Sunday, January 23, 2011

यादें....


मैं कोई अपनी कहानी नहीं लिख रहा हूँ। लेकिन ये बात आज आम होने लगी है क्योकि भाग दौड के जीवन में किसी के पास वक्त नहीं। हर किसी के पास वक्त की मशरुफियत सामने आने लगती है। कुछ लोग अपने आप में ही मशरुफ रहते हैं जिससे दूसरों के तरफ घ्यान ना जाए। पिछले दिनों मैं अपने बचपन बिताए शहर गया। वहाँ आज भी लोग गर्मजोशी से ही मिलते हैं। मुझे लगा शायद यही इंडियानामा की कहानी है जो एक दूसरे को बाँधे रहती है। पूरे बाकये को कुछ पंक्तियों में बाँधने का प्रयास किया.....पता नहीं कर पाया या नहीं.....

अब हर एक नजर से बेचैनी सी लगती है,
अब हर एक डगर कुछ जानी सी लगती है,
बात किया करता है, अब सूनापन मुझसे,
टूट रही हर सांस कहानी सी लगती है,
अब मेरी परछाई तक मुझसे अलग है,
अब तुम चाहे करो घृणा या तिरस्कार मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।