Monday, July 7, 2008
मँहगाई की मार गरीब की हार
हाल फिलहाल की आर्थिक उथल पुथल ने आम जनता की परिस्थितियों को ऐसी जटिल कर दी है कि लगता ही नहीं कि वो कभी भरपेट खाना भी खाते थे। शहर में निकलो तो हर तरफ एक ही चर्चा कि मँहगाई ने कमर तोड़ कर रख दी है। लोग खाने के लिए तरस रहे हैं, अब अच्छे पकवान तो केवल सपनों में ही आने लगे हैं। हर किसी के जुबान पर सरकार के खोखले वादों की चर्चा रहती है, कि कब सरकार अपने इन झूठे वादों से बाज आयेगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है । हमारे जैसे कई लोग सरकार को दोषी ठहराने से बाज़ नहीं आते,या एक अर्थ में आप ये भी कह सकते हैं कि सरकार को उसकी खामियों को दिखा डालते है। सरकार केवल बडे बडे वादे करती है लेकिन कभी भी देश के 60 फिसदी लोगों का ख्याल नहीं रखती है।लगभग 1.5 अरब अबादी वाले देश में गरीबी रेखा से नीचे जीनेवालों की संख्या भी कम नहीं है। अपने अपने साध को साधनेवालों की भी कमी नहीं है हर कोई अपनी ही धुन में रहता है कि कब कोई इस परिस्थिती में पीस जाये और समय की ताक में रहने वाला लाभ उठा जाए, कहा नहीं जा सकता है।सरकार है कि उसे कुर्सी बचाने से ही फुरसत नहीं है। हम और आप मँहगाई मँहगाई चिल्लाते रहे लेकिन सरकार ने इस चिल्लाने पर भी पाबंदी ये कह कर लगा दिया कि ये मँहगाई केवल हमारे ही देश में नहीं है बल्कि सारे देशों मे ये समस्या है जिससे सारा विश्व जूझ रहा है। और तो और ये भी कह गयी कि बढती मँहगाई कुछ दिनों तक और बरकरार रह सकती है। अब भला इसपर कोई सरकार को घेरे तो कैसे। हम और आप केवल अपनी किस्मत को रो सकते हैं कि हमने चुना तो किसे। अगर खास किसी प्रदेश की बात करें तो कोई अपवाद नहीं है हर जगह वही हालत हैं। जनता के रहनुमा अपनी तिजोरी भरने में लगे रहते हैं, अभी एक समस्या निपटी नहीं थी कि दूसरी ने आ घेरा। जहाँ मँहगाई से निपटने के तरीके ढूँढ ही रहे थे कि रही सही कसर बाढ की विभीषीका ने निकाल दी। अब दौर चला बाढ से निपटने की तैयारी होने लगी। सरकारें अपने बजट बनाने लगी कि कैसे इसका फायदा अपने खुद के घर भरने में उठाया जाए। महानगर सहित गाँव देहात के इलाकों में डिजास्टर मनैजमेंन्ट के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। लेकिन जब सही वक्त बचाव के लिए आता है तो तो आसपास कोई नजर नहीं आता है लोग डूबते उतराते हैं लेकिन कोई हाथ आगे नहीं आता है, फिर शायद यही हो कि कोई आगे ना आये और लोग फिर से अपने पुराने परिस्थियों से जूझते रहें।
लेकिन शायद इस बार सरकारी तौर पर खूब मगरमच्छी आँसूओं का सैलाब दिखाई दे, क्योकि चुनाव जो नजदीक है। ताज को हथियाने के होड़ में हर कुछ करने को आतुर ये लोग ये नहीं भूलेंगे कि जनता सब जानती है। लेकिन मेरा मानना है कि जनता की यादाश्त बेहद कमजोर है हरबार अपने साथ किये गये छलावा को भूल जाती है, और जो सामने आता है उसी में अपने दुःखों को दूर करने का सामर्थ्य देखने लगती है। लेकिन हाथ में फिर मिलता है छलावा। जनता कि हालत उस बच्चे जैसी है जो रेत का घरौंदा समुद्र के किनारे बनता है और समुद्र की लहरें उस घरौंदे को मिटा देती है, बालक उसे फिर से बनाने कि लिए जूझता रहता है। लेकिन ये सरकार ऐसा नही करती घरौदा तो तोडती ही है सपने भी तोड़ डालती है सो जनमानष समेट लो अपने बल को कर डालो उपयोग अपने हक का........।
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