Tuesday, December 15, 2009

याद जिसे भूल ना सकूँ......

मैने तो कभी सोचा ही नहीं था कि मेरे साथ भी कभी ऐसा कुछ होगा कि इतनी बेताबी होगी किसी के याद में लेकिन हकीकत है। माँ की याद तो उस जाडे के दिनों में चुल्हे के पास बैठ कर खाना खाने से लेकर के उस हर कठिन परिस्थिती में याद आती है जब लगता है कि जीवन अब समाप्त हो गया। लेकिन माँ उस समय उभरती है एक संबल और ढाल की तरह जिससे लगता है कि अब हर मुश्किल आसान हो जाएगा, सच मानिए हो भी जाता है। लेकिन मुझे कभी ये नहीं याद आता है कि माँ ने मुझे कभी भूला हो। माँ ने तो अपने शरीर से कभी अलग किया ही नहीं। माँ के चेहरे पर खुशी तब आती है जब अपने सामने मुझे देखती हैं। मैं माँ से इतना दूर रह रहा हूँ कि वो खुशी भी नहीं दे पा रहा हूँ। एक बार फिर मौका मिला माँ से मिलने का कुछ समय बिताने का। दिल हर खुशी अपने आप में समा लेने को बेताब था, लेकिन कई बातें इस खुशी को समा लेने में कठिनाई पैदा करने रही थी। कोई कहता था कि मुझे समय नहीं दिया, तो कोई कहता कि उसे नजरअंदाज कर रहा हूँ। लेकिन मेरे मन में खुद ही चोर लग रहा था कि मैं ही भाग रहा हूँ, अपनी जिम्मेदारी के साथ-साथ उस आँचल को छोड कर जिसे आज मेरी जरुरत है । शायद मैं स्वार्थी और कमजोर हो गया हूँ, संबल तो कोई नहीं देता । अब तो खुद का संबल खुद ही बनना होगा जिससे कभी भी मुँह ना छुपाना पडे।

क्या शराब पीना इतना जरुरी है.....


इतने अर्से के बाद आप लोगों से मुखातिब होना और सीधा यही सवाल उछाल देना अपने आप में कुछ अजीब सा लगता है। लेकिन ये मेरी मजबूरी कहें या यो कहें कि जब मैं किसी उधेड़बुन में होता हूँ तो आप सबों से चर्चा करने बैठ जाता हूँ। इससे मैं अपने आप को आप के करीब मानता हूँ। पहले विस्तार से वाकया की चर्चा आपसे कर दूँ। पिछले दिनों बिहार की कई शादियों और कुछ उत्सवों में जाने का मौका मिला। हर जगह ढोल नगाडो की थाप और फिल्मी गीतों की धुन पर नाचते युवा, ये तो आम बात थी। लेकिन हर पंद्रह मिनट के बाद लोगों का एक दूसरे का चेहरा तकना और पूछना कि व्यवस्था क्या है ? मुझे कुछ अटपटा सा लगा।अपने दिमाग को काफी दौडाया, व्यवस्थाएँ तो मैं अपने आँखो के सामने देख ही रहा था अब और कौन सी व्यवस्था की बात लोग कर रहे हैं। पूरे नाचते लोगों के साथ-साथ चलता गया लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। अचानक नजर मेरी नाचते लोगों के पीछे-पीछे चलती गाडी पर पडी। गाडी में नाच कर थकते लोग शराब के दौर से अपनी थकान मिटा रहे थे। हर बार यही कह रहे थे कि व्यवस्था मस्त है। समझ में आया कि व्यवस्था मतलब शराब का छलकता दौर।
ये माजरा एक विवाह और समारोह का नहीं हर समारोह में यही नजारा। लगता था कि शराब ही सबसे अहम है। जिसमें पूजा भले हो या ना कोई फर्क नहीं पडता लेकिन शराब तो सबसे पहले ही होना चाहिए। जैसे शराब न होकर चर्णार्मित हो । मैं अपने जीवन में इस तरह का माहौल तो पहली बार देखा, देख कर सकते में आ गया। हर बार देख कर लगा कि क्या जरुरी है शराब पीना ?जिसके आगे सारी बातें गौण हो जाती हैं। अपने, अपने ही लोगों में दोष देखने लगते हैं। इन सारी बातों को सही ठहरानेवाले कहते हैं कि समाज है तो करना बेहद जरुरी है। साथ में यह भी कहते हैं कि अगर आप लोगों को शराब नहीं पिलाएगे तो लोग आपके यहाँ आएँगे ही नहीं।अगर ऐसा है तो उनलोगों को बुलाने की क्या आवश्यकता। जो बगैर शराब के तल भी नहीं सकते। अब ये कौन सा समाज है जिसमें शराब पीना जरुरी है, ऐसा भी नहीं कि पिता पुत्र एक साथ जाम से जाम टकराते हैं, यहाँ महिलाएँ तो शराब को छूती भी नहीं लेकिन अपने आप को समाजिक और व्यवहारिक कहनेवाले लोग कहते हैं कि यही जरुरी है बाकी हो या ना हो। यहाँ तक कि घरवाले भी उन पीने पिलाने वाले लोगों के सामने सबसे छोटे नजर आने लगते हैं। खुशी हो तो खुशी के नाम पर पिलाने का रिवाज गम है तो गम के नाम पर पिलाने का रिवाज बन गया है। फर्क नहीं पडता बस केवल पीने पिलाने से ही मतलब है। अब मेरा सीधा सवाल आप से है क्या किसी भी समारोह में मदिरा इतना जरुरी हो गया कि उसके बिना सभी अपाहिज हो गये हैं। अपने आप को बडा दिखाने का यह झूठी शानो शौकत आखिर कब तक चलती रहेगी। ये समाज का पतन है या उस व्यक्ति का डर कि अगर हमने समाज के सामने नतमस्क नहीं हुआ तो यह तथाकथित समाज हमें कुचल देगा। जिसके सामने हाथ बाँधे रहना उनकी मजबूरी है। थोडा आप भी अपने विचार बताइए.....।

दर्द बाँटने से कम होता है लेकिन किससे.....


एक दर्द है जिसे मुझे बाँटने का मन करता है लेकिन समझ में नहीं आता है कि किसके साथ बाटू। ले देकर के आप को ही बोर करने का साहस करता हूँ। आप आगे बढने से पहले जरूर पूछेगें कि आखिर है क्या जिससे ऐसी दर्द उपज गयी। तो भाई इस दर्द का रिश्ता दिल दिमाग दोनों से है, या यूँ कहें कि शुरुआत दिल से होकर अब दिमाग पर पूरी तरह हावी हो गया है। हुआ यूँ कि शहर शहर भटकने के बाद मुम्बई तो मैं आ गया लेकिन शहर मुझे किसी तरह से पसंद नहीं था। लेकिन दोस्त मिलते गये धीरे-धीरे मन लगता गया। अब तो हालत ये है कि कहीं बाहर जाता हूँ तो जल्द वापस लौटने का मन करने लगता है। लोग भले कुछ कहें लेकिन यहाँ के विशाल समुद्र में हर कुछ समा जाता है। लेकिन इस समुद्र ने भी मेरा दर्द सुनने और अपने में समाने से इन्कार कर दिया। आखिर खुद का दर्द है तो निपटना भी खुद ही होगा।
दर्द है, मानव का मानव पर विश्वास का उठ जाना। मैं मानता हूँ कि हरे कोई एक समान है। कोई जाति हो, धर्म हो, या कोई भाषा-भाषी मैं अलग नहीं मानता। लेकिन मुम्बई में आकर लगा भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोग एक दूसरे को अलग समझते हैं ,अब इस दर्द को कहूँ तो किससे। मुझे लगा कि यह महानगर है और लोगों की सोच छोटी कैसी। पता चला कि राजनीति को चमकाने के लिए लोग एक दूसरे के खिलाफ ही भडकाने लगे जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को वो बाँट सके। रही सही कसर आपसी जलन पूरी कर देती है कि लोग एक दूसरे से नफरत करने लगते हैं। रही बात मुम्बई तो मुझे नहीं लगता कि कभी भी इसका मिज़ाज ऐसा रहा है। लोगों के विचारों को और भी आगे बढाने वाले लोग यहाँ रहते हैं खास कर के फिल्म से जुडे लोग यहाँ हैं तो नहीं लगता कि इस दर्द की पौध यहाँ ज्यादा दिनों तक रह सकेगी।
राजनेताओं की राजनीति से लोग भी सकते में आ जाते हैं कि कल तक एक दूसरे के करीब रहने वाले लोग अचानक से दूर कैसे हो गये। लगता है कि यही बटवारा की राजनीति है। हम और आप लडते रहें और राजनेता अपने पैसे को बढाने में मस्त रहे। यही तो वो भी चाहते हैं कि उनकी नाकामी पर भी पर्दा पडा रहे कोई उनके ओर उँगली भी ना उठा पाए। अगर वक्त रहते हम संभल पाए तो ठीक ना तो रही सही मेल मिलाप का एक सिलसिला भी जाएगा। एक दूसरे के दुश्मन ही सामने नजर आएँगे कोई भी एक दूसरे का चेहरा भी नहीं देखेगा। अगर इस दर्द को मैं आपके सामने रखूँ तो हो सकतो है कि आप भी यही कहेंगे कि ये दर्द तो मेरा है। इस दर्द से हम सब कमोबेश पीडित हैं इस दर्द को आप और हम देख रहें हैं जो देखते हुए भी नहीं देखना ताहतें उसे हम राजनेता कहते हैं। जिस हम ही चुनकर अपना प्रतिनिधित्व देते देश चलाने के लिए। इनके झाँसे से आपको भी निकलना होगा और हमें भी नहीं तो कहीं हम आज़ाद भरत के गुलाम ना बन जाएँ... सवाल वहीं है कि इस दर्द को बाँटे तो किससे.. जो गुलाम बनाने को उतारु है उससे या उससे जिसे अभी ये दर्द दवा लगती है लेकिन वो भी बँटवारे की राजनीति का शिकार होगा और उसे भी यह दर्द उपहार में मिलेगा........।