारण क्या है इस तरह की घटनाओं का। समझ में आता नहीं दिमाग पर जोर देने पर भी कहीं कुछ समझ में नहीं आता था। लिहाजा मैं चला गया किसी मनो वैज्ञानिक से इस बारें में पूछने। जब हकीकत पता चली तो मेरे तलवे के नीचे से ज़मीन ही सरकने लगी। मनो वेज्ञानिक ने कहा कि लोगों का असंतोष बढने लगा है, क्योकि आपसी विश्वास रहा ही नहीं। इसके साथ ही आगे निकलने की होड में लोग एक दूसरे का दुश्मन समझने लगे हैं। रही सही कसर राजनीतिक पार्टियाँ पूरी कर देती हैं। जिससे लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होने लगे हैं। इन पार्टियों ने लोगों के मन में ये बातें भर दी कि आपसे हक का भाग कोई और खा रहा है जिससे लोगो शांत रहने के बजाए उग्र हो रहे हैं।
कई बार मेरे दिमाग में ये ख्याल आता है कि उग्र होने और मार पीट करने से आखिर मिलेगा क्या ? एक उम्मीद है कि वो व्यक्ति जो गलती कर गया भविष्य में नहीं करेगा। लेकिन उग्र होने से जरुर वो अपने अपमान का बदला निकालेगा। भले ही मैं अभी मजबूत हूँ तो मेरे सामने ना निकाले लेकिन किसी और के सामने तो वो जरुर ही निकालेगा। ऐसा नहीं कि मैं उग्र नहीं हूँ लेकिन मेरी उग्रता ने मुझसे कई चीजें छीन ली है। उनके अमूल्य निधी के बारे में सोंचता हूँ तो हर बाद आँखें नम हो जाती है। अपनी कहानी है कबँ तो किस से। इस लिए चाहता हूँ कि आप कभी अपना संयम ना खोए कहीं मेरी गलती आप ना दुहरा दे, जिससे हर बार आपको पछताना पडे। फिर भी आप को क्षमा भी नहीं मिले.....

Tuesday, December 22, 2009

दिल का अज़ीज किसे कहते हैं....


आज मुझे लिखने का मन बहुत कर रहा है लेकिन शब्द और विचार आपस में जूझ रहें हैं कि क्या लिखू। एक तो मैं हर बार लिखता ही रहता हूँ कि आपस का प्यार कितना अज़ीज होता है। कोई समझे तो उसके मायने बेहद गंभर हैं। लेकिन आज मुझे ना ही अपने बारे में लिखना है ना ही किसी और के। आज एक गाने के मुखडे को आपके सामने लिख रहा हूँ शायद आप बोर हो जाए लेकिन इंडियानामा है परिचय तो कराना जरुरी है-- गाना आपने भी कभी सुना होगा.. गाना कई लोगों के दिल के अज़ीज है-- जो इस तरह से है-- दु:खी मन मेरे, सुन मेरा कहना
जहाँ नहीं चैना, वहाँ नहीं रहना
दर्द हमारा कोई न जाने, अपनी गरज के सब हैं दिवाने
किसके आगे रोना रोये. देश पराया लोग बेगाने,
लाख यहाँ झोली फैला ले, कुछ नहीं देंगे इस जगवाले
पत्थर के दिल मोम ना होंगे, चाहे जितना नीर बहा ले
अपने लिए कब हैं ये मेले, हम हैं हर एक मेले में अकेले
क्या पाएगा उस में रह कर, जो दुनियाँ जीवन से खेले,

साहिर लुधियानवी ने लिखा है, बेहद खूबसूरती के साथ लिखा है।

Tuesday, December 15, 2009

याद जिसे भूल ना सकूँ......

मैने तो कभी सोचा ही नहीं था कि मेरे साथ भी कभी ऐसा कुछ होगा कि इतनी बेताबी होगी किसी के याद में लेकिन हकीकत है। माँ की याद तो उस जाडे के दिनों में चुल्हे के पास बैठ कर खाना खाने से लेकर के उस हर कठिन परिस्थिती में याद आती है जब लगता है कि जीवन अब समाप्त हो गया। लेकिन माँ उस समय उभरती है एक संबल और ढाल की तरह जिससे लगता है कि अब हर मुश्किल आसान हो जाएगा, सच मानिए हो भी जाता है। लेकिन मुझे कभी ये नहीं याद आता है कि माँ ने मुझे कभी भूला हो। माँ ने तो अपने शरीर से कभी अलग किया ही नहीं। माँ के चेहरे पर खुशी तब आती है जब अपने सामने मुझे देखती हैं। मैं माँ से इतना दूर रह रहा हूँ कि वो खुशी भी नहीं दे पा रहा हूँ। एक बार फिर मौका मिला माँ से मिलने का कुछ समय बिताने का। दिल हर खुशी अपने आप में समा लेने को बेताब था, लेकिन कई बातें इस खुशी को समा लेने में कठिनाई पैदा करने रही थी। कोई कहता था कि मुझे समय नहीं दिया, तो कोई कहता कि उसे नजरअंदाज कर रहा हूँ। लेकिन मेरे मन में खुद ही चोर लग रहा था कि मैं ही भाग रहा हूँ, अपनी जिम्मेदारी के साथ-साथ उस आँचल को छोड कर जिसे आज मेरी जरुरत है । शायद मैं स्वार्थी और कमजोर हो गया हूँ, संबल तो कोई नहीं देता । अब तो खुद का संबल खुद ही बनना होगा जिससे कभी भी मुँह ना छुपाना पडे।

क्या शराब पीना इतना जरुरी है.....


इतने अर्से के बाद आप लोगों से मुखातिब होना और सीधा यही सवाल उछाल देना अपने आप में कुछ अजीब सा लगता है। लेकिन ये मेरी मजबूरी कहें या यो कहें कि जब मैं किसी उधेड़बुन में होता हूँ तो आप सबों से चर्चा करने बैठ जाता हूँ। इससे मैं अपने आप को आप के करीब मानता हूँ। पहले विस्तार से वाकया की चर्चा आपसे कर दूँ। पिछले दिनों बिहार की कई शादियों और कुछ उत्सवों में जाने का मौका मिला। हर जगह ढोल नगाडो की थाप और फिल्मी गीतों की धुन पर नाचते युवा, ये तो आम बात थी। लेकिन हर पंद्रह मिनट के बाद लोगों का एक दूसरे का चेहरा तकना और पूछना कि व्यवस्था क्या है ? मुझे कुछ अटपटा सा लगा।अपने दिमाग को काफी दौडाया, व्यवस्थाएँ तो मैं अपने आँखो के सामने देख ही रहा था अब और कौन सी व्यवस्था की बात लोग कर रहे हैं। पूरे नाचते लोगों के साथ-साथ चलता गया लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। अचानक नजर मेरी नाचते लोगों के पीछे-पीछे चलती गाडी पर पडी। गाडी में नाच कर थकते लोग शराब के दौर से अपनी थकान मिटा रहे थे। हर बार यही कह रहे थे कि व्यवस्था मस्त है। समझ में आया कि व्यवस्था मतलब शराब का छलकता दौर।
ये माजरा एक विवाह और समारोह का नहीं हर समारोह में यही नजारा। लगता था कि शराब ही सबसे अहम है। जिसमें पूजा भले हो या ना कोई फर्क नहीं पडता लेकिन शराब तो सबसे पहले ही होना चाहिए। जैसे शराब न होकर चर्णार्मित हो । मैं अपने जीवन में इस तरह का माहौल तो पहली बार देखा, देख कर सकते में आ गया। हर बार देख कर लगा कि क्या जरुरी है शराब पीना ?जिसके आगे सारी बातें गौण हो जाती हैं। अपने, अपने ही लोगों में दोष देखने लगते हैं। इन सारी बातों को सही ठहरानेवाले कहते हैं कि समाज है तो करना बेहद जरुरी है। साथ में यह भी कहते हैं कि अगर आप लोगों को शराब नहीं पिलाएगे तो लोग आपके यहाँ आएँगे ही नहीं।अगर ऐसा है तो उनलोगों को बुलाने की क्या आवश्यकता। जो बगैर शराब के तल भी नहीं सकते। अब ये कौन सा समाज है जिसमें शराब पीना जरुरी है, ऐसा भी नहीं कि पिता पुत्र एक साथ जाम से जाम टकराते हैं, यहाँ महिलाएँ तो शराब को छूती भी नहीं लेकिन अपने आप को समाजिक और व्यवहारिक कहनेवाले लोग कहते हैं कि यही जरुरी है बाकी हो या ना हो। यहाँ तक कि घरवाले भी उन पीने पिलाने वाले लोगों के सामने सबसे छोटे नजर आने लगते हैं। खुशी हो तो खुशी के नाम पर पिलाने का रिवाज गम है तो गम के नाम पर पिलाने का रिवाज बन गया है। फर्क नहीं पडता बस केवल पीने पिलाने से ही मतलब है। अब मेरा सीधा सवाल आप से है क्या किसी भी समारोह में मदिरा इतना जरुरी हो गया कि उसके बिना सभी अपाहिज हो गये हैं। अपने आप को बडा दिखाने का यह झूठी शानो शौकत आखिर कब तक चलती रहेगी। ये समाज का पतन है या उस व्यक्ति का डर कि अगर हमने समाज के सामने नतमस्क नहीं हुआ तो यह तथाकथित समाज हमें कुचल देगा। जिसके सामने हाथ बाँधे रहना उनकी मजबूरी है। थोडा आप भी अपने विचार बताइए.....।

दर्द बाँटने से कम होता है लेकिन किससे.....


एक दर्द है जिसे मुझे बाँटने का मन करता है लेकिन समझ में नहीं आता है कि किसके साथ बाटू। ले देकर के आप को ही बोर करने का साहस करता हूँ। आप आगे बढने से पहले जरूर पूछेगें कि आखिर है क्या जिससे ऐसी दर्द उपज गयी। तो भाई इस दर्द का रिश्ता दिल दिमाग दोनों से है, या यूँ कहें कि शुरुआत दिल से होकर अब दिमाग पर पूरी तरह हावी हो गया है। हुआ यूँ कि शहर शहर भटकने के बाद मुम्बई तो मैं आ गया लेकिन शहर मुझे किसी तरह से पसंद नहीं था। लेकिन दोस्त मिलते गये धीरे-धीरे मन लगता गया। अब तो हालत ये है कि कहीं बाहर जाता हूँ तो जल्द वापस लौटने का मन करने लगता है। लोग भले कुछ कहें लेकिन यहाँ के विशाल समुद्र में हर कुछ समा जाता है। लेकिन इस समुद्र ने भी मेरा दर्द सुनने और अपने में समाने से इन्कार कर दिया। आखिर खुद का दर्द है तो निपटना भी खुद ही होगा।
दर्द है, मानव का मानव पर विश्वास का उठ जाना। मैं मानता हूँ कि हरे कोई एक समान है। कोई जाति हो, धर्म हो, या कोई भाषा-भाषी मैं अलग नहीं मानता। लेकिन मुम्बई में आकर लगा भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोग एक दूसरे को अलग समझते हैं ,अब इस दर्द को कहूँ तो किससे। मुझे लगा कि यह महानगर है और लोगों की सोच छोटी कैसी। पता चला कि राजनीति को चमकाने के लिए लोग एक दूसरे के खिलाफ ही भडकाने लगे जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को वो बाँट सके। रही सही कसर आपसी जलन पूरी कर देती है कि लोग एक दूसरे से नफरत करने लगते हैं। रही बात मुम्बई तो मुझे नहीं लगता कि कभी भी इसका मिज़ाज ऐसा रहा है। लोगों के विचारों को और भी आगे बढाने वाले लोग यहाँ रहते हैं खास कर के फिल्म से जुडे लोग यहाँ हैं तो नहीं लगता कि इस दर्द की पौध यहाँ ज्यादा दिनों तक रह सकेगी।
राजनेताओं की राजनीति से लोग भी सकते में आ जाते हैं कि कल तक एक दूसरे के करीब रहने वाले लोग अचानक से दूर कैसे हो गये। लगता है कि यही बटवारा की राजनीति है। हम और आप लडते रहें और राजनेता अपने पैसे को बढाने में मस्त रहे। यही तो वो भी चाहते हैं कि उनकी नाकामी पर भी पर्दा पडा रहे कोई उनके ओर उँगली भी ना उठा पाए। अगर वक्त रहते हम संभल पाए तो ठीक ना तो रही सही मेल मिलाप का एक सिलसिला भी जाएगा। एक दूसरे के दुश्मन ही सामने नजर आएँगे कोई भी एक दूसरे का चेहरा भी नहीं देखेगा। अगर इस दर्द को मैं आपके सामने रखूँ तो हो सकतो है कि आप भी यही कहेंगे कि ये दर्द तो मेरा है। इस दर्द से हम सब कमोबेश पीडित हैं इस दर्द को आप और हम देख रहें हैं जो देखते हुए भी नहीं देखना ताहतें उसे हम राजनेता कहते हैं। जिस हम ही चुनकर अपना प्रतिनिधित्व देते देश चलाने के लिए। इनके झाँसे से आपको भी निकलना होगा और हमें भी नहीं तो कहीं हम आज़ाद भरत के गुलाम ना बन जाएँ... सवाल वहीं है कि इस दर्द को बाँटे तो किससे.. जो गुलाम बनाने को उतारु है उससे या उससे जिसे अभी ये दर्द दवा लगती है लेकिन वो भी बँटवारे की राजनीति का शिकार होगा और उसे भी यह दर्द उपहार में मिलेगा........।

Tuesday, November 24, 2009

साल भर बाद फिर वही यादें .....


साल भर बाद अचानक से काम करते करते एक फोन आया तो वो सारी यादें ताजी हो गयी। मैं इतने दिनों से इंडियानामा से दूर रहने के बाद एक बार फिर जुडने की कोशिश कर रहा हूँ। आप से दूर रहकर सब कुछ बेमानी लग रहा है। इस लिए वहीं बातें एक बार फिर आप के साथ बाँट कर रहा हूँ।
ये किसी ने मुझे दिया है आप भी देखें......
http://www.chhapas.com/AamneSamne.aspx?ID=445
26/11 को मुंबई पर हुए हमले को भला कौन भूल सकता है। काला इतिहास बन चुका है वो हमला। पुलिसकर्मियों और सुरक्षाकर्मियों की शहादत के साथ ही आतंकवादियों की गोलियों से हुई करीब दो सौ लोगों की मौत हर भारतीय और खुद को इंसान समझने वाले लोगों के दिल में दर्द के रूप में अंकित हो चुकी है। अब जबकि इस हमले को सालभर हो चुका है,उस घटना को अपनी खुली आंखों से कैद करने वाले संवाददाताओं के जेहन में अभी वो पल रुलाती है। आतंकवादियों की जघन्य और अमानवीय कुकृत्य सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर हम इंसान हैं या फिर इंसान के रूप में कुछ और। उस खौफनाक और दरिंदगी भरी घटना पर पल-पल निगाह रखने वाले ज़ी न्यूज़,मुंबई के संवाददाता राजीव रंजन सिंह से बात की हमारे मुंबई संवाददाता रजनीश कांत ने। पेश है बातचीत के मुख्य अंश-
कैसे थे आपके लिए वो पल,जब हर क्षण खतरनाक से और खतरनाक होता जा रहा था? किस रूप में याद करना चाहेंगे,उन पलों को?
राजीव रंजन-वो पल आज भी आँखों के सामने हैं,एक क्षण को लगा कि ये कुछ लोगों का आपसी गैंगवार है। लेकिन समय गुजरने के साथ ही साथ खतरे बढने लगे। आतंक का तांडव पूरे शहर में पसरने लगा। तब लगा कि ये आतंकी हमला है जो कि पूरे शहर को तबाह करने पर तुला है। गोलियाँ और ताज होटल से चीखते लोगों को देख कर लगा कि हमारी सुरक्षा में सेंध लग चुकी है। हम कितने बेबस बन चुके हैं,इसका भी आभास हुआ कि कोई हमारे घर में ही आकर हमें तबाह कर रहा है। जीवन का एक अलहदा अनुभव था। रिपोर्टिंग के लिहाज से सटीक खबरें देने की भरपूर कोशिश रही। मुम्बई के लिए एक काला पन्ना के रुप में आज भी वो वक्त याद किया जाएगा।

जब आपको इस घटना को कवर करने के लिए कहा गया था,तो क्या कभी आपको ऐसा लगा था कि आतंकवादियों के साथ ये लड़ाई इतनी लंबी खींच सकती है? पूरे तीन दिन लगे केवल दस लोगों को नियंत्रित करने में, आखिर कहां चूक हुई थी हमसे? एक रिपोर्टर के रूप में आपका आकलन क्या रहा?
राजीव रंजन-निष्पक्ष रुप से अगर सारे मामले को किनारे से देखें, तो गलती हमारी सुरक्षा तंत्रों की ही हमें लगती हैं,क्योंकि जिस कदर इन आतंकियों का मुम्बई में प्रवेश हुआ और इन्होंने पूरे मुम्बई को अपनी गिरफ्त में ले लिया,इसमें हमारी सुरक्षा तंत्रों की कमजोरी झलकती है। शुरुआती दौर में तो ये नहीं लगता था कि लडाई इतनी लम्बी खींच जाएगी,लेकिन ज्यों-ज्यों पता चलता गया कि उनके पास हथियारों का जखीरा है,और शहर के कई हिस्सों में वे बम भी लगा चुके हैं,साथ ही अलग-अलग इलाकों में फैल चुके हैं तो लडाई खिचती गई।
एक बात और इस पूरे मामले में हमारी ही सुरक्षा एजेन्सियों के बीच समन्वय की कमी झलकी। साथ ही ये भी लगा कि दो साल पहले ही हुए रेल धमाकों से भी इन्होने कुछ नहीं सीख ली और ना ही ये कभी तैयार दिखे इस तरह के हमलों के लिए।

जब आप हमलास्थल पर थे,तो आतंकवादियों की कोई भी एक गोली आपके सीने को छलनी कर सकती थी,क्या कोई ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण पल आपके सामने भी आया था?
राजीव रंजन-भाई बिल्कुल आप ने इस बात को पूछ कर मुझे उस पल और उसी जगह पर ही ले गए। रात का पहला पहर यानी लगभग साढे दस बजे का समय था। सीएसटी रेलवे स्टेशन के इलाके में लगभग चालीस मिनट तक रहने के बाद और सारी रिपोर्टिंग करने के बाद गेटवे की तरफ ताज होटल के पास मैं पहुँचा। ताज होटल पहुँचते ही गोलियों की आवाज और होटल से आती 'बचाओ-बचाओ' की आवाज, ने मुझे रिपोर्टिंग के लिहाज सा बरबस एक वॉक थ्रू करने पर मजबूर किया। वॉक थ्रू के दौरान ही एक ग्रेनेड मुझ से लगभग 35 से 45 कदम की दूरी पर यानी ताज टावर के गेट पर गिरा। थोडा मैं सहमा जरुर लेकिन वॉक थ्रू जारी रखा। फिर उस टेप को लेकर ओवी वैन की तरफ जाने लगा पुलिस ने मना किया कि गेटवे के पार्क की तरफ से नहीं जाने को,लेकिन मैं बढता गया। बाद में पता चला कि मैं पाँच किलो के आरडीएक्स के उपर से गुजर गया। इसके बाद ओवी वैन गेटवे पर ना पाकर उसे खोजने ताज के पिछले बरामदे से जाने की कोशिश करने लगा।
अचानक से ताज महल होटल के पीछे तीसरे मंजिल पर कोई बार बार खिडकी पर आता जाता दिखाई दिया। एक रिपोर्टर होने की वजह से मैं रुक कर देखने लगा अचानक से एक व्यक्ति खिड़की पर आकर रुका तबतक मैं अपना हैन्डीकैम से शूट करने लगे तभी उस व्यक्ति ने अपनी राइफल से गोली चला दी। राइफल देख कर मैं स्तब्ध रह गया जो होना है वह होकर ही रहेगा यही सोचा। गोली मेरी दाहिने तरफ से तीन से चार फुट की दूरी से जाकर पीछे दीवार में धँस गयी। दीवार के पीछे सुरक्षा में खडे सिक्यूरिटी ने भरपूर खरीखोटी मुझे सुनाई कहा कि इससे हादसा हो सकता है आप लोग क्यों नहीं समझते,मैं उसकी बात मान कर वहाँ से निकल गया। ये पल बिल्कुल मेरे साथ के रहे।

हमले के समय पुलिसवालों और सुरक्षाकर्मियों की मन:स्थिति क्या रही होगी? जनता का दबाव,मीडिया का दबाव,सरकार का दबाव,नेताओं का दबाव,बंधक बनाए गए लोगों के रिश्तेदारों की आंसूओं और इन सबसे ऊपर आतंकवादियों की गोलियों की आशंका...कैसे संभाल रहे होंगे वे लोग, इन सब चीजों को एक साथ...
राजीव रंजन-हकीकत है, उस समय का वो पल सबों के सामने थे। सबसे ज्यादा दबाव सुरक्षा एजेन्सियों के उपर ही था। ज्यादा से ज्यादा लोगों को बचाने की कोशिश थी। लोगों को मारे जाने से और भी उन पर दबाव बढता जा रहा था। साथ ही पुलिस के बडे़-बड़े अधिकारियों के शहीद होने से उनके तो कमांडर ही नहीं रहे, कुछ देर तक ऐसा भी लगा। करकरे, सालस्कर और कामटे जैसे लोगों के नहीं रहने से थोड़ी देर के लिए पुलिस प्रशासन सदमे में आ गया। लेकिन घरों पर लौट गए पुलिस और सुरक्षा एजेन्सियों के जवान भी सादे वर्दी में ही चले आने से एक दूसरे का हौसला बढता गया। उनके ऊपर खुद के रिश्तेदारों की भावनाओं का दबाव भी था लेकिन इन सबों को किनारा करके मुकाबले को तैनात रहे पुलिस और सुरक्षा के लोग।
यहाँ तक एनएसजी भी अपनी साथी संदीप उन्नी कृष्णन और गजेन्द्र सिंह के मौत के बावजूद भी उन्होने हिम्मत ना हारी ना ही कहीं कमजोर पडे। एक दूसरे को संबल देकर भरपूर मुकाबला उन्होंने किया जो कि सलाम करने लायक है।

हमले के दौरान हरेक न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों पर ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव खबर लाने का दबाव था,क्या आपके ऊपर भी इस तरह का कोई दबाव था? ऐसे संवेदनशील मामलों में न्यूज चैनल की इस नीति के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
-जाहिर है खबरिया चैनलों पर दबाव था। क्योंकि जो ये पल थे उन पर हर किसी की नजर थी और हर कोई एक दूसरे से अलग और बढ़-चढ़ कर खबर दिखाने की कोशिश कर रहे थे। मैं भी कुछ देता गया,लेकिन मैं अपने अनुभव से यही सीख ले चुका था कि खबरें बेहद संतुलित हों। जब तक पूरी तरह से इन चीजों को जाँच ना लूँ उस खबर को बेवजह चलाने की कोशिश नहीं करता। मैं जब लाइव और फोनो दे रहा था तो ये जरूर ख्याल रखता था कि ना ही दर्शकों में दहशत फैले और ना ही सुरक्षा एजेन्सियों की कार्यवाही की बारीकी को ही बताता, क्योंकि तब तक ये पता चल चुका था कि आतंकियों का खबरों से फीड बैक मिल रही है।
हाँ जब एनएसजी के कमांडो हेलीकॉप्टर से नरीमन हाउस पहुँचे तो उसे सबसे पहले दिखाना जरुरी समझा और दिखाया क्योंकि आतंकियों को भी ये संदेश मिलता कि अब वो चारों तरफ से घिर चुके हैं। कुछ देर के बाद मैने अपने चैनल के लोगों से भी लाइव ना दिखाने का आग्रह किया, जिसे उन्होने भी स्वीकार भी कर लिया। इन संवेदनशील मामलों में ये जरुर होना चाहिए कि खबरें संतुलित हों, लोगों में ज्यादा दहशत फैलने से सुरक्षा एजेन्सियों पर दबाब ज्यादा हो जाता है जिससे सुरक्षा में लगे लोगों से चूक भी हो सकती है।

भगवान ना करे, ऐसी घटना दुबारा हो, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसे हमले की पुनरावृति होती है, तो ऐसी घटनाओं को कवर करने के दौरान आप नए रिपोर्टरों को क्या संदेश -देना चाहेंगे?
राजीव रंजन-इन परिस्थितियों में हमारे नए सहयोगियों को ये ख्याल रखना चाहिए कि पहले हर चीज की पुष्टि कर लें, फिर उन खबरों को आगे बढाएं। संतुलन बनाए रखें जिससे खबर बिखरे नहीं, सटीक रहे। ज्यादा उत्साह में गलत और दहशत नहीं फैलाने वाले खबरों को बाहर नहीं आने दे, ऐसी कोशिश रहनी चाहिए उनकी।

Friday, March 20, 2009

क्या खोया क्या पाया ....२


बन्दूक दिखी तो एकबार लगा कि कोई कमांडो होगा मैं भी टकटकी लगाने लगा, लेकिन अचानक मेरी तरफ आती गोली का अहसास हुआ, लगा कि अब हो गया खबरनवीसी का जय-जय श्री राम । गनीमत था कि गोली दूर से निकल कर पीछे की दीवार में जा लगी लेकिन दीवार के पीछे खडे महाराष्ट्र पुलिस का जवान गिर पडा। आखिर वो भी इन्सान था जो जीवन में शायद पहली बार आतंकी का सामना कर रहा होगा। अपनी खीज छुपाने के लिए मुझ पर ही बरस पडा कि मेरे चलते ही आतंकी ने गोली इस तरफ चलाई। खैर किसी तरह पहली रात बीत गई। लेकिन इस पहली ही रात ने लगभग 200 शहरीयों को अपनी काली साया के नीचे लील गया। विजय सालसकर, अशोक कामटे,हेमन्त करकरे जैसे लोग शहीद हो गये। तुकाराम ओम्बले ने जान की परवाह किये बिना एक आतंकी पर हमला किया आतंकी पकडा गया लेकिन तुकाराम नहीं रहा पीछे छोड गया अपनी तीन जवान बेटियाँ। हालात ऐसे थे जिसमें ड्यूटी के खत्म होने का सवाल ही नहीं था। सुबह के लगभग 12 बजे मोर्चा इधर हम रिपोर्टर जमाए हैं तो उधर आतंकी कत्लेआम मचा रहे थे।बमों की बौछार कर रहे थे। इन बातों को लिखना लग रहा कि बेमानी है क्योकि वो सारे वाकये आँखों के समाने से होकर के गुजरने लगते हैं। लगभग 40 एम्बुलेंस ताज होटल के सामने आती रही लेकिन हम केवल बेबस बनकर देखते रहे। खैर इन आतंकियों पर काबू करना बेहद जरुरी था। लिहाजा एनएसजी कमांडो और मारकोस दस्ता ने कमान अपने हाथ में लिया। रात जिस जगह पर हम सभी खडे थे सुबह होते-होते पता चला कि लगभग सात किलो का आरडीएक्स बम आतंकियों ने नहीं छिपा रखा है। जो बात में पता लगाकर डिफ्यूज किया गया। उस बेकार किये गये बम को भी देख कर अचंभा होता था कि रात भर हम लोग आस पास ही मँडराते रह अगर गलती से भी कहीं यह बम फटता तो ताज और 100 साल से भी ज्यादा पुरानी स्मारक गेटवे तो भूल में मिल ही जाता लेकिन हमारे परख्च्चे भी नहीं मिलते।
हर कदम पर एक नई सीख थी, एक जीवन की सच्चाई दिखती थी। साथ ही अपनी सरकार पर खीज भी आती थी कि आखिर हमारी सरकार क्या कर रही थी और अभी क्य सो रही है कि लगभग 24 घंटे से उपर हो गये और एक भी आतंकी नहीं पकडा गया। मात्र 10 लोगों ने पूरे शहर को लगभग 60 घंटो तक बंधक बना कर ऱख लिया। लिहाज इसके लिए सरकार तो जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए। लेकिन महाराष्ट्र और केन्द्र सरकार ने बलि चढा ही महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री आर.आर.पाटिल को। दिल का सच्चा आदमी बेमौत मारा गया उसकी कुर्सी इन्ही राजनेताओं ने हड़प ली ऐसा ही कहना अचित होगा। खैर ये तो दो दिनों की ही बात है अगले दिन मैं नरीमन हाउस पर था वहाँ जो कुछ आँखो के सामने देखा उसे देख कर तो आँखे झपक ही नहीं रही थीं।

क्या खोया क्या पाया....१,


ये मैं लिख रहा हूँ लेकिन बहुत दिनों के बाद कारण मेरे निजी थे। ऐसा भी नहीं था कि मैं लिख नहीं सकता था बस केवल और केवल आलस ही था, जिसके कारण लिख नहीं पाया था, इसके लिए थोडी आपसे आज़ादी चाहता हूँ। शुरुआत मैं करता हूँ साल 2008 के अंतिम महीनों में हुए घटनाओं से। नवम्बर का महीना कितना दुखद रहा हमारे लिए ये कहनेवाली कोई बात नहीं है। हर कदम पर आतंक का नाच हुआ जिसे देख कर आम शहरी दंग रह गया। लगभग दो दिनों तक ये मुट्ठी भर आतंकी पूरे शहर को अपने गिरफ्त में ले लिये। अधिकारियों ने तो अपनी जान की बगैर परवाह किये मुकाबला लिया। सैकडों बेगुनाहों की जान गयी, बात तो यह है कि आतंकियों के इस नापाक इरादे में चूक तो हम से भी हो ही गयी है। जिसको भूलना आसान नहीं है। लोग भले ही इसे कहें कि यह बस एक हादसा था जो बीत गया अब उसे भूला देना चाहिए, तो मेरे मानना है मेरे दोस्तों कि ये मेरे बस की बात नहीं भले ही वो मेरे देश में हुआ हो या किसी और देश में।
साल तो बीत गया लेकिन दर्द इतना बड़ा दे गया कि दिलो दिमाग पर छाप छोड गया। उस दौरान अपने आँखो देखी हालात को बताऊँ तो बडी ही विकट स्थिती थी। हर तरफ एक दहशत का माहौल बना हुआ था। जिसे देखने के बाद अपनी कमजोरी झलक रही थी। कारण जो भी हो भले ही हमारे या हमारे पुलिस और सेना के अधिकारियों के सामने ये मजबूरी हो कि आसपास के लोगों को बचाया जाए जिससे ज्यादा लोग आहत ना हों लेकिन इसका फायदा उठाया आतंकियों ने, अगर शब्दों में कहें तो नादिर शाह की तरह कत्लेआम मचा दिया था आतंकियों ने। हमारी ही आँखों के सामने लगभग सौ साल पुराना ताज महल होटल धू-धू करके जलते रहा। फायर ब्रिगेड के कर्मचारी हर संभव कोशिश में रहे कि मुम्बई की शान समझे जानेवाले इस पुरातन बिल्डिंग को आग की लपटों से बचाया जाए। इसके साथ कोशिश ये थी कि अंदर फसे लोगों की थाह ली जा सके, इसी बीच मैं भी फायर ब्रिगेड के लोगों के साथ हो लिया। कुछ कदम अंदर भी गया लेकिन फायर कर्मचारियों की नज़र में आ गया लिहाजा मुझे फिर से बाहर आना पडा। लेकिन इन्तज़ार में यही था कि किसी तरह से अन्दर जाऊ। मैं मदद के साथ साथ अपने खबरनवीसी का भी काम करना चाहता था। पिछले तरफ भागा कि कहीं वहाँ से कोई रास्ता मिले। तभी चौथे माले की खिड़की पर कोई दिखा, मुझे लगा कि ताज में रुका कोई मुसाफिर है रुक गया उसे देखने को अचानक खिडकी पर एक बन्दूक दिखी.... .
यही बाकया अगले भाग में ..