Tuesday, May 31, 2011

मेरी आदमीयत....


जमाना बदल रहा है, लोग विश्वास का दिखावा कर रहे हैं और पीठ पीछे धोखा कर रहे हैं। इसी विश्वास के नाम पर की जाने वाली ठगी का शिकार मैं भी हूँ।मेरे अपने और पुराने शहर में ही मेरे साथ छल किया गया। इस बदले ज़माने में ये बात मैं अब आम मानता हूँ। मुझे लगता है कि लोगों कि महत्वाकांक्षाएँ ही इतनी ज्यादा हैं कि किसी पर तोहमत लगा कर आगे बढने में कोई हिचकिचाहट नहीं है। अगर बस चले तो स्वार्थ के लिए दूसरे की हत्या करवाने से भी गुरेज नहीं कर सकते हैं। लेकिन ये खुद के जज्बें हैं कि इस वार को भी झेल कर अपना संतुलन नहीं खोता हूँ। अगर इन्हें शब्दों में बाँधे तो कुछ इस तरह निकल कर आ सकता है।

विश्वास की हथेली पर रखा गया धोखा
आत्मीयता के हवाले किया गया छल
फिर भी ज़िन्दा रहा आदमी की तरह,
बार-बार धोखे और छल से गुज़रकर।
ढकेला गया पहाड़ से नीचे बार-बार
बार-बार आग में डाला गया ज़िन्दा
डाला गया बार-बार समुद्र के तल में
निकला फिर भी सही और साबित
बचा रहा--- बचा रहा आदमीयत फिर भी।