Tuesday, November 24, 2009

साल भर बाद फिर वही यादें .....


साल भर बाद अचानक से काम करते करते एक फोन आया तो वो सारी यादें ताजी हो गयी। मैं इतने दिनों से इंडियानामा से दूर रहने के बाद एक बार फिर जुडने की कोशिश कर रहा हूँ। आप से दूर रहकर सब कुछ बेमानी लग रहा है। इस लिए वहीं बातें एक बार फिर आप के साथ बाँट कर रहा हूँ।
ये किसी ने मुझे दिया है आप भी देखें......
http://www.chhapas.com/AamneSamne.aspx?ID=445
26/11 को मुंबई पर हुए हमले को भला कौन भूल सकता है। काला इतिहास बन चुका है वो हमला। पुलिसकर्मियों और सुरक्षाकर्मियों की शहादत के साथ ही आतंकवादियों की गोलियों से हुई करीब दो सौ लोगों की मौत हर भारतीय और खुद को इंसान समझने वाले लोगों के दिल में दर्द के रूप में अंकित हो चुकी है। अब जबकि इस हमले को सालभर हो चुका है,उस घटना को अपनी खुली आंखों से कैद करने वाले संवाददाताओं के जेहन में अभी वो पल रुलाती है। आतंकवादियों की जघन्य और अमानवीय कुकृत्य सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर हम इंसान हैं या फिर इंसान के रूप में कुछ और। उस खौफनाक और दरिंदगी भरी घटना पर पल-पल निगाह रखने वाले ज़ी न्यूज़,मुंबई के संवाददाता राजीव रंजन सिंह से बात की हमारे मुंबई संवाददाता रजनीश कांत ने। पेश है बातचीत के मुख्य अंश-
कैसे थे आपके लिए वो पल,जब हर क्षण खतरनाक से और खतरनाक होता जा रहा था? किस रूप में याद करना चाहेंगे,उन पलों को?
राजीव रंजन-वो पल आज भी आँखों के सामने हैं,एक क्षण को लगा कि ये कुछ लोगों का आपसी गैंगवार है। लेकिन समय गुजरने के साथ ही साथ खतरे बढने लगे। आतंक का तांडव पूरे शहर में पसरने लगा। तब लगा कि ये आतंकी हमला है जो कि पूरे शहर को तबाह करने पर तुला है। गोलियाँ और ताज होटल से चीखते लोगों को देख कर लगा कि हमारी सुरक्षा में सेंध लग चुकी है। हम कितने बेबस बन चुके हैं,इसका भी आभास हुआ कि कोई हमारे घर में ही आकर हमें तबाह कर रहा है। जीवन का एक अलहदा अनुभव था। रिपोर्टिंग के लिहाज से सटीक खबरें देने की भरपूर कोशिश रही। मुम्बई के लिए एक काला पन्ना के रुप में आज भी वो वक्त याद किया जाएगा।

जब आपको इस घटना को कवर करने के लिए कहा गया था,तो क्या कभी आपको ऐसा लगा था कि आतंकवादियों के साथ ये लड़ाई इतनी लंबी खींच सकती है? पूरे तीन दिन लगे केवल दस लोगों को नियंत्रित करने में, आखिर कहां चूक हुई थी हमसे? एक रिपोर्टर के रूप में आपका आकलन क्या रहा?
राजीव रंजन-निष्पक्ष रुप से अगर सारे मामले को किनारे से देखें, तो गलती हमारी सुरक्षा तंत्रों की ही हमें लगती हैं,क्योंकि जिस कदर इन आतंकियों का मुम्बई में प्रवेश हुआ और इन्होंने पूरे मुम्बई को अपनी गिरफ्त में ले लिया,इसमें हमारी सुरक्षा तंत्रों की कमजोरी झलकती है। शुरुआती दौर में तो ये नहीं लगता था कि लडाई इतनी लम्बी खींच जाएगी,लेकिन ज्यों-ज्यों पता चलता गया कि उनके पास हथियारों का जखीरा है,और शहर के कई हिस्सों में वे बम भी लगा चुके हैं,साथ ही अलग-अलग इलाकों में फैल चुके हैं तो लडाई खिचती गई।
एक बात और इस पूरे मामले में हमारी ही सुरक्षा एजेन्सियों के बीच समन्वय की कमी झलकी। साथ ही ये भी लगा कि दो साल पहले ही हुए रेल धमाकों से भी इन्होने कुछ नहीं सीख ली और ना ही ये कभी तैयार दिखे इस तरह के हमलों के लिए।

जब आप हमलास्थल पर थे,तो आतंकवादियों की कोई भी एक गोली आपके सीने को छलनी कर सकती थी,क्या कोई ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण पल आपके सामने भी आया था?
राजीव रंजन-भाई बिल्कुल आप ने इस बात को पूछ कर मुझे उस पल और उसी जगह पर ही ले गए। रात का पहला पहर यानी लगभग साढे दस बजे का समय था। सीएसटी रेलवे स्टेशन के इलाके में लगभग चालीस मिनट तक रहने के बाद और सारी रिपोर्टिंग करने के बाद गेटवे की तरफ ताज होटल के पास मैं पहुँचा। ताज होटल पहुँचते ही गोलियों की आवाज और होटल से आती 'बचाओ-बचाओ' की आवाज, ने मुझे रिपोर्टिंग के लिहाज सा बरबस एक वॉक थ्रू करने पर मजबूर किया। वॉक थ्रू के दौरान ही एक ग्रेनेड मुझ से लगभग 35 से 45 कदम की दूरी पर यानी ताज टावर के गेट पर गिरा। थोडा मैं सहमा जरुर लेकिन वॉक थ्रू जारी रखा। फिर उस टेप को लेकर ओवी वैन की तरफ जाने लगा पुलिस ने मना किया कि गेटवे के पार्क की तरफ से नहीं जाने को,लेकिन मैं बढता गया। बाद में पता चला कि मैं पाँच किलो के आरडीएक्स के उपर से गुजर गया। इसके बाद ओवी वैन गेटवे पर ना पाकर उसे खोजने ताज के पिछले बरामदे से जाने की कोशिश करने लगा।
अचानक से ताज महल होटल के पीछे तीसरे मंजिल पर कोई बार बार खिडकी पर आता जाता दिखाई दिया। एक रिपोर्टर होने की वजह से मैं रुक कर देखने लगा अचानक से एक व्यक्ति खिड़की पर आकर रुका तबतक मैं अपना हैन्डीकैम से शूट करने लगे तभी उस व्यक्ति ने अपनी राइफल से गोली चला दी। राइफल देख कर मैं स्तब्ध रह गया जो होना है वह होकर ही रहेगा यही सोचा। गोली मेरी दाहिने तरफ से तीन से चार फुट की दूरी से जाकर पीछे दीवार में धँस गयी। दीवार के पीछे सुरक्षा में खडे सिक्यूरिटी ने भरपूर खरीखोटी मुझे सुनाई कहा कि इससे हादसा हो सकता है आप लोग क्यों नहीं समझते,मैं उसकी बात मान कर वहाँ से निकल गया। ये पल बिल्कुल मेरे साथ के रहे।

हमले के समय पुलिसवालों और सुरक्षाकर्मियों की मन:स्थिति क्या रही होगी? जनता का दबाव,मीडिया का दबाव,सरकार का दबाव,नेताओं का दबाव,बंधक बनाए गए लोगों के रिश्तेदारों की आंसूओं और इन सबसे ऊपर आतंकवादियों की गोलियों की आशंका...कैसे संभाल रहे होंगे वे लोग, इन सब चीजों को एक साथ...
राजीव रंजन-हकीकत है, उस समय का वो पल सबों के सामने थे। सबसे ज्यादा दबाव सुरक्षा एजेन्सियों के उपर ही था। ज्यादा से ज्यादा लोगों को बचाने की कोशिश थी। लोगों को मारे जाने से और भी उन पर दबाव बढता जा रहा था। साथ ही पुलिस के बडे़-बड़े अधिकारियों के शहीद होने से उनके तो कमांडर ही नहीं रहे, कुछ देर तक ऐसा भी लगा। करकरे, सालस्कर और कामटे जैसे लोगों के नहीं रहने से थोड़ी देर के लिए पुलिस प्रशासन सदमे में आ गया। लेकिन घरों पर लौट गए पुलिस और सुरक्षा एजेन्सियों के जवान भी सादे वर्दी में ही चले आने से एक दूसरे का हौसला बढता गया। उनके ऊपर खुद के रिश्तेदारों की भावनाओं का दबाव भी था लेकिन इन सबों को किनारा करके मुकाबले को तैनात रहे पुलिस और सुरक्षा के लोग।
यहाँ तक एनएसजी भी अपनी साथी संदीप उन्नी कृष्णन और गजेन्द्र सिंह के मौत के बावजूद भी उन्होने हिम्मत ना हारी ना ही कहीं कमजोर पडे। एक दूसरे को संबल देकर भरपूर मुकाबला उन्होंने किया जो कि सलाम करने लायक है।

हमले के दौरान हरेक न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों पर ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव खबर लाने का दबाव था,क्या आपके ऊपर भी इस तरह का कोई दबाव था? ऐसे संवेदनशील मामलों में न्यूज चैनल की इस नीति के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
-जाहिर है खबरिया चैनलों पर दबाव था। क्योंकि जो ये पल थे उन पर हर किसी की नजर थी और हर कोई एक दूसरे से अलग और बढ़-चढ़ कर खबर दिखाने की कोशिश कर रहे थे। मैं भी कुछ देता गया,लेकिन मैं अपने अनुभव से यही सीख ले चुका था कि खबरें बेहद संतुलित हों। जब तक पूरी तरह से इन चीजों को जाँच ना लूँ उस खबर को बेवजह चलाने की कोशिश नहीं करता। मैं जब लाइव और फोनो दे रहा था तो ये जरूर ख्याल रखता था कि ना ही दर्शकों में दहशत फैले और ना ही सुरक्षा एजेन्सियों की कार्यवाही की बारीकी को ही बताता, क्योंकि तब तक ये पता चल चुका था कि आतंकियों का खबरों से फीड बैक मिल रही है।
हाँ जब एनएसजी के कमांडो हेलीकॉप्टर से नरीमन हाउस पहुँचे तो उसे सबसे पहले दिखाना जरुरी समझा और दिखाया क्योंकि आतंकियों को भी ये संदेश मिलता कि अब वो चारों तरफ से घिर चुके हैं। कुछ देर के बाद मैने अपने चैनल के लोगों से भी लाइव ना दिखाने का आग्रह किया, जिसे उन्होने भी स्वीकार भी कर लिया। इन संवेदनशील मामलों में ये जरुर होना चाहिए कि खबरें संतुलित हों, लोगों में ज्यादा दहशत फैलने से सुरक्षा एजेन्सियों पर दबाब ज्यादा हो जाता है जिससे सुरक्षा में लगे लोगों से चूक भी हो सकती है।

भगवान ना करे, ऐसी घटना दुबारा हो, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसे हमले की पुनरावृति होती है, तो ऐसी घटनाओं को कवर करने के दौरान आप नए रिपोर्टरों को क्या संदेश -देना चाहेंगे?
राजीव रंजन-इन परिस्थितियों में हमारे नए सहयोगियों को ये ख्याल रखना चाहिए कि पहले हर चीज की पुष्टि कर लें, फिर उन खबरों को आगे बढाएं। संतुलन बनाए रखें जिससे खबर बिखरे नहीं, सटीक रहे। ज्यादा उत्साह में गलत और दहशत नहीं फैलाने वाले खबरों को बाहर नहीं आने दे, ऐसी कोशिश रहनी चाहिए उनकी।