Sunday, December 27, 2009
धीरे धीरे सब गए...
आप से वादा किया था कि मैं जरुर आपके पास फिर आउँगा। तो लिजिए एक बार फिर आपके सामने मुखातिब हूँ। आपकी और हमारी बात अधूरी रह गयी थी। जी हाँ मैं भूला हुआ नहीं हूँ, आपसे वायदा किया था कि मैं आपको दूसरी कडी सुनाने को। जनाब अब ज्यादा समय नहीं लूँगा हाजिर है दूसरी कडी---
पके आधे बाल मेरे,
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मंद होती,
देख रहा हूँ आ रही,
मेरे दिवस की अवसान बेला।...
ये कहानी यही कहती है कि धीरे धीरे सभी जाएँगे। लोकिन जीतेगा वही जो समय से अपना रण ले हरा दे उसे। लेकिन इसके लिए अद्मय हिमत की जरुरत है उस साहस की जो शायद मुझ से निकल गया है क्योकि जब दिवस का अवसान सामने दिखाई देने लगता है तो हर बात साफ और स्पष्ट दिखनी खुरु हो जाती है। मेरे साथ ये बातें एक एक अक्षर तक साबित हो रही हैं।
मैं कौन....
मैं आप से मुखातिब होता हूँ तो लगता है कि घर आ गया हूँ। सच भी है मेरे पिता जी कि दो बातें आज मुझे कुछ सोंचने पर मजबूर करती हैं। परिवार तो गाँव की मिट्टी से जूडा ही था लिहाजा घर सें सगुण और निर्गुण बंदिशों की भरमार हुआ करती थी दो हैं आप को बताता हूँ।
पहला---- मन फूला- फुला फिरे,
जगत से कैसा नाता रे,
माता कहे कि पुत्र हमारा, बहन कहे वीर मेरा,
भाई कहे ये भुजा हमारी, नारी कहे नर मेरा,
पेट पकड कर माता रोए बाह पकड कर भाई,
लपट झपट कर तिरिया रोए हँस अकेला जाई,
जब लगे जीवा माता रोवे, बहिन रोवे दस मासा,
तेरह दिन तक तिरया रोव, फिर करेघर बासा,
चार गज चरगजी मँगाया, चढे काठ की घोडी,
चारो कोने आग लगाया फूँक दिया जस होरी,
हाड जरे जस जरे लाकजी, केश जरे जस घासा,
सोने जैसी काया जर गयी कोई ना आया पासा,
घर की तिरीया ढूँढन लगी , ढूँढ फिरी चहुँ देशा,
छोडो जग की आशा.....
इसके साथ एक और है वो भी आपके सामने ला रहा हूँ.... लेकिन हकीकत ये है कि जैसे ही पिता जी इसकी शुरुआत करते घर में सन्नाटा छा जाता... सभी चुप हम भी.. । इसके अलावा दूसरी वंदिश जो थी वो है.. उसे लिखूँगा लेकिन इस पर पहले आप लोगों के मन के उद्गार तो जान लूँ....
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