Wednesday, May 7, 2008
एक द्वन्द
कई बार लिखते लिखते मन उदास हो जाता है। पिछले काफी दिनों से कई तरह के काम के दबाव या परिस्थितियों के कारणवश कुछ समझ नहीं पाता हूँ कि क्या करुँ। ऐसा नहीं कि जीवन से हार गया लेकिन निराशा घर जरुर कर गया है। शब्द आपस में ही उलझ रहे हैं। आखों के आगे कुछ विचार कौंध रहें हैं जिनके बारे में कुछ भी समझ में नहीं आ रहा कि उनको शब्दों में कैसे ढालूँ। लेकिन इतना जरुर कहूँगा कि जीवन ने अपने उथल पुथल में मुझे हरा दिया। बन्धनों ने ही और भी कस कर बाँध दिया। जो विचार थे उडने के समाज को नई दिशा देने का वो शायद सपना रहा गया। उम्मीद है कि ईश्वर एक नया जीवन दे,शायद नये सफर की यह तैयारी हो। विदा मित्रों जल्द ही फिर मिलेंगे........
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