Monday, April 18, 2011
अन्त कब होगा....
हमने कभी नहीं सोचा था कि कभी ये भी सोचना होगा कि अब सब कुछ खत्म कर दिया जाए। लेकिन पिछले कई दिनों से या यो कहें कि कई महीनों से लग रहा है कि अब समय आ गया है ये कहने का कि सबकुछ खत्म हो गया है। लेकिन इस उधेडबुन में हूँ कि कहने का तरीका कौन सा अपनाऊ। जल्द ही वो भी रास्ता मिल जाएगा और इसे भली भांति पूरा भी कर दिया जाएगा। लेकिन मैं तो चाहता हूँ कि इस दर्द को तब तक पालू जब तक ये जहर पांव से सीने पर नहीं चढ जाता है। गाहे बगाहे इसे कभी बढाता हूँ तो कभी यथावत रखने की कोशिश करता हूँ हाँ भूल कर भी कम करने की कोशिश नहीं करता हूँ....
यही कोशिश है......
लफ़्ज़ झूठे अदाकारियाँ ख़ूब थीं
हुक़्मरानों की अठखेलियाँ ख़ूब थीं
तूने पिंजरे में दीं मुझको आज़ादियाँ
ज़ीस्त ! तेरी मेहरबानियाँ खूब थीं
धूप के साथ करती रहीं दोस्ती
नासमझ बर्फ़ की सिल्लियाँ खूब थीं
मेरी आँखों के सपने चुराते रहे-
दोस्तों की हुनरमन्दियाँ ख़ूब थीं
बेतकल्लुफ़ कोई भी नहीं था वहाँ
हर किसी में शहरदारियाँ खूब थीं
जून में हमको शीशे के तम्बू मिले
बारिशों में फटी छतरियाँ ख़ूब थीं
हम छुपाते रहे अपने दिल के घाव को
इसलिए क्योकि आपकी हिकारत ख़ूब थीं .
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