Wednesday, April 20, 2011

ढह गया शीश महल...


हजारों आशियानाओं में से एक था उल्लहास नगर का शीश महल, लगभग 20 परिवारों का ये आशियाना बन कर तैयार हुआ 1995 में। हर किसी के सपनों का आशियाना भरभराकर कर बिखर गया और पीछे थोड गया बेपनाह दर्द। लगभग 10 साल से कम उम्र के सभी बच्चे मौत की आगोश में सो गए। इन सारे बच्चों का कोई ना तो कसूर था ना ही दुनिया के हेरफरे के वो जानकार थे। परिवार विलखल रहा था कि घर के चिराग बुझ गए। वर्षों से संतान की आस लगाने के बाद परिवार में गूँजी किलकारियाँ अब खामोश हे गई थी। आखिर इस हादसे के पीछे कसूर किसका। सरकार सीधे सीधे वहाँ रहने वालों पर ही अपना दोष मढ कर किनारा कर लेती है लेकिन हकीकत कुछ और ही है। जब मनाक बन रहा था उस समय बिल्डर और सरकारी अधिकारियों की मिली भगत से मकान के लिए जरुरी अनुमति दिला दिए गए। लेकिन मकान में इस्तेमाल होने वाली ईट गारे की जाँच ही नहीं की गई। रेत के नाम पर खालिस मिट्टी मिला दी गई, इस मिट्टी ने मजबूती के नाम पर लोगों धोखा ही दिया। नतीजा महज 20 सालों में ही सामने आ गया मकान भरभराकर गिर गया। अपने गिरने के साथ ही 8 लोगों को मौत की नींद भी सुला गया। इस लापरवाही के लिए सरासर जिम्मेदार सरकार की कार्यवाही ही है जब जी चाहे लोगों का इस्तेमाल कर लिया। जिस अधिकारी ने इस सारी अनुमति का अंजाम दिया होगा उसने तो करोडों रुपए से अपनी जेब गर्म कर अब आराम फरमा रहा होगा लेकिन मार गए बेचारे बेगुनाह। इनका सुध लेने के लिए ना तो सरकार ने ही कोई ठोस कदम उठाए और ना ही अपराधियों पर कोई कार्यवाही हुई। ये बातें कहनी भी अब बेमानी लगती हैं......
या बहारों का ही ये मौसम नहीं
या महक में ही गुलों के दम नहीं।
स्वप्न आँखों में सजाया था कभी
आंसुओं से भी हुआ वह नम नहीं।
हम बहारों के न थे आदी कभी
इसलिये बरबादियों का ग़म नहीं।
आशियाना दिल का है उजड़ा हुआ
जिंदगी के साज़ पर सरगम नहीं।
जश्न खुशियों का भी अब बेकार है
ग़म का भी कोई रहा जब ग़म नहीं।
मौत का क्यों ख़ौफ़ ‘देवी’ दिल में हो
खुद कफ़न देखने के सिवा अब कुछ नहीं।

Tuesday, April 19, 2011

जल रहा है जैतापूर ....


महाराष्ट्र की बेतरीन वादियों का प्रदेश रत्नागिरी जल रहा है। एक दूसरे के विरोधाभाष ने दुश्मनों सा व्यवहार करने पर मजबूर किया है। हर कोई एक दूसरे पर विश्वास करना तो दूर चाहता है कि किस तरह से इस हंगामें को और बढाए। इसके पीछे और कोई नहीं राजनीतिक पार्टियों की भरपूर राजनीति है। केन्द्र सरकार चाहती है कि इस इलाके में बदलाव की हवा के साथ-साथ विकास की गति तोज कर दी जाए लेकिन राजनीतिक पार्टियाँ चाहती हैं कि विकास हो भी तो उन्हीं के शर्तों पर विकास के लिए जो भी मसविदा तैयार किया जाए उसमें स्थानीय राजनीतिक पार्टियों को भी शामिल किया जाए जिससे वो अपनी राजनीतिक चमक को और ज्यादा हवा दे सके । जिससे रत्नागिरी के सीधे सादे लोगों पर हुकूमत करके अपना उल्लू सीधा किया करे...एक ही बात कह सकता हूँ..
आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा वही ख़ुदा देगा
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिब है
क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा
ज़िन्दगी को क़रीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा
हमसे पूछो दोस्ती का सिला
दुश्मनों का भी दिल हिला देगा
नफ़रत का ज़हर पी लिया "फ़ाकिर"
अब मसीहा भी क्या दवा देगा

Monday, April 18, 2011

अन्त कब होगा....


हमने कभी नहीं सोचा था कि कभी ये भी सोचना होगा कि अब सब कुछ खत्म कर दिया जाए। लेकिन पिछले कई दिनों से या यो कहें कि कई महीनों से लग रहा है कि अब समय आ गया है ये कहने का कि सबकुछ खत्म हो गया है। लेकिन इस उधेडबुन में हूँ कि कहने का तरीका कौन सा अपनाऊ। जल्द ही वो भी रास्ता मिल जाएगा और इसे भली भांति पूरा भी कर दिया जाएगा। लेकिन मैं तो चाहता हूँ कि इस दर्द को तब तक पालू जब तक ये जहर पांव से सीने पर नहीं चढ जाता है। गाहे बगाहे इसे कभी बढाता हूँ तो कभी यथावत रखने की कोशिश करता हूँ हाँ भूल कर भी कम करने की कोशिश नहीं करता हूँ....
यही कोशिश है......

लफ़्ज़ झूठे अदाकारियाँ ख़ूब थीं
हुक़्मरानों की अठखेलियाँ ख़ूब थीं
तूने पिंजरे में दीं मुझको आज़ादियाँ
ज़ीस्त ! तेरी मेहरबानियाँ खूब थीं
धूप के साथ करती रहीं दोस्ती
नासमझ बर्फ़ की सिल्लियाँ खूब थीं
मेरी आँखों के सपने चुराते रहे-
दोस्तों की हुनरमन्दियाँ ख़ूब थीं
बेतकल्लुफ़ कोई भी नहीं था वहाँ
हर किसी में शहरदारियाँ खूब थीं
जून में हमको शीशे के तम्बू मिले
बारिशों में फटी छतरियाँ ख़ूब थीं
हम छुपाते रहे अपने दिल के घाव को
इसलिए क्योकि आपकी हिकारत ख़ूब थीं .

Sunday, April 17, 2011

सांझ..


हर बार मन तो करता है कि ढेर सारी बातें लिखू लेकिन समय के अभाव और विचारों के संकुचन के लिए ऐसा हो नहीं पाता है। लेकिन मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं आपको इंडियानामा में अपने देश प्रदेश के हर छोटी बडी चीजों से रु-ब-रू करवाऊ। कोशिश करता हूँ पता नहीं सफल हो पा रहा हूँ या नहीं। अभी पिछले दिनों शाम के धुँधलके से पहले मैं मुंबई के नरीमन प्वाइन्ट पहुँचा। अतिशय भीड तो थी लेकिन मैं अपने आप में तन्हा था। कभी सूरज की समुद्र में डूबती किरणों को देखता कभी दूर समुद्र से अपने डेरे को लौटती नाव को देखता जो कि लहरों के थपडे से किनारो तो नहीं आ पाती। लकिन भरपूर प्रयास क बाद भी संभव नहीं लगता दिखता। हार का नाव और नाविक अपने आप को लहरों के हवाले छोड देते। मुझे ध्यान आया कि कुछ ऐसे ही मझधार में जिन्दगी भी फँसी रहती है......

दूर से आती नावों ने भी
गिरा दिये हैं अपने पाल
मल्लाहों के गान में शिखर सूर्य-से तपते
तार-स्वरों की लय में वो लपक नहीं बाक़ी
पानी में डूबे चप्पुओं में त्वरा नहीं
लहरें भी हो चली हैं ध्यान-मग्न
जाती धूप के साथ डूब चले हैं अँधेरे की परते में
मछेरों के जाल
किनारों पर ठहरी अनमनी नावों के मस्तूल
और दूर-दराज़ जहाँ-तहाँ चमकते हुए
फुनगियों के फूल
पक्षियों के ध्यान में भी उतर
आयी है,घोंसलों में तैरती-डूबी रात
चमक रहे हैं दूर,बहुत दूर
मन्दिरों के धुँधले होते कलश और त्रिशूल
और... कहीं-कहीं पानी और रेत-लहरों की लकीर
दूर पार हवा भी चुपचाप ठहरी है
मैं भी खड़ा हूँ;ठगा-सा
डूबती साँझ की गोद में.लहरों में साक्षात् घिरा
जा रहा हूँ आज, कल फिर आऊँगा शायद,
कोई राह निकल जाए जिन्दगी जीने की हठात्......

Monday, April 4, 2011

यमराज को संदेश....


मैं बराबर सोंचता हूँ कि हमारे आस पास जो भीड लगी है आखिर वो किस लिए लेकिन ये बात मेरी समझ से परे चला जाता है। कई बार इस मसले पर पिता जी से बहस भी हुआ है। पिता जी कहते हैं कि समाज है आर मनुष्य को समाज में रहना ही है इस लिए सारे लोकाचार को निभाना भी है और हर संभव हो तो इस भीज में भी रहना है।लेकिन इस भीज में रहते रहते हुए मुझे घुटन महसूस होती है क्योकि हर चेहरे के पीछे एक चेहरा थिपा नज़र आता है इसे मैं फिर कभी बताऊगा. एक शब्द में बोलू तो मैं इस रेल पेल से उकता गया हूँ... लगे हाथों मेरी इस उकताहट एक कविता रुप में निकल पडी पता नहीं आपको कैसे लगे।
मैं अपने आप में घुलकर हो गया बीमार था, यार-दोस्तों का हुजुम भी श्रद्धांजलि को तैयार था रोज़ अस्पताल आते हमें जीवित पा निराश लौटे जाते
एक दिन हमने खुद ही विचारा और अपने चौथे नेत्र से निहारा देखा चित्रगुप्त का लेखा
जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है शायद यमराज लेट हो गया है या फिर उसकी नज़र फिसल गई और हमारी मौत की तारीख निकल गई यार-दोस्त हमारे न मरने पर रो रहे हैं इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं
किसी ने कहा यमराज का भैंसा बीमार हो गया होगा या यम ट्रेन में सवार हो गया होगा और ट्रेन हो गई होगी लेट आप करते रहिए अपने मरने का वेट हो सकता है एसीपी में खड़ी हो या किसी दूसरी पे चढ़ी हो और मौत बोनस पा गई हो आपसे पहले औरों की आ गई हो
जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो हमने यम के पीए को लिखा सब यार-दोस्त हमें कंधा देने को रुके हैं कुछ तो हमारे मरने की छुट्टी भी कर चुके हैं और हम अभी तक नहीं मरे हैं सारे इस बात से डरे हैं कि भेद खुला तो क्या करेंगे हम नहीं मरे तो क्या खुद मरेंगे वरना बॉस को क्या कहेंगे
इतना लिखने पर भा कोई जवाब नहीं आया तो हमने फ़ोन घुमाया जब मिला फ़ोन तो यम के फोन ये आवाज़ आई थोडा... थोडा इंन्तज़ार का मज़ा लिजिए.. फिर एक कडक आवाज़ बोला... . .कौन? हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं मौत की लाइन में खड़े हैं प्राणों के प्यासे, जल्दी आ हमें जीवन से छुटकारा दिला
क्या हमारी मौत लाइन में नहीं है या यमदूतों की कमी है
फिर मेरे सवाल पर यमराज कडक आवाज़ में बोला...नहीं कमी तो नहीं है जितने भरती किए सब भारत की तक़दीर में हैं कुछ असम में हैं तो कुछ कश्मीर में हैं
जान लेना तो ईज़ी है पर क्या करूँ हरेक बिज़ी है
तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है अभी तो हमें भी मरने की फ़ुरसत नहीं है
मैं खुद शर्मिंदा हूँ मेरी भी मौत की तारीख निकल चुकी है और मैं अब भी अभी ज़िंदा हूँ।