Thursday, November 8, 2012

जंगल जीव दायी.....


सतपुड़ा के घने जंगल। नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल। झाड ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँख मीचे, घास चुप है, कास चुप है मूक शाल, पलाश चुप है। बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल।

ये है समाजवाद...


समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई हाथी से आई, घोड़ा से आई अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद... नोटवा से आई, बोटवा से आई बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद... गाँधी से आई, आँधी से आई टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद... काँगरेस से आई, जनता से आई झंडा से बदली हो आई, समाजवाद... डालर से आई, रूबल से आई देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद... वादा से आई, लबादा से आई जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद... लाठी से आई, गोली से आई लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद... महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद... छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन बखरा बराबर लगाई, समाजवाद... परसों ले आई, बरसों ले आई हरदम अकासे तकाई, समाजवाद... धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई अँखियन पर परदा लगाई समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई