Sunday, June 19, 2011

सरकार की चुप्पी वो भी पत्रकारों के प्रति....


महाराष्ट्र सरकार पता नहीं क्यों चुप्पी साधे हुए है, सरेआम पत्रकार की हत्या होती है और कार्यवाही के नाम पर मजह लोगों से पूछताछ भर। लगभग दो सप्ताह गुजरने के बाद भी सरकार के तरफ से ठोस कार्यवाही सामने नहीं आ रही है। हर तरफ एक सन्नाटा ही पसरा हुआ है। इस सन्नाटे के पीछे भी अब कुछ ऐसी अवाज़ें उठनी लगी हैं जिन्हें जानकर लगता है कि आखिर आपसी गुटबाज़ी से लोग कब उपर उठेंगें। अपराध की रिपोर्टिंग करते थे जेडे, लेकिन कब अपराधियों के निशाने पर आ गए शायद उनको खुद भी पता नहीं था। समाज में हो रहे अपराध के बारें सरकार को बताना हम पत्रकारों का धर्म है,जिसके बदले में हम चाहते हैं सरकार इन अपराधियों पर नकेल कसे और आम शहरी को रहने का स्वस्थ सुन्दर माहौल दे। लेकिन यहाँ तो उल्टा ही हो रहा है, ना तो सरकार नकेल कसती है और ना ही आम शहरी अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहा है। आफत उन पत्रकारों पर मौत के रुप में गिरती है, सरकार इस पर व्यक्तिगत दुश्मनी का नाम देकर मामले को किसी कोने में दफ़न कर दे रही है। देर सबेर शायद जेडे के मामले में भी यही बात सुनने को मिले। लेकिन मैं अपने उन वरिष्ठ भाइयों से सवाल करता हूँ कि क्या उनकी चेतना कभी नहीं जगती कि आखिर सरकार के इस रवैये पर रोक लगाई जाए। सरकार की इस मंशा पर से सच्चाई का पर्दा उठाया जाए। ये सवाल केवल मेरा नहीं है, मेरे जैसे लाखों हजारों उन लोगों का है जो अब देख चुके हैं कि सरकार की साठगांठ किन लोगों से है। हर वो आम शहरी अब जानता है कि पिछले कई सालों में सत्ता में रहने वाले लोगों ने किन किन राहें से पैसे कमाए। जिसे उजागर करने में कितने ही जेडे जैसे लोग कुर्बान हो गए।
मुझे मुंबई आए हुए लगभग 15 साल तो हो ही गए लेकिन मैं सरकार कि इस तरह की निरंकुशता कभी नहीं देखी। ना तो अपराधियों को पकडती है और ना ही अपनी अक्षमता ही जाहिर करती है। जबकि मुंबई पुलिस की तुलना स्कॉटलैन्ड पुलिस से की जाती रही है। मुझे तो कहना नहीं चाहिए लेकिन लगता है कि मुंबई पुलिस को भी जंग लग गई है। उनके धमनियों में बहने वाला खून अब आम आदमी के बारे में नहीं सोंचता केवल राजनेताओं की चौकीदारी करने में ही उन्हे शायद गर्व महसूस होता है। यही लगभग दो साल पहले जब पाकिस्तानी आतंकी मुंबई पर हमला किए तो मुंबई पुलिस के जवानों ने अपनी लाश बिछा दी क्योकि उनके पास आतंकियों से लडने के साधन नहीं थे। तुकाराम ओम्बले के नाम से आप सभी परिचित होंगे एक साधारण से सिपाही ने कसाब की गोलियाँ खाकर भी निहत्थे ही उसी जकडे रहा, उस कसाब को हम आज मेहमान की तरह पाल रहे हैं।
खैर कसाब तो पाकिस्तान के जरिए आतंक फैलाने के मकसद से ही आया था, लेकिन क्या देश को खोखला करने वाले हमारे दुश्मन नही है। करोडों की अबादी वाले देश में क्या सरकार के इस निरंकुशता का कोई हल नहीं है। मैं पूछता हूँ कि, आम जनता कि लडाई हम लडते हैं तो आम जनता जेडे की हत्या पर क्यों चुप बैठी है। शायद हमें ही इस लडाई को आम जनता के बीच ले जाना होगा जिससे कोई और दूसरा पत्रकार इन दानवों की भेंट ना चढे। महज सांत्वना और श्रद्धांजली भर से काम नहीं चलेगा, सरकार से जवाब भी मांगना होगा.. मित्रो मेरी गुज़ारिश है कि हम अपने ही साथी के बलिदान को बर्बाद ना होने दें कलम की ताकत किसी तोप की ताकत से कम नहीं..... निराला जी कि कुछ पंक्तियाँ हैं जो सटीक बैठती हैं...
सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,
हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न,
अन्तिम आशा के कानों में
स्पन्दित हम - सबके प्राणों में
अपने उर की तप्त व्यथाएँ,
क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ
कह जाते हो
और जगत की ओर ताककर

Sunday, June 5, 2011

क्या यही लोकतंत्र है....


मैं कभी भी बाबा रामदेव का अंध भक्त नहीं रहा। लेकिन अगर तर्क के साथ पूरे वाकये को देखें तो बडा ही अजीब लगता है, कि क्या भारतीय सरकार एक साधारण से संत से डर गई है। कपिल सिब्बल के जरिए बाबा का करार नामा दिखाना तो कम से कम यही लगता है कि सरकार डर गई थी। जिसके बदले में पहले ही सोची समझी नीति के तहत रामदेव से सहमति पत्र लिखवाया गया । इस सहमती पत्र के बदौलत ही तो कांग्रेस सरकार ने रामदेव पर छीटा कसी की । अपनी छवि को धुमिल होता देख बाबा भी अपने रौद्र रुप को दिखाने में नहीं हिचके भले ही उन्हें खुद और उनके समर्थकों को लात घूसों का प्रहार झेलना पडा हो।
लेकिन सोचिए जरा कि आखिर रामदेव इस झमेले में कैसे पडे। बात दुरुस्त है कि कहावता है कि ताकत उसी के पास है जो या तो सत्ता में है या सत्ता के बेहद करीब। रामदेव भी ताकत चाहते थे शायद। लेकिन एक बात और कडवी सच्चाई है कि अगर ताकत चाहिए थी तो केवल योग ज्ञान से भी ताकत और पैसा कमा सकते थे। क्या जरुरत थी सरकार से उलझने की। कहीं ना कहीं तो जरुर भारते के प्रति दर्द है जो सालता रहा और इस रुप में सामने आया।
कई सवाल मेरे मन में उठते हैं आखिर कौन सी बात सरकार का खलने लगी जिससे बेसहारा और कमजोर महिलाओं पर लाठियों का प्रहार किया गया। युवा तो युवा बच्चों और बुजुर्गों को भी नहीं छोडा पुलिस ने।पुलिस और सरकार के दमन चक्र में सबको डाल कर पिस दिया गया, जैसे दिल्ली के रामलीला मैदान में जमा लोग इन्सान ना होकर जानवर से भी बदतर हैं। उनके साथ किए गए सलुक ऐसे कि लोकतंत्र भी शर्मशार होने लगे.... अभी बस इतना जल्द ही जल्द ही हमारी और आपकी पूरी बहस चालू होगी ।