Sunday, May 8, 2011

मैं कौन हूँ....


मैं कौन हूँ....
एक सवाल बराबर मुझे कौधता रहता है कि आखिर मैं हूँ कौन। कई बार मैं अपने आप से कहता हूँ कि मैं ही ब्रह्म हूँ, लेकिन ये कहने के पीछे मेरा तर्क है कि मैं अपने आप को हर किसी के समाप मानता हूँ, इसलिए ये मेरा विचार है। मुझे लगता था कि जिस तरह से मैं लोगों को भूल नहीं पाता हूँ, लोग भी शायद मुझे भूल नहीं पाते होंगे। लेकिन मैं गलत हूँ । इस बात का अहसास आज मुझे हो गया। वास्व में लोगों ने कभी मुझे याद ही नहीं रखा था तो भूलना तो स्वाभिक था ही। हर बार दोष मेरे उपर आया कि मैं अपने अहम में रहता हूँ, और किसी का सम्मान नहीं करता हूँ । ये आरोप सरासर गलत है इसे तो आजन्म मैं नकारता रहूँगा। खैर अपनी बातों को और आगे नहीं बढाउँगा क्योकि ये इन्डियानामा है ना कि मेरा खुद का वृतांत चलिए आपको एक कविता नज़र करुँ.....
इतने आरोप न थोपो
मन बागी हो जाए
मन बागी हो जाए,
वैरागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो...
यदि बांच सको तो बांचो
मेरे अंतस की पीड़ा
जीवन हो गया तरंग रहित
बस पाषाणी क्रीडा
मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर
जब अकुलाती है
शब्दों की लहर लहर लहराकर
तपन बुझाती है
ये चिनगारी फिर से न मचलकर
आगी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!
खुद खाते हो पर औरों पर
आरोप लगाते हो
सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
संग बिक जाते हो
आरोपों की जीवन में जब-जब
हद हो जाती है
परिचय की गांठ पिघलकर
आंसू बन जाती है
नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब
बैरागी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!
आरोपों की विपरीत दिशा में
चलना मुझे सुहाता
सपने में भी है बिना रीढ़ का
मीत न मुझको भाता
आरोपों का विष पीकर ही तो
मीरा घर से निकली
लेखनी निराला की आरोपी
गरल पान कर मचली
ये दग्ध हृदय वेदनापथी का
सहभागी हो जाए
मन बागी हो जाए.......