Tuesday, November 27, 2012

एक बहस फेसबुक पर....

मुंबई से सटे पालघर में बाला साहब ठाकरे के निधन पर फेसबुक पर दिए कमेंट ने हमें तो सकते में ला खडा किया। कई जगहों पर ये बहस भी छिड गई कि दिया गया कमेंट बेहद सही था। लेकिन मैं तो और भी सदमें तब आ गया जब कुछ लोग जो अपने आप को पत्रकार कहते हैं वो बगैर बाला साहब ठाकरे के बार में जाने ही अपनी राय भी कुछ ऐसे दे जालते है मानो बाला साहब एक राह चलते हुए कोई व्यक्ति हो। अभी तक शायद केवल महात्मा गाँधी के निधन पर देश के इतने लोग शोक यात्रा में शामिल हुए होंगे या बाला साहब ठाकरे के निधन पर।कोई ये भी कह सकता है कि उस वक्त मीडिया नहीं था नहीं तो कई बार इससे ज्यादा लोग भी शामिल हुए हैं कई नेताओं के निधन पर। मेरा मानना है कि बाला साहब केवल एक राजनेता भर नहीं थे, बल्कि सामाज में एक सोच को जन्म देने वाले व्यक्ति थे। मैं हतप्रभ हूँ कमेंन्ट को लेकर जो उनके बारे में किया गया। हर बार जब मुंबई या महाराष्ट्र पर आफत आई तो बाला साहब के दिशा निर्देश ने ढाल बन कर उस आफत से लोहा लिया। कमेंन्ट करने वाले शायद भूल गए हैं कि जब मिल बन्द होने लगे आर घरों में फाँके पडने लगे उस समय मजदूरों को संगठित कर उनकी लडाई को एक स्वरुप देने वाले बाला साहब ठाकरे ही थे। महज एक लेख जिसमें मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने के सुझाव भर था,इसके विरोध में नौकरी तक छोडने वाले बाला साहब के योगदान को कोई नकारता है तो मेरी समझ में वो नादान है। कई मौके हैं जहाँ सौहार्द दिखाया तो जब जरुरत पडी कडाई भी दिखाई। मुझे तो लगता है कि केवल प्रसिद्धि बटोरने के लिए ऐसे कमेन्ट दिए गए हैं। वो कमेन्ट आपके सामने लाता हूँ, दरअसल एक निजी टीवी चैनेल पर पालघर की लडकियों के जरिए फेसबुक पर दिए अपडेट के जरिए एक बहस चली उसी दौरान ये कमेंन्ट भी दिया गया। पत्रकारिता बेहद ही संजीदगी से होनी चाहिए ये मेरा मत है। आज शायद ये खत्म हो रहा है। लोग बहस का हिस्सा तो बनना चाहते हैं लेकिन कुछ और मकसद से। “अखबार में नाम” एक लेख अपने बचपन में पढा था शायद वही मकसद हो। जल्द ही इस बहस को मैं आगे बढाउगा... विदा...

Thursday, November 8, 2012

जंगल जीव दायी.....


सतपुड़ा के घने जंगल। नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल। झाड ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँख मीचे, घास चुप है, कास चुप है मूक शाल, पलाश चुप है। बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल।

ये है समाजवाद...


समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई हाथी से आई, घोड़ा से आई अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद... नोटवा से आई, बोटवा से आई बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद... गाँधी से आई, आँधी से आई टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद... काँगरेस से आई, जनता से आई झंडा से बदली हो आई, समाजवाद... डालर से आई, रूबल से आई देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद... वादा से आई, लबादा से आई जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद... लाठी से आई, गोली से आई लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद... महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद... छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन बखरा बराबर लगाई, समाजवाद... परसों ले आई, बरसों ले आई हरदम अकासे तकाई, समाजवाद... धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई अँखियन पर परदा लगाई समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

Wednesday, November 7, 2012

ये क्या है...


जीवन विफलताओं से भरा है, सफलताएँ जब कभी आईं निकट, दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से । तो क्या वह मूर्खता थी ? नहीं । सफलता और विफलता की परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी ! इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ? किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे, पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के, पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के । जग जिन्हें कहता विफलता थीं शोध की वे मंज़िलें ।

अभी हारा नहीं....


पी जा हर अपमान और कुछ चारा भी तो नहीं ! तूने स्वाभीमान से जीना चाहा यही ग़लत था कहाँ पक्ष में तेरे किसी समझ वाले का मत था केवल तेरे ही अधरों पर कड़वा स्वाद नहीं है सबके अहंकार टूटे हैं,वो अपवाद नहीं है ग़लत परिस्थिति ग़लत समय में ग़लत देश में होकर क्या कर लेगा तू अपने हाथों में कील चुभोकर चाहे लाख बार सिर पटको दर्द नहीं कम होगा नहीं आज ही, कल भी जीने का यह ही क्रम होगा माथे से हर शिकन पोंछ दे, आँखों से हर आँसू पूरी बाज़ी देख अभी तू हारा भी तो नहीं।