Monday, November 21, 2011

देर लगी लेकिन निकल ही आया........,


शायद आप शीर्षक को देखकर कयास लगाते रहे लेकिन, हकीकत है कि आज मैं भूल गया वो सारी बातें जो मेरे साथ छल से किया गया था। मैं अब पूरे मानसिकतौर पर सर्मपित हूँ अपने कार्य के प्रति। लेकिन पिछले तीन सालों में जो मैंने झेला शायद ही कोई उसकी वेदना समझ पाएगा। खैर कोई बात नहीं आज से लगभग 40 साल पहले लिखी गई बातें मुझे सच जान पड रही हैं। वो बातें हैं.---
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
इन्हें मैं बेहद नजदीक से देखता गया। तभी तो आज उबर सका अपनी उस नकारात्मक सोच से। मई महीने के बाद से अब तक गंगा में पता नहीं कितनी धाराओं ने अपनी मंजिल पा ली होगी। लेकिन मैं अपने पुराने विचारों को छे ही रहा था। मैं अपने उपर ब्रेक लगा चुका था। लेकिन अब नहीं जब प्रकृति भी बदलती है तो मैं क्य़ो भला एक ही विचार में बराबर रहूँ ,लिहाजा आज मैं अपने आर को बदल चुका हूँ,नई परिस्थिती के मुताबिक अपने आप को ढाल चुका हूँ।
चलो शुरुआत करता हूँ अपने पिछले काम से ही देश भर घूमता रहा तब जाकर खुद का सांत्वना मिली। अपने आप को तलाश पाया कि आखिर हम कहाँ हैं और किन हकीकतों से हमें रुबरु होना है। साथ दिया हमारे मित्रों ने बाहर निकाल उस अवसाद की कोठरी से जिसने मुझे रखा था। साथ में भ्रष्टाचार के खिलाफ सडे हुए अन्ना हजारे की मुहिम को भी नजदीक से देखने को मौका मिला। उससे भान हुआ कि भ्रष्टाचार केवल सरकारी ऑफिस और बडे स्तरों पर नहीं, बल्कि घरेलू स्तर पर भी है। इसके खिलाफ उठ रहे हर आवाज़ को बलंद करना होगा तभी तो इसे मिटाने में कामयाबी मिल सकती है। मैने बेहद नजदीक से देखा कि आखिर लोग अन्ना हजारे को वली क्यों मानते हैं। मेरा खुद का मानना है कि अगर तर्क के आधार पर भी आप देखे तो एक अकेला आदमी ने खुद के लिए ना करके समाज के लिए बेहद काम किया है जो काबिले तारीफ है । जब मैं दूर सूदूर तक जाकर देखा कि आखिर प्रगति के पीथे और कौन कौन से कदम हो सकते हैं जो समाज सहित खुद मानस को भी आगे बढाए, मुझे तो यही समझ में आया कि अगर प्रयास सही दिशा में और अनवरत हो तो जैसे जल की शक्ति को बिजली में तब्दील करते हैं उसी तरह मानव शक्ति को प्रगति में तब्दील कर सकते हैं। साफ यही पंक्तियाँ हैं.....
इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ,
मुफ़लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ,
जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ,
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ,
कंदील समझ कर कोई सर काट न ले जाए,
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ।