Monday, November 21, 2011

देर लगी लेकिन निकल ही आया........,


शायद आप शीर्षक को देखकर कयास लगाते रहे लेकिन, हकीकत है कि आज मैं भूल गया वो सारी बातें जो मेरे साथ छल से किया गया था। मैं अब पूरे मानसिकतौर पर सर्मपित हूँ अपने कार्य के प्रति। लेकिन पिछले तीन सालों में जो मैंने झेला शायद ही कोई उसकी वेदना समझ पाएगा। खैर कोई बात नहीं आज से लगभग 40 साल पहले लिखी गई बातें मुझे सच जान पड रही हैं। वो बातें हैं.---
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
इन्हें मैं बेहद नजदीक से देखता गया। तभी तो आज उबर सका अपनी उस नकारात्मक सोच से। मई महीने के बाद से अब तक गंगा में पता नहीं कितनी धाराओं ने अपनी मंजिल पा ली होगी। लेकिन मैं अपने पुराने विचारों को छे ही रहा था। मैं अपने उपर ब्रेक लगा चुका था। लेकिन अब नहीं जब प्रकृति भी बदलती है तो मैं क्य़ो भला एक ही विचार में बराबर रहूँ ,लिहाजा आज मैं अपने आर को बदल चुका हूँ,नई परिस्थिती के मुताबिक अपने आप को ढाल चुका हूँ।
चलो शुरुआत करता हूँ अपने पिछले काम से ही देश भर घूमता रहा तब जाकर खुद का सांत्वना मिली। अपने आप को तलाश पाया कि आखिर हम कहाँ हैं और किन हकीकतों से हमें रुबरु होना है। साथ दिया हमारे मित्रों ने बाहर निकाल उस अवसाद की कोठरी से जिसने मुझे रखा था। साथ में भ्रष्टाचार के खिलाफ सडे हुए अन्ना हजारे की मुहिम को भी नजदीक से देखने को मौका मिला। उससे भान हुआ कि भ्रष्टाचार केवल सरकारी ऑफिस और बडे स्तरों पर नहीं, बल्कि घरेलू स्तर पर भी है। इसके खिलाफ उठ रहे हर आवाज़ को बलंद करना होगा तभी तो इसे मिटाने में कामयाबी मिल सकती है। मैने बेहद नजदीक से देखा कि आखिर लोग अन्ना हजारे को वली क्यों मानते हैं। मेरा खुद का मानना है कि अगर तर्क के आधार पर भी आप देखे तो एक अकेला आदमी ने खुद के लिए ना करके समाज के लिए बेहद काम किया है जो काबिले तारीफ है । जब मैं दूर सूदूर तक जाकर देखा कि आखिर प्रगति के पीथे और कौन कौन से कदम हो सकते हैं जो समाज सहित खुद मानस को भी आगे बढाए, मुझे तो यही समझ में आया कि अगर प्रयास सही दिशा में और अनवरत हो तो जैसे जल की शक्ति को बिजली में तब्दील करते हैं उसी तरह मानव शक्ति को प्रगति में तब्दील कर सकते हैं। साफ यही पंक्तियाँ हैं.....
इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ,
मुफ़लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ,
जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ,
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ,
कंदील समझ कर कोई सर काट न ले जाए,
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ।

Sunday, June 19, 2011

सरकार की चुप्पी वो भी पत्रकारों के प्रति....


महाराष्ट्र सरकार पता नहीं क्यों चुप्पी साधे हुए है, सरेआम पत्रकार की हत्या होती है और कार्यवाही के नाम पर मजह लोगों से पूछताछ भर। लगभग दो सप्ताह गुजरने के बाद भी सरकार के तरफ से ठोस कार्यवाही सामने नहीं आ रही है। हर तरफ एक सन्नाटा ही पसरा हुआ है। इस सन्नाटे के पीछे भी अब कुछ ऐसी अवाज़ें उठनी लगी हैं जिन्हें जानकर लगता है कि आखिर आपसी गुटबाज़ी से लोग कब उपर उठेंगें। अपराध की रिपोर्टिंग करते थे जेडे, लेकिन कब अपराधियों के निशाने पर आ गए शायद उनको खुद भी पता नहीं था। समाज में हो रहे अपराध के बारें सरकार को बताना हम पत्रकारों का धर्म है,जिसके बदले में हम चाहते हैं सरकार इन अपराधियों पर नकेल कसे और आम शहरी को रहने का स्वस्थ सुन्दर माहौल दे। लेकिन यहाँ तो उल्टा ही हो रहा है, ना तो सरकार नकेल कसती है और ना ही आम शहरी अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहा है। आफत उन पत्रकारों पर मौत के रुप में गिरती है, सरकार इस पर व्यक्तिगत दुश्मनी का नाम देकर मामले को किसी कोने में दफ़न कर दे रही है। देर सबेर शायद जेडे के मामले में भी यही बात सुनने को मिले। लेकिन मैं अपने उन वरिष्ठ भाइयों से सवाल करता हूँ कि क्या उनकी चेतना कभी नहीं जगती कि आखिर सरकार के इस रवैये पर रोक लगाई जाए। सरकार की इस मंशा पर से सच्चाई का पर्दा उठाया जाए। ये सवाल केवल मेरा नहीं है, मेरे जैसे लाखों हजारों उन लोगों का है जो अब देख चुके हैं कि सरकार की साठगांठ किन लोगों से है। हर वो आम शहरी अब जानता है कि पिछले कई सालों में सत्ता में रहने वाले लोगों ने किन किन राहें से पैसे कमाए। जिसे उजागर करने में कितने ही जेडे जैसे लोग कुर्बान हो गए।
मुझे मुंबई आए हुए लगभग 15 साल तो हो ही गए लेकिन मैं सरकार कि इस तरह की निरंकुशता कभी नहीं देखी। ना तो अपराधियों को पकडती है और ना ही अपनी अक्षमता ही जाहिर करती है। जबकि मुंबई पुलिस की तुलना स्कॉटलैन्ड पुलिस से की जाती रही है। मुझे तो कहना नहीं चाहिए लेकिन लगता है कि मुंबई पुलिस को भी जंग लग गई है। उनके धमनियों में बहने वाला खून अब आम आदमी के बारे में नहीं सोंचता केवल राजनेताओं की चौकीदारी करने में ही उन्हे शायद गर्व महसूस होता है। यही लगभग दो साल पहले जब पाकिस्तानी आतंकी मुंबई पर हमला किए तो मुंबई पुलिस के जवानों ने अपनी लाश बिछा दी क्योकि उनके पास आतंकियों से लडने के साधन नहीं थे। तुकाराम ओम्बले के नाम से आप सभी परिचित होंगे एक साधारण से सिपाही ने कसाब की गोलियाँ खाकर भी निहत्थे ही उसी जकडे रहा, उस कसाब को हम आज मेहमान की तरह पाल रहे हैं।
खैर कसाब तो पाकिस्तान के जरिए आतंक फैलाने के मकसद से ही आया था, लेकिन क्या देश को खोखला करने वाले हमारे दुश्मन नही है। करोडों की अबादी वाले देश में क्या सरकार के इस निरंकुशता का कोई हल नहीं है। मैं पूछता हूँ कि, आम जनता कि लडाई हम लडते हैं तो आम जनता जेडे की हत्या पर क्यों चुप बैठी है। शायद हमें ही इस लडाई को आम जनता के बीच ले जाना होगा जिससे कोई और दूसरा पत्रकार इन दानवों की भेंट ना चढे। महज सांत्वना और श्रद्धांजली भर से काम नहीं चलेगा, सरकार से जवाब भी मांगना होगा.. मित्रो मेरी गुज़ारिश है कि हम अपने ही साथी के बलिदान को बर्बाद ना होने दें कलम की ताकत किसी तोप की ताकत से कम नहीं..... निराला जी कि कुछ पंक्तियाँ हैं जो सटीक बैठती हैं...
सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,
हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न,
अन्तिम आशा के कानों में
स्पन्दित हम - सबके प्राणों में
अपने उर की तप्त व्यथाएँ,
क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ
कह जाते हो
और जगत की ओर ताककर

Sunday, June 5, 2011

क्या यही लोकतंत्र है....


मैं कभी भी बाबा रामदेव का अंध भक्त नहीं रहा। लेकिन अगर तर्क के साथ पूरे वाकये को देखें तो बडा ही अजीब लगता है, कि क्या भारतीय सरकार एक साधारण से संत से डर गई है। कपिल सिब्बल के जरिए बाबा का करार नामा दिखाना तो कम से कम यही लगता है कि सरकार डर गई थी। जिसके बदले में पहले ही सोची समझी नीति के तहत रामदेव से सहमति पत्र लिखवाया गया । इस सहमती पत्र के बदौलत ही तो कांग्रेस सरकार ने रामदेव पर छीटा कसी की । अपनी छवि को धुमिल होता देख बाबा भी अपने रौद्र रुप को दिखाने में नहीं हिचके भले ही उन्हें खुद और उनके समर्थकों को लात घूसों का प्रहार झेलना पडा हो।
लेकिन सोचिए जरा कि आखिर रामदेव इस झमेले में कैसे पडे। बात दुरुस्त है कि कहावता है कि ताकत उसी के पास है जो या तो सत्ता में है या सत्ता के बेहद करीब। रामदेव भी ताकत चाहते थे शायद। लेकिन एक बात और कडवी सच्चाई है कि अगर ताकत चाहिए थी तो केवल योग ज्ञान से भी ताकत और पैसा कमा सकते थे। क्या जरुरत थी सरकार से उलझने की। कहीं ना कहीं तो जरुर भारते के प्रति दर्द है जो सालता रहा और इस रुप में सामने आया।
कई सवाल मेरे मन में उठते हैं आखिर कौन सी बात सरकार का खलने लगी जिससे बेसहारा और कमजोर महिलाओं पर लाठियों का प्रहार किया गया। युवा तो युवा बच्चों और बुजुर्गों को भी नहीं छोडा पुलिस ने।पुलिस और सरकार के दमन चक्र में सबको डाल कर पिस दिया गया, जैसे दिल्ली के रामलीला मैदान में जमा लोग इन्सान ना होकर जानवर से भी बदतर हैं। उनके साथ किए गए सलुक ऐसे कि लोकतंत्र भी शर्मशार होने लगे.... अभी बस इतना जल्द ही जल्द ही हमारी और आपकी पूरी बहस चालू होगी ।

Tuesday, May 31, 2011

मेरी आदमीयत....


जमाना बदल रहा है, लोग विश्वास का दिखावा कर रहे हैं और पीठ पीछे धोखा कर रहे हैं। इसी विश्वास के नाम पर की जाने वाली ठगी का शिकार मैं भी हूँ।मेरे अपने और पुराने शहर में ही मेरे साथ छल किया गया। इस बदले ज़माने में ये बात मैं अब आम मानता हूँ। मुझे लगता है कि लोगों कि महत्वाकांक्षाएँ ही इतनी ज्यादा हैं कि किसी पर तोहमत लगा कर आगे बढने में कोई हिचकिचाहट नहीं है। अगर बस चले तो स्वार्थ के लिए दूसरे की हत्या करवाने से भी गुरेज नहीं कर सकते हैं। लेकिन ये खुद के जज्बें हैं कि इस वार को भी झेल कर अपना संतुलन नहीं खोता हूँ। अगर इन्हें शब्दों में बाँधे तो कुछ इस तरह निकल कर आ सकता है।

विश्वास की हथेली पर रखा गया धोखा
आत्मीयता के हवाले किया गया छल
फिर भी ज़िन्दा रहा आदमी की तरह,
बार-बार धोखे और छल से गुज़रकर।
ढकेला गया पहाड़ से नीचे बार-बार
बार-बार आग में डाला गया ज़िन्दा
डाला गया बार-बार समुद्र के तल में
निकला फिर भी सही और साबित
बचा रहा--- बचा रहा आदमीयत फिर भी।

Tuesday, May 17, 2011

मोहसिन कौन...


आज ज्यादा लिखने का ना तो मन कर रहा है और ना ही फुरसत ही है। डॉक्टर के पास जाना है , पिछले कई दिनों से उलझन में था, उससे निकले के कोशिश कर रहा हूँ। इस उलझन में मैं जब जब अनयास बैठा रहता हूँ, उस समय कई विचार घेरते रहते हैं। कई बार तो सोंचते सोंचते मन कई दिशाओं में घूमने लगता है जिसे देखकर जीवन से ही विरक्ति होने लगती है। लेकिन मेरी विरक्ति से किसी को फायदा भी जरुर होता है... मेरी इस अवस्था पर वो बेहद जश्न भी मनाते हैं....।फिर भी आपका साथ है जिससे एक बार फिर बिखरने से पहले ही जुड जाता हूँ और यायावरी शुरु हो जाती है....


देख कर आवाम यही कहता,
हर बार ही रहता कहीं ख्वाबों में,
तो कहीं किसी का मुन्तजिर रहता हूँ,
मैं कहता हूँ कि मैं कोई मोहसिन नहीं
मसलक को ख़्याल कर चलता हूँ,
और ये कवायद बेज़ा नहीं मेरे मुन्सिफ
अपने आप को भूलने की,
कोशिश हर बार करता हूँ।

Monday, May 16, 2011

अँधेरे से मुकाबला जारी...


अगर कोई जबरदस्ती कहे कि मैं आपका ही हूँ, और आपने मुझे छोड दिया है। तो ये बातें उसी तरह लगती हैं जैसे सोनिया गाँधी से नरेन्द्र मोदी कहे कि मैं तो कांग्रेस का ही हूँ और आपने मुझे छोड दिया है। जो खुलेआम आपकी इज्जत की धज्जियाँ उडा दे,सरेआम आपको गालियों से सराबोर कर दे वही आप से कहे कि मैने तो कुछ किया ही नहीं तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। मेरे साथ ये कई बार से हो रहा है, हर बार आरोप पर आरोप ही लग रहे हैं। चलो इसे भी सहते हैं। कहते हैं कि हमारे इसी भारत वर्ष में कृष्ण और शिशुपाल भी हुए थे। कृष्ण ने वचन दे रखा था कि एक लगातार शिशुपाल 100 गलतियाँ लगातार करेगा तभी उसे सजा देगें वरना नहीं। लेकिन गलतियाँ पूरी होने के बाद शिशुपाल मारा भी गया। मैं ना तो कृष्ण हूँ ना ही कभी कोई ऐसा व्यवहार करने की तमन्ना रखता हूँ। लेकिन हाँ ये जरुर है कि हिसाब किताब जरुर रख रहा हूँ। क्या पता कभी इंडियानामा में कुछ नया लिखने को मिल जाए आज कल मैं इंडियानामा में समाज के उस स्वरुप को दिखाने की कोशिश कर रहा हूँ, जो सीधा लोगों से जुडा है। उस कडी में मैं रहूँ या कोई और रहे। लेकिन हकीकत यही है कि बदलते दौर में बगैर अपनी गलतियों को देखते हुए आरोप लगाना आसान हो गया है। मैं मानता हूँ अगर मैं किसी पर आरोप लगा रहा हूँ तो कम से कम आचरण तो ऐसा करुँगा कि मुझे दोषी नहीं ठहराया जा सके। लेकिन ऐसा नहीं है। पिछले ब्लॉग में मैने लिखा ही है कि पंडित सोई जो गाल बजावा अक्षरस: सही है। हल्ला मचाओ किसी की सूनो नहीं अपनी मन गढंत बातें घूम-घूम कर कहो हर तरह का क्षद्म उपयोग में लाओ जिससे लोग तुम्हारी झूठी बातों को भी सच मानने लगे। यही है आज कल अपने आप को काबिल साबित करने के तरीके।
अब लिजिए ना पिछले ही दिन बंगाल सहित बाकी राज्यों में चुनाव हुए। उन चुनावों में क्या जीत कर आने वाले दूध के धुले हुए, हैं मेरे ख्याल से तो बिल्कुल नहीं। ममता बनर्जी हो जयललिता दोनों ही अपने लोगों के सामने जाहिर किए गए उसूल से विपरीत हैं। 1991 में जयललिता के यहाँ गए जाँच दल ने गहने कपडे सहित पैसे और मँहगी साडियों के खान को ही सामने लाया। वहीं ममता बनर्जी तो कहतीं कि वो हवाई चप्पल और सूती साडी ही पहनी हैं, लेकिन चुनाव के दौरान प्राइवेट जेट और हैलीकॉप्टर की सेवा लेने में हिचकी तक नहीं। आखिर पार्टी के पास इतना पैसा आया कहा से। इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
ये बडे लोग और राजनेता हैं किसी आम इन्सान के बारे में बात करें। मेरा एक मित्र है जो आजकल अपने परिवार से अलगा एकाकी रह रहा है उसके मुताबिक उसके परिवार के सदस्य उसका साथ इसलिए छोड दिया क्योकि वो गलत है। लेकिन मैने जिस तरह के साक्ष्य और सबूत देखे उसमें यही लगता है कि गलत वो नहीं ब्लकि उसके परिवारवाले हैं। लेकिन लोगों ने उसके बारे घूम घूम कर ऐसा कुप्रचार किया जिससे कई बार तो उसके हिम्मत टूटते हुए मैने देखा। फिर मैने उसे ढाढस बँधाया और कहा कि मानव हो कभी भी हिम्मत नहीं हारो । ये तुम जानते हो और तुम्हारा ईश्वर जानता है कि तुम कितने सच्चे हो, इसलिए कभी ये मत सोचो कि इन्साफ नहीं मिलेगा। जरुर मिलेगा ये तो तुम्हारी परीक्षा की घडी है कि तुम विकट परिस्थितियों में कैसा आचरण रख रहे हो। कुछ दिनों के बाद धीरे धीरे जीवन सामान्य होने की कगार की तरफ बढने लगा।
इस बात से मुथे यही कहना है कि कष्ट उसे बहुत हुआ क्योकि गलत बाते उसे ना तो जीने देती थी और ना ही मरने क्योकि कलंक लेकर ना तो जीया जा सकता है और ना ही मरा। ईश्वर दुशमन को भी इस परिस्थिती में ना जाले। लेकिन सामनेवाले बडे चैन से जीवने के मजे जी रहे थे। मुझे तो लगता है कि ऐसे आरोप लगाने वाले और आरचरण करने वालों के पीछे कोई ऐसी मानसिकता होती होगी जिससे उनके अहं की संतुष्टी मिलती होगी कि हाँ वो श्रेष्ठ हैं। मैं तो केवल यही कहूँगा......
पी जा हर अपमान और कुछ चारा भी तो नहीं !
तूने स्वाभीमान से जीना चाहा यही ग़लत था
कहाँ पक्ष में तेरे किसी समझ वाले का मत था
केवल तेरे ही अधरों पर कड़वा स्वाद नहीं है
सबके अहंकार टूटे हैं,वो अपवाद नहीं है
ग़लत परिस्थिति ग़लत समय में ग़लत देश में होकर
क्या कर लेगा तू अपने हाथों में कील चुभोकर
चाहे लाख बार सिर पटको दर्द नहीं कम होगा
नहीं आज ही, कल भी जीने का यह ही क्रम होगा
माथे से हर शिकन पोंछ दे, आँखों से हर आँसू
पूरी बाज़ी देख अभी तू हारा भी तो नहीं।

Sunday, May 15, 2011

अभिमान...


कुपथ कुपथ जो रथ दौडाता पथ निर्देशक वह है, लाज लजाती जिसकी कृति से नीति उपदेशक वह है....। ये बातें मैंने बचपन में ही सुनी थी। लेकिन अनयास आज याद आ गया। दरअसल अपने ही इमेल को देखते देखते कई बातें ऐसी देखी, जिसे देखकर पहले तो हँसी आई, फिर सोचा चलो लोगों का मन है जुबान है मीटर तो लगा है नहीं जो मन में आए दूसरे पर थोप दिया। चलो अच्छा ही है जिसको जो मर्जी कह ले, किसने रोका है। आरोप ही लगाने है कोई इसके बारे में पूछता थोडे ही ना। एक कहावत और भी है---पंडित सोई जो गाल बजाए...।स्पष्ट है कि लोग ज्ञानी उसी को मानते हैं जो अपनी बात मनवाने को लिए हर तरकीब का इस्तेमाल करे। अपनी बातों को सही साबित करने लिए भले किसी और पर लांक्षन ही क्यों ना लगाने पडे पीछे नहीं हटेंगे। ये भारत वर्ष है लोग हकीकत थोडे ही ना जानने की कोशिश करते हैं, आइने के आगे के चेहरे को देखते हैं,आइने के पीछे छुपे चेहरे को देख ही नहीं पाते हैं। ना ही उस चेहरे के पीछे की मानसिकता को समझ पाते हैं। मैं बेहद मुश्किल से उस चेहरे को देखा, देखते ही अचंभिक हुआ और थोडा सहमा भी आखिर कोई ऐसा भी हो सकता है क्या। मैं अपने आप को ऐसा अनुभवी नहीं मानता हूँ कि हर बारीकियों को समझ सकूँ, लेकिन कहते हैं-आवश्यकता पडने पर ही आविष्कार होता है। मेरे साथ ये शब्दश: चरितार्थ होता है। पिछले एक साल की अवधि ने कई बार ये अनुभव दिलाए कि जिससे आज मैं ये कह सकूँ कि – "हाँ मैं छला गया"। मेरा मन तो पहले यही किया कि सच्चाई दिखा दूँ लेकिन मेरे खुद के संस्कार ने ऐसा करने से रोका, सोचा यही कि –कीचड में जाने पर खुद अपने ही पैरों में कीचड लगते हैं..। मैने ना तो पलट कर कुछ जवाब ही दिया और ना ही अपनी बात को ही रखी लोग समझते गए कि मैं गलत हूं, लेकिन जो बातें और हकीकत मेरे सामने आई पूरे कुनबे को देखकर और भी हँसी आई कि लोपुलता किसी को इतना भी घेर सकता है कि सच्चाई जानते हुए भी सच्चाई से मुँह मोडे और ये कहे कि ये तो मेरी मजबूरी है। खैर जो भी हो लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में तो बेहद सही है। एक बात और है जब लोग सच्चाई जानते हुए भी सच्चाई से आनजान बनते हैं तो उसे-धृटराष्ट्र मोह की संज्ञा देते हैं। इसके जरिए यही साबित होता है कि उनका सोना सोना है दूसरे का खरा सोना भी पीतल। हर बार धृटराष्ट्र मोह से ग्रसित लोग अपने ही आँगन के नीम को कल्पतरु कहते हैं। मैने कभी भी किसी को ऐसा सोंचने का मौका नहीं दिया, हर किसी को बराबर मौका दिया। ना तो मैं कभी याचक रहा हूँ, ना ही कभी किसी से कोई उम्मीद ही बाँधी है। क्योकि मेरे ही बुजर्गों ने मुझे सीख दी है कि –अपनी भुजा की ताकत पर विश्वास करो। आज शहर दर शहर आने जाने पर भी अपनी भुजा की ताकत के बदौलत ही अपनी पहचान और जगह बनाई है। भले ही इसके लिए कोई घमंड कहे या कुछ और। लेकिन एक बात दृढ सत्य है कि मुझे अपने आप पर अभिमान है। आज जो साक्ष्य मिले हैं उन्हे देखकर तो यही लगता है कि, कपडे बदलने के मानिन्द विचार तो बदले ही,लोगों ने अपने संबंध को भी बदला साथ में नए लोगों के आगोश में भी घिरते चले गए। हाँ बात की शुरुआत जहाँ से मैने की थी फिर एक बार वहीं आता हूँ, लोग नीति और ज्ञान आजकल वही दे रहे हैं जो सदैव नीति विरुद्ध काम करते रहे हैं। समाज में ये बदलाव होरहै है चाहे वो राजनेता हो या कोई आम इन्सान। बदलते परिवेश ने आपसी प्यार को तो कब का खा गया, लोक लाज को भी सुरसा की तरह लील रहा है। आज यही धारणा है कि पैसा कमाना है भले ही किसी तरह से हो पैसे के बल पर दूसरे को नीचा दिखाना है चाहे वो किसी तरह से क्यो ना आए कुछ दिन पहले एक बात प्रचलित हुई थी कि-- पैसा खुदा से कम नहीं है...। मेरा मानना है कि ऐसी मानसिकता रखनेवालों के लिए गहने और पैसे ही सबकुछ हैं, पैसा ही मीत पैसा ही खुदा पैसे से बढकर कुछ नहीं। आप भी कहेंगे कि कहाँ कि बाते कह रहे हैं तो मैं मानता हूँ कि देश में जो पैसे को लेकर खेल मचा है वो आज हर घर में प्रवेश कर गया है। खासकर वहाँ तो और जहाँ दिखावे की होड है। लेकिन अगर जिसने भी पैसे के लिए अपने ज़मीर और उसूल को नही छोडा मुझे लगता है उसे यही सहना पडा होगा...
जब जब मैंने अपनी राह ख़ुद तय किया
जब जब मैंने उन्हें 'ना' कहा,
तब तब या तो मुझे
आग के दरिया में कूदना पड़ा
या उन्होंने अपने आरोप और अपमान के अग्निदंश से
मुझे जीवित लाश बना दिया।
घृणा का कोश लिए फिरते हैं वे अपने प्राणों में;
और जब भी मेरे होठों से निकलता है एक 'ना'
तो वे सारी नफ़रत
सारा तेजाब
उलट देते हैं मेरे मुँह और आत्मा पर।

छला गया मैं...



मैं अपने आप से ये सवाल करता हूँ कि दुनिया में बहुत सारी घटनाएँ आस पास घट रहीं हैं लेकिन इनसे कहीं दूर होता जा रहा हूँ। ये सब देखते हुए लग रहा है कि मैं कहीं अपने उद्देश्य से भटक तो नहीं गया हूँ। शायद हाँ ...., लेकिन सच मानिए तो नहीं हाँ आज मेरे देखने का दायरा शायद कुछ दूर तक ही सिमट गया है व्यापक नहीं रहा। जो दंश मैं झेल रहा हूँ इन परिस्थितियों में यही केवल उचित जान पड रहा है। उम्मीद है कि इस जहर को जल्द ही पी जाउँ और फिर से चिर परिचित समाज में हँसी खुशी से फिर लौट सकूँगा...शब्दों के रुप सें शायद यही उधेडबुन है....

घायल हो गया हूँ मैं
समय ने छला है मुझे
एक तुम हो कि
चमड़ी हटे भाग को
बार-बार छूते हो
खेलते हो मेरे घाव से
मुस्कुराते हो
जब-जब भी मैं
कराहता हूँ दर्द में
प्यार की परिभाषा के इस पक्ष को
समझना चाहता हूँ मैं सचेतन,
अँधेरे के गर्भ में पल रहे
श्वेत अणुओं से
कुछ सार्थक सवाल करना चाहता हूँ मैं
जानना चाहता हूँ
तुम्हारे दिए पीड़ा की समय-सीमा को,
विदा होना चाहता हूँ मैं,
साथ में जानना चाहता हूँ मैं
तुम्हारी मुस्कुराहट की अबूझ पहेली को....।.

Sunday, May 8, 2011

मैं कौन हूँ....


मैं कौन हूँ....
एक सवाल बराबर मुझे कौधता रहता है कि आखिर मैं हूँ कौन। कई बार मैं अपने आप से कहता हूँ कि मैं ही ब्रह्म हूँ, लेकिन ये कहने के पीछे मेरा तर्क है कि मैं अपने आप को हर किसी के समाप मानता हूँ, इसलिए ये मेरा विचार है। मुझे लगता था कि जिस तरह से मैं लोगों को भूल नहीं पाता हूँ, लोग भी शायद मुझे भूल नहीं पाते होंगे। लेकिन मैं गलत हूँ । इस बात का अहसास आज मुझे हो गया। वास्व में लोगों ने कभी मुझे याद ही नहीं रखा था तो भूलना तो स्वाभिक था ही। हर बार दोष मेरे उपर आया कि मैं अपने अहम में रहता हूँ, और किसी का सम्मान नहीं करता हूँ । ये आरोप सरासर गलत है इसे तो आजन्म मैं नकारता रहूँगा। खैर अपनी बातों को और आगे नहीं बढाउँगा क्योकि ये इन्डियानामा है ना कि मेरा खुद का वृतांत चलिए आपको एक कविता नज़र करुँ.....
इतने आरोप न थोपो
मन बागी हो जाए
मन बागी हो जाए,
वैरागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो...
यदि बांच सको तो बांचो
मेरे अंतस की पीड़ा
जीवन हो गया तरंग रहित
बस पाषाणी क्रीडा
मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर
जब अकुलाती है
शब्दों की लहर लहर लहराकर
तपन बुझाती है
ये चिनगारी फिर से न मचलकर
आगी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!
खुद खाते हो पर औरों पर
आरोप लगाते हो
सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
संग बिक जाते हो
आरोपों की जीवन में जब-जब
हद हो जाती है
परिचय की गांठ पिघलकर
आंसू बन जाती है
नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब
बैरागी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!
आरोपों की विपरीत दिशा में
चलना मुझे सुहाता
सपने में भी है बिना रीढ़ का
मीत न मुझको भाता
आरोपों का विष पीकर ही तो
मीरा घर से निकली
लेखनी निराला की आरोपी
गरल पान कर मचली
ये दग्ध हृदय वेदनापथी का
सहभागी हो जाए
मन बागी हो जाए.......

Wednesday, April 20, 2011

ढह गया शीश महल...


हजारों आशियानाओं में से एक था उल्लहास नगर का शीश महल, लगभग 20 परिवारों का ये आशियाना बन कर तैयार हुआ 1995 में। हर किसी के सपनों का आशियाना भरभराकर कर बिखर गया और पीछे थोड गया बेपनाह दर्द। लगभग 10 साल से कम उम्र के सभी बच्चे मौत की आगोश में सो गए। इन सारे बच्चों का कोई ना तो कसूर था ना ही दुनिया के हेरफरे के वो जानकार थे। परिवार विलखल रहा था कि घर के चिराग बुझ गए। वर्षों से संतान की आस लगाने के बाद परिवार में गूँजी किलकारियाँ अब खामोश हे गई थी। आखिर इस हादसे के पीछे कसूर किसका। सरकार सीधे सीधे वहाँ रहने वालों पर ही अपना दोष मढ कर किनारा कर लेती है लेकिन हकीकत कुछ और ही है। जब मनाक बन रहा था उस समय बिल्डर और सरकारी अधिकारियों की मिली भगत से मकान के लिए जरुरी अनुमति दिला दिए गए। लेकिन मकान में इस्तेमाल होने वाली ईट गारे की जाँच ही नहीं की गई। रेत के नाम पर खालिस मिट्टी मिला दी गई, इस मिट्टी ने मजबूती के नाम पर लोगों धोखा ही दिया। नतीजा महज 20 सालों में ही सामने आ गया मकान भरभराकर गिर गया। अपने गिरने के साथ ही 8 लोगों को मौत की नींद भी सुला गया। इस लापरवाही के लिए सरासर जिम्मेदार सरकार की कार्यवाही ही है जब जी चाहे लोगों का इस्तेमाल कर लिया। जिस अधिकारी ने इस सारी अनुमति का अंजाम दिया होगा उसने तो करोडों रुपए से अपनी जेब गर्म कर अब आराम फरमा रहा होगा लेकिन मार गए बेचारे बेगुनाह। इनका सुध लेने के लिए ना तो सरकार ने ही कोई ठोस कदम उठाए और ना ही अपराधियों पर कोई कार्यवाही हुई। ये बातें कहनी भी अब बेमानी लगती हैं......
या बहारों का ही ये मौसम नहीं
या महक में ही गुलों के दम नहीं।
स्वप्न आँखों में सजाया था कभी
आंसुओं से भी हुआ वह नम नहीं।
हम बहारों के न थे आदी कभी
इसलिये बरबादियों का ग़म नहीं।
आशियाना दिल का है उजड़ा हुआ
जिंदगी के साज़ पर सरगम नहीं।
जश्न खुशियों का भी अब बेकार है
ग़म का भी कोई रहा जब ग़म नहीं।
मौत का क्यों ख़ौफ़ ‘देवी’ दिल में हो
खुद कफ़न देखने के सिवा अब कुछ नहीं।

Tuesday, April 19, 2011

जल रहा है जैतापूर ....


महाराष्ट्र की बेतरीन वादियों का प्रदेश रत्नागिरी जल रहा है। एक दूसरे के विरोधाभाष ने दुश्मनों सा व्यवहार करने पर मजबूर किया है। हर कोई एक दूसरे पर विश्वास करना तो दूर चाहता है कि किस तरह से इस हंगामें को और बढाए। इसके पीछे और कोई नहीं राजनीतिक पार्टियों की भरपूर राजनीति है। केन्द्र सरकार चाहती है कि इस इलाके में बदलाव की हवा के साथ-साथ विकास की गति तोज कर दी जाए लेकिन राजनीतिक पार्टियाँ चाहती हैं कि विकास हो भी तो उन्हीं के शर्तों पर विकास के लिए जो भी मसविदा तैयार किया जाए उसमें स्थानीय राजनीतिक पार्टियों को भी शामिल किया जाए जिससे वो अपनी राजनीतिक चमक को और ज्यादा हवा दे सके । जिससे रत्नागिरी के सीधे सादे लोगों पर हुकूमत करके अपना उल्लू सीधा किया करे...एक ही बात कह सकता हूँ..
आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा वही ख़ुदा देगा
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिब है
क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा
ज़िन्दगी को क़रीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा
हमसे पूछो दोस्ती का सिला
दुश्मनों का भी दिल हिला देगा
नफ़रत का ज़हर पी लिया "फ़ाकिर"
अब मसीहा भी क्या दवा देगा

Monday, April 18, 2011

अन्त कब होगा....


हमने कभी नहीं सोचा था कि कभी ये भी सोचना होगा कि अब सब कुछ खत्म कर दिया जाए। लेकिन पिछले कई दिनों से या यो कहें कि कई महीनों से लग रहा है कि अब समय आ गया है ये कहने का कि सबकुछ खत्म हो गया है। लेकिन इस उधेडबुन में हूँ कि कहने का तरीका कौन सा अपनाऊ। जल्द ही वो भी रास्ता मिल जाएगा और इसे भली भांति पूरा भी कर दिया जाएगा। लेकिन मैं तो चाहता हूँ कि इस दर्द को तब तक पालू जब तक ये जहर पांव से सीने पर नहीं चढ जाता है। गाहे बगाहे इसे कभी बढाता हूँ तो कभी यथावत रखने की कोशिश करता हूँ हाँ भूल कर भी कम करने की कोशिश नहीं करता हूँ....
यही कोशिश है......

लफ़्ज़ झूठे अदाकारियाँ ख़ूब थीं
हुक़्मरानों की अठखेलियाँ ख़ूब थीं
तूने पिंजरे में दीं मुझको आज़ादियाँ
ज़ीस्त ! तेरी मेहरबानियाँ खूब थीं
धूप के साथ करती रहीं दोस्ती
नासमझ बर्फ़ की सिल्लियाँ खूब थीं
मेरी आँखों के सपने चुराते रहे-
दोस्तों की हुनरमन्दियाँ ख़ूब थीं
बेतकल्लुफ़ कोई भी नहीं था वहाँ
हर किसी में शहरदारियाँ खूब थीं
जून में हमको शीशे के तम्बू मिले
बारिशों में फटी छतरियाँ ख़ूब थीं
हम छुपाते रहे अपने दिल के घाव को
इसलिए क्योकि आपकी हिकारत ख़ूब थीं .

Sunday, April 17, 2011

सांझ..


हर बार मन तो करता है कि ढेर सारी बातें लिखू लेकिन समय के अभाव और विचारों के संकुचन के लिए ऐसा हो नहीं पाता है। लेकिन मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं आपको इंडियानामा में अपने देश प्रदेश के हर छोटी बडी चीजों से रु-ब-रू करवाऊ। कोशिश करता हूँ पता नहीं सफल हो पा रहा हूँ या नहीं। अभी पिछले दिनों शाम के धुँधलके से पहले मैं मुंबई के नरीमन प्वाइन्ट पहुँचा। अतिशय भीड तो थी लेकिन मैं अपने आप में तन्हा था। कभी सूरज की समुद्र में डूबती किरणों को देखता कभी दूर समुद्र से अपने डेरे को लौटती नाव को देखता जो कि लहरों के थपडे से किनारो तो नहीं आ पाती। लकिन भरपूर प्रयास क बाद भी संभव नहीं लगता दिखता। हार का नाव और नाविक अपने आप को लहरों के हवाले छोड देते। मुझे ध्यान आया कि कुछ ऐसे ही मझधार में जिन्दगी भी फँसी रहती है......

दूर से आती नावों ने भी
गिरा दिये हैं अपने पाल
मल्लाहों के गान में शिखर सूर्य-से तपते
तार-स्वरों की लय में वो लपक नहीं बाक़ी
पानी में डूबे चप्पुओं में त्वरा नहीं
लहरें भी हो चली हैं ध्यान-मग्न
जाती धूप के साथ डूब चले हैं अँधेरे की परते में
मछेरों के जाल
किनारों पर ठहरी अनमनी नावों के मस्तूल
और दूर-दराज़ जहाँ-तहाँ चमकते हुए
फुनगियों के फूल
पक्षियों के ध्यान में भी उतर
आयी है,घोंसलों में तैरती-डूबी रात
चमक रहे हैं दूर,बहुत दूर
मन्दिरों के धुँधले होते कलश और त्रिशूल
और... कहीं-कहीं पानी और रेत-लहरों की लकीर
दूर पार हवा भी चुपचाप ठहरी है
मैं भी खड़ा हूँ;ठगा-सा
डूबती साँझ की गोद में.लहरों में साक्षात् घिरा
जा रहा हूँ आज, कल फिर आऊँगा शायद,
कोई राह निकल जाए जिन्दगी जीने की हठात्......

Monday, April 4, 2011

यमराज को संदेश....


मैं बराबर सोंचता हूँ कि हमारे आस पास जो भीड लगी है आखिर वो किस लिए लेकिन ये बात मेरी समझ से परे चला जाता है। कई बार इस मसले पर पिता जी से बहस भी हुआ है। पिता जी कहते हैं कि समाज है आर मनुष्य को समाज में रहना ही है इस लिए सारे लोकाचार को निभाना भी है और हर संभव हो तो इस भीज में भी रहना है।लेकिन इस भीज में रहते रहते हुए मुझे घुटन महसूस होती है क्योकि हर चेहरे के पीछे एक चेहरा थिपा नज़र आता है इसे मैं फिर कभी बताऊगा. एक शब्द में बोलू तो मैं इस रेल पेल से उकता गया हूँ... लगे हाथों मेरी इस उकताहट एक कविता रुप में निकल पडी पता नहीं आपको कैसे लगे।
मैं अपने आप में घुलकर हो गया बीमार था, यार-दोस्तों का हुजुम भी श्रद्धांजलि को तैयार था रोज़ अस्पताल आते हमें जीवित पा निराश लौटे जाते
एक दिन हमने खुद ही विचारा और अपने चौथे नेत्र से निहारा देखा चित्रगुप्त का लेखा
जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है शायद यमराज लेट हो गया है या फिर उसकी नज़र फिसल गई और हमारी मौत की तारीख निकल गई यार-दोस्त हमारे न मरने पर रो रहे हैं इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं
किसी ने कहा यमराज का भैंसा बीमार हो गया होगा या यम ट्रेन में सवार हो गया होगा और ट्रेन हो गई होगी लेट आप करते रहिए अपने मरने का वेट हो सकता है एसीपी में खड़ी हो या किसी दूसरी पे चढ़ी हो और मौत बोनस पा गई हो आपसे पहले औरों की आ गई हो
जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो हमने यम के पीए को लिखा सब यार-दोस्त हमें कंधा देने को रुके हैं कुछ तो हमारे मरने की छुट्टी भी कर चुके हैं और हम अभी तक नहीं मरे हैं सारे इस बात से डरे हैं कि भेद खुला तो क्या करेंगे हम नहीं मरे तो क्या खुद मरेंगे वरना बॉस को क्या कहेंगे
इतना लिखने पर भा कोई जवाब नहीं आया तो हमने फ़ोन घुमाया जब मिला फ़ोन तो यम के फोन ये आवाज़ आई थोडा... थोडा इंन्तज़ार का मज़ा लिजिए.. फिर एक कडक आवाज़ बोला... . .कौन? हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं मौत की लाइन में खड़े हैं प्राणों के प्यासे, जल्दी आ हमें जीवन से छुटकारा दिला
क्या हमारी मौत लाइन में नहीं है या यमदूतों की कमी है
फिर मेरे सवाल पर यमराज कडक आवाज़ में बोला...नहीं कमी तो नहीं है जितने भरती किए सब भारत की तक़दीर में हैं कुछ असम में हैं तो कुछ कश्मीर में हैं
जान लेना तो ईज़ी है पर क्या करूँ हरेक बिज़ी है
तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है अभी तो हमें भी मरने की फ़ुरसत नहीं है
मैं खुद शर्मिंदा हूँ मेरी भी मौत की तारीख निकल चुकी है और मैं अब भी अभी ज़िंदा हूँ।

Wednesday, March 30, 2011

खेल या युद्ध ....


कहते हैं कि खेल खेल होता है लेकिन क्रिकेट एक ऐसा खेल बन गया है केवल खेल भर नहीं रह गया है। खास कर यह खेल अगर भारत और पाकिस्तान के बीच हो तो और भी क्या कहने लोग बेतहाशा भागते रहते हैं। खैर मैं कोई शिकायत नहीं कर रहा हूँ लेकिन कुछ ना कुछ तो सोचना चाहिए जरुर कि आखिर ये कब तक और कैसे संभव हो सकेगा कि खेल जंग के मैदान में तब्दिल होते रहेंगे। ये जरुर है कि हर देशवासी चाहता है कि खेल में विजय उसके देश के हिस्से में आए लेकिन अगर यही खेल भावना के रुप में रहे तो बेहतर है। भारत और पाकिस्तान के बीच मोहली में सेमीफाइनल का मैच के दौरान सारे देश में जैसे कर्फ्यू लग गया हो उस तरह का माहौल था। सडको से लोग नदारद थे। हर जगह एक ही चर्चा कि किसी तरह या मैच भारत ही जीते।लोग अपने काम छोड कर मैच देखने में व्यस्त थे। ऑफिस में खालीपन पसरा था। जूनून इतना कि बस कहिए मत... कुछ पंक्तियाँ नजर हैं आपके लिए.....
देखता क्रिकेट
एक आदमी
सूखी-सी डाल पर
तालियाँ बजाता है
एक-एक बॉल पर

मन में
स्टेडियम प्रवेश की
चाहत तो है
लेकिन हैसियत नहीं
इतनी ऊँचाई पर
भीड़-भाड़ गर्मी से
राहत तो है
लेकिन कैफ़ियत नहीं
भागा है काम से
नहीं गया
आज वह खटाल पर

दिखता है
ख़ास कुछ नहीं लेकिन
भीतर है
नन्हा-सा आसरा
इधर उठेगा
कोई छक्का तो
घूमेगा स्वतः कैमरा

पर्दे पर आने की
यह ख़्वाहिश
कितनी भारी आटे-दाल पर ।

Tuesday, March 29, 2011

कुछ तो लोग कहेंगे.....


हर बार मुझे यही सुनने को मिलता है, लेकिन इसके लिए केवल मैं ही जिम्मेदार हूँ ऐसा कहना मेरे विचार से गलत होगा। लेकिन चलो कुछ हो अब अगर तय है तो लोग कहें या सारी कायनात मेरे उपर गलत होने का आरोप लगाए इससे कुछ फर्क नहीं पडता। क्योकि एक खून किया हो या कत्लेआम किया हुआ अपराधी उसे फाँसी ही दी जाती है। लेकिन मेरे मामले में कुछ अजीब बाते है कि बिना वजह के मुझे आरोपी बना दिया गया, तो आखिर इस आरोप को और कितने दिन तक सहता रहूँ। मेरे साथ जो कुछ हुआ या हो रहा है उसके बाद तो लोग, समाज या रिश्तेदार कोई मायने नहीं रखते हैं।
बात आई गई नहीं रह गई है, यह तो मेरे दिलो दिमाग पर पूरी तरह से पैबस्त हो गई है कि अपने आप को सभ्रांत कहने वाले लोगों की हरकते कैसी है। जिसे देख कर शायद लोग कुछ नहीं कहेगे ऐसे सभ्रांत लोगों का मानना है। खैर मुझे इन बातों से क्या लेना देना क्यों मैं अपने दिमाग पर जोर डालूँ। हाँ लेकिन एक बात जरुर कहूँगा कि गलत करने वाले भी शायद चैन से नहीं रहेंगे। पिछले दो साल की अवधि में कितने बार अपमानित होना पडा इसे याद करके सिहरन होने लगती है। चलिए घाव भरने लगे है क्योकि अब राह निश्चित हो गई है तो चलना तो उसी पर है। आज लगभग एक साल होने को आ गए हैं, मैं शक्ल तक भूलने लगा हूँ, शायद मेरे लिए ये बेहतर है कि अपमान के घाव को जल्द भूल जाउँगा। लेकिन समय समय पर दिए जा रहे ताजे घाव फिर से हरे होने लगते हैं। दुख तब ज्यादा होता है जब उनलोगों को बात सुनाई जाती है जिन्हें इस पूरे मसले से कोई सरोकार नहीं है। चाह करके भी मैं कुछ नहीं कर पाता हूँ क्योकि मैं उस जगह से काफी दूर हूँ। चलो कोई बात नहीं जल्द ही सारी कोर कसर पूरी करुँगा, आवाज मेरे पास भी है बाते मैं भी सुनाने की कोशिश करँगा। हाँ लेकिन एक बात है कि मैं चाह कर भी स्खलित भाषा का प्रयोग नहीं कर पाउगा जो लोगों के जरिए बेधडक किए जा रहे हैं। कोशिश यही रहेगी की सम्मानित दायरे में ही रहकर अपनी बात को रख सकूँ।
फिर से मूल विषय पर आ रहा हूँ कि लोग क्या कहेंगे, तो मैं लोगों की चिन्ता तो जरूर करुँगा लेकिन पहले खुद के जीवन को भी तो देख लूँ। लोग अपने अपने मकसद और मतलब से तो बातें कहते ही रहेंगे र कहते ही रहते हैं लेकिन इन बातों की चिन्ता अगर फिर से करने लगूँ तो फिर एक बार और धोखा खा सकता हूँ। इस मसले पर कुछ पंक्तियाँ भी हैं....कोशिश कर रहा हूँ कि सार इन्हीं पंक्तियों में समाहित कर हूँ....
क्या कहेंगे लोग¸ कहने को बचा ही क्या?
यदि नहीं हमने¸ तो उनने भी रचा ही क्या?
उंगलियां हम पर उठाये–कहें तो कहते रहें वे¸
फिर भले ही पड़ौसों में रहें तो रहते रहे वे।
परखने में आज तक¸ उनको जंचा ही क्या?
हैं कि जब मुंह में जुबानें¸ चलेंगी ही।
कड़ाही चूल्हों–चढ़ी कुछ तलेंगी ही।
मुद्दतों से पेट में– उनके पचा ही क्या?
कहीं हल्दी¸ कहीं चंदन¸ कहीं कालिख¸
उतारू हैं ठोकने को दोस्त दुश्मन सभी नालिश
इशारों पर आज तक अपने नचा ही क्या?

Wednesday, March 9, 2011

घिर गया है अँधियारा...


मैं कई बार अपने आप को अलग रखता हूँ कि नकारात्मक विचार मुझ पर हावी ना हों लेकिन होते रहते हैं और तो और मुझे भी अपने घेरे में ले लेते हैं जिससे मैं काम से भी ज्यादा इस उघेडबुन में रह जाता हूँ कि मेरे जीवन में विफलताओं के सिवा और कुछ रखा ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि विफलताएँ शुरु से ही मेरे साथ हैं पिथले दो साल से विफलताएँ और नकारात्मक विचार मुझे घेरे रहे हैं। शायद मेरे मन में चल रहे उधेडबुन का नतीजा है। खैर इसी मसले पर मुझे कुछ याद आ रहै है जो आपके सामने है.....

जीवन विफलताओं से भरा है,
सफलताएँ जब कभी आईं निकट,
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।

तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं ।

सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !

इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।

जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।

मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।

तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे !

Tuesday, January 25, 2011

साँझ का तारा...


मैं हर बार घर जाते समय सदैव देखता रहता हूँ कि साँझ का तारा हमेशा सर उँचा करके खडा रहता है। भले ही रात का अँधियारा रहे या दुधिया चाँदनी लेकिन साँझ का तारा अपने जलवे बिखेरता है ही। देखने में एक सामान्य तारे की तरह दिखने वाला हर बार मेरा सहचर बनता है। इंडियानामा में मैं इसे शामिल कर चूका हूँ कि इंडियानामा ना केवल देश और प्रदेश भर का है ये तो पूरे विश्व भर में फैला है..इस पर कुछ तुकबंदी की है.. क्योकि मैं कवि कदापि नहीं हूँ....
पश्चिम की दिशा से निकला चटकीला तारा
देखने में था अकेला, कहते हैं इसे साँझ का तारा,
नई उम्मीदें नई उर्जा बिखेरता करता नई शक्ति का संचार
चाँद की दमकती रौशनी भी रह जाती केवल सफेद गोला,
रात के चारों पहर तक
दमकता राह दिखाता साँझ का तारा,
दूधिया चांदनी रात हो, या काली घनेरी रात
अपनी रौशनी हर किसी पे बिखेरता चाहे वीरा हो या नीरा,
लाखो करोडों के हेरफेर से दूर
उतराता,खिलखिलाता अपनी ही चमक से भरपूर
इस तारे को मैं निहारता छोड अपनी चाहतों को दूर-दूर,
लेकिन अपने ही लोग हैं कि इस तारे को निहारते देख करते हैं
मुझी पर वार पर वार

एक कुलबुलाहट


ये कैसी कुलबुलाहट है कि मानती ही नहीं लोग आते हैं जाते हैं लेकिन अपनी अकुलाहट मानती नहीं। सच हम बोलना चाहते हैं लेकिन इस सच का गला घोटने से लोग परहेज नहीं करते। लेकिन इन परेशानियों से सच्चाई से अलग भी तो नहीं हो सकते। सच्चाई के साथ लडने वाली हर लडाई में सच्चे का साथ लेने वाले की होती है। लकिन इस पथ पर चलने के लिए ढेरों कुर्बानियाँ भी देनी पडती है। हाल का मामला है मनमाड में डिप्टी कल्कटर को आग के हवाले करने का। डिप्टी कल्कटर को आग के हवाले कर दिया गया क्योकि वो सच के पक्षधर थे और कालाबाजारी करने वालों का राज खोलने वाले थे। महाराष्ट्र एक प्रगतिशील राज्य के रुप में जगजाहिर है लेकिन ऐसे राज्य में इस तरह की करतूत शर्मसार करती है हमें। पूरा आवाम राष्ट्र के गणतंत्र हगोने की वर्षगांठ मना रहा है तो एक परिवार शोक में डूबा बोगा क्योकि परिवार का एक सदस्य कालाबाजारियों से लडाई लडते-लडते शहीद हो गया। डिप्टी कलेक्टर यशवंत सोनावने का पूरा परिवार शोक में डूबा होगा। इस अमानीय कृत्य पर शर्म मुझे भी आने लगती है कि क्या पैसा इतना जरुरी है कि लोग एक दूसरे को मारने पर उतारु हो जाते हैं। यही है बुद्ध और कृष्ण की भूमी की महानता।

Monday, January 24, 2011

दासवाणी


Daaswani

ये एक श्रद्धांजली है मेरी तरफ से जोशी जी के लिए। आज एक उपमा मेरे सामने आई जो थी स्वर सूर्य कहा गया गया पंडित जी को जो एक दम सटीक है। सचमुच सुबह सुबह अगर पंडित जी को सुना जाए तो लगता है कि सूर्य का उदय उनकी अवाज से ही हो रहा है। अह लगता है स्वर के सूरज का अस्त हो गया है, आवाज है जिसके भरोसे याद करना ही बचा रह गया है।

Sunday, January 23, 2011

यादें....


मैं कोई अपनी कहानी नहीं लिख रहा हूँ। लेकिन ये बात आज आम होने लगी है क्योकि भाग दौड के जीवन में किसी के पास वक्त नहीं। हर किसी के पास वक्त की मशरुफियत सामने आने लगती है। कुछ लोग अपने आप में ही मशरुफ रहते हैं जिससे दूसरों के तरफ घ्यान ना जाए। पिछले दिनों मैं अपने बचपन बिताए शहर गया। वहाँ आज भी लोग गर्मजोशी से ही मिलते हैं। मुझे लगा शायद यही इंडियानामा की कहानी है जो एक दूसरे को बाँधे रहती है। पूरे बाकये को कुछ पंक्तियों में बाँधने का प्रयास किया.....पता नहीं कर पाया या नहीं.....

अब हर एक नजर से बेचैनी सी लगती है,
अब हर एक डगर कुछ जानी सी लगती है,
बात किया करता है, अब सूनापन मुझसे,
टूट रही हर सांस कहानी सी लगती है,
अब मेरी परछाई तक मुझसे अलग है,
अब तुम चाहे करो घृणा या तिरस्कार मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

Thursday, January 13, 2011

बडे दिनों के बाद दर्शन होंगे.....


अर्सा बीत गया अपने मित्रों से मिले हुए। एक रिवाज था हम लोगों के बीच मिलते ही कहते थे जय हो... , जब सुखविन्दर ने गाना गाया जय हो तो, सुखविन्दर से कम खुशी हमें भी नहीं हुई। किसकी खुशी ज्यादा थी कहना मुश्किल है। महज चार दिन की छुट्टियाँ हैं इन्हीं छुट्टियों में सब कुछ ठीक करना है। मिलना तो अपने मित्रों से हैं ही साथ में कुछ और निर्णय भी लेने हैं जो बेहद खास हैं...।
खैर ये बातें तो अब जीवन का एक हिस्सा बन गई है। लेकिन सबसे ज्यादा इन्तज़ार है कि पिता जी से मुलाकात होगी, माँ के बारे में एक बार इसी ब्लॉग में बता चुका हूँ। लेकिन इस बार पिता जी के दर्शन करने की इच्छा ज्यादा है और वो पूरी होगी। शायद इस बार गंगा के भी दर्शन हो जाए उत्कट इच्छा है जो शायद इस बार पूरी हो जाए....चलें फिर जल्द मुलाकात होती है।

Tuesday, January 11, 2011

कुछ नहीं बदला....


आज सारे देश में हाहाकार मचा है प्याज की कीमत को लेकर। आजादी के लगभग 60 साल से भी ज्यादा बीत चुके हैं। हम और आप इसे बडे ङूम धाम से मानाते हैं, लेकिन पिछल 60 सालों में कुछ भी नहीं बदला आज भी पैदावार खराब होने से ज्यादा जमाखोरी से ही तबाही मच रही है। प्याज के खेल ने तो ये साफ कर ही दिया है। आज से लगभग 50 साल पहले बाबा नागार्जुन की कवित की कुछ पंक्तियाँ यही याद दिलाती हैं।


कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।

Tuesday, January 4, 2011

यमराज का इस्तीफ़ा...






कुछ बातें हैं अगर आपको अच्छी लगेगी तो अपने विचार बताएगें आपको इसकी हकीकत बताउँगा...




एक दिन
यमदेव ने दिया अपना इस्तीफा,
मच गया हाहाकार,
बिगड गया सब संतुलन,
करने के लिए स्थिती का आकलन,
इन्द्र देव ने देवताओं की आपात सभा बुलाई,
और फिर यमराज को कॉल लगाई,
‘ डॉयल किया गया नंबर कृपया जाँच ले’
कि आवाज तब सुनाई।
नए नए ऑफर देखकर नम्बर बदलने की
यमराज की इस आदत पर
इनद्रदेव को खुन्दक आई,
पर मामले की नाजुकता देख कर
मन की बात उन्होने मन में ही दबाई।
किसी तरह यमराज का नया नंबर मिला
फिर से फोन लगाया गया,
तो फोन ने “ तुझ से मेरा नाता है कोई पुराना”
का कॉलर ट्यून सुनाया,
सुन सुन कर ये
सब बोर हो गये,
ऐसा लगा शायद
यमराज जी सो गये।----- अभी आगे और भी है आप के विचार के बाद अगली कडी पेश होगी...

एक हकीकत



मैं हर बार कुछ अलग कहने की कोशिश करता हूँ लेकिन कह बैठता हूँ हकीकत एक हकीकत ये भी है....
कायनात के ख़ालिक़
देख तो मेरा चेहरा
आज मेरे होठों पर
कैसी मुस्कुराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कुराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़मत को
तू तो मानता होगा
हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है
हाँ, कि आज मैंने भी
ज़िन्दगी जन्म दी है