Thursday, April 19, 2018

क्या ख़ता हुई...


मैं हरबार सोचता हूँ कि‌ आखिर क्या ख़ता हुई ,
मुनासिब तो नहीं है आप का ऐसे खफा होना
नहीं हँसना अगर आया तो रोने से ही क्या होना
हजारों लोग हम जैसे सिसकते जो दिलों में ही
बुरा लगता नहीं है अब हमें इतना बुरा होना
अजब लाचार हैं हम, है अजब लाचारियाँ अपनी
किसी भी दर्द का होना नहीं मतलब दवा होना
सितारे रात भर रोते रहे अपने मुकद्दर पर
सरासर धाँधली है आसमाँ में चाँद का होना
हमें तकलीफ आखिर क्या, हमें नाराजगी क्यों हो
रहे छोटे हमेशा जो उन्हें क्यों हो बड़ा होना
नहीं पर्दा है उनके और हमाे बीच में कोई
अलग वे हों को क्योंकर हों, हमें क्यों हो जुदा होना ,!!

अंधेरा अच्छा लगता है


निर्वासन आत्मदाह,
से बेहतर
जीने की प्रबल चाह
ढहते हैं मूल्य अगर, ढहने दे!
ये तब की बातें हैं
जब अंधेरा से,
उजाला श्रेयस्कर ,
रक्त के रिश्ते से
दिल का रिश्ता बेहतर,
अब तो दिल कहता
मन को अंधकार में रहने दे !
अकूलाहट मे
शामिल हो
भीड़-भाड़ में अपने को खोज
मन को रोज  तिरस्कार सहने दे!!

मैं हारा नहीं हूँ


झर गया हूँ
पत्ते से कहता हूँ
पर टूटा तो नहीं हूँ!
टूट गया हूँ
पेड़ से कहता हूँ
पर उखड़ा तो नहीं हूँ!
उखड़ गया हूँ
जड़ से कहता हूँ
पर सूखा तो नहीं हूँ!
सूख गया हूँ
बीज से कहता हूँ
और चुप रहता हूँ!
इस नम अँधेरे में जन्मना है मुझे 
कहता हूँ अपने आप से
इस बार बीज की भांति!!