Tuesday, March 29, 2011

कुछ तो लोग कहेंगे.....


हर बार मुझे यही सुनने को मिलता है, लेकिन इसके लिए केवल मैं ही जिम्मेदार हूँ ऐसा कहना मेरे विचार से गलत होगा। लेकिन चलो कुछ हो अब अगर तय है तो लोग कहें या सारी कायनात मेरे उपर गलत होने का आरोप लगाए इससे कुछ फर्क नहीं पडता। क्योकि एक खून किया हो या कत्लेआम किया हुआ अपराधी उसे फाँसी ही दी जाती है। लेकिन मेरे मामले में कुछ अजीब बाते है कि बिना वजह के मुझे आरोपी बना दिया गया, तो आखिर इस आरोप को और कितने दिन तक सहता रहूँ। मेरे साथ जो कुछ हुआ या हो रहा है उसके बाद तो लोग, समाज या रिश्तेदार कोई मायने नहीं रखते हैं।
बात आई गई नहीं रह गई है, यह तो मेरे दिलो दिमाग पर पूरी तरह से पैबस्त हो गई है कि अपने आप को सभ्रांत कहने वाले लोगों की हरकते कैसी है। जिसे देख कर शायद लोग कुछ नहीं कहेगे ऐसे सभ्रांत लोगों का मानना है। खैर मुझे इन बातों से क्या लेना देना क्यों मैं अपने दिमाग पर जोर डालूँ। हाँ लेकिन एक बात जरुर कहूँगा कि गलत करने वाले भी शायद चैन से नहीं रहेंगे। पिछले दो साल की अवधि में कितने बार अपमानित होना पडा इसे याद करके सिहरन होने लगती है। चलिए घाव भरने लगे है क्योकि अब राह निश्चित हो गई है तो चलना तो उसी पर है। आज लगभग एक साल होने को आ गए हैं, मैं शक्ल तक भूलने लगा हूँ, शायद मेरे लिए ये बेहतर है कि अपमान के घाव को जल्द भूल जाउँगा। लेकिन समय समय पर दिए जा रहे ताजे घाव फिर से हरे होने लगते हैं। दुख तब ज्यादा होता है जब उनलोगों को बात सुनाई जाती है जिन्हें इस पूरे मसले से कोई सरोकार नहीं है। चाह करके भी मैं कुछ नहीं कर पाता हूँ क्योकि मैं उस जगह से काफी दूर हूँ। चलो कोई बात नहीं जल्द ही सारी कोर कसर पूरी करुँगा, आवाज मेरे पास भी है बाते मैं भी सुनाने की कोशिश करँगा। हाँ लेकिन एक बात है कि मैं चाह कर भी स्खलित भाषा का प्रयोग नहीं कर पाउगा जो लोगों के जरिए बेधडक किए जा रहे हैं। कोशिश यही रहेगी की सम्मानित दायरे में ही रहकर अपनी बात को रख सकूँ।
फिर से मूल विषय पर आ रहा हूँ कि लोग क्या कहेंगे, तो मैं लोगों की चिन्ता तो जरूर करुँगा लेकिन पहले खुद के जीवन को भी तो देख लूँ। लोग अपने अपने मकसद और मतलब से तो बातें कहते ही रहेंगे र कहते ही रहते हैं लेकिन इन बातों की चिन्ता अगर फिर से करने लगूँ तो फिर एक बार और धोखा खा सकता हूँ। इस मसले पर कुछ पंक्तियाँ भी हैं....कोशिश कर रहा हूँ कि सार इन्हीं पंक्तियों में समाहित कर हूँ....
क्या कहेंगे लोग¸ कहने को बचा ही क्या?
यदि नहीं हमने¸ तो उनने भी रचा ही क्या?
उंगलियां हम पर उठाये–कहें तो कहते रहें वे¸
फिर भले ही पड़ौसों में रहें तो रहते रहे वे।
परखने में आज तक¸ उनको जंचा ही क्या?
हैं कि जब मुंह में जुबानें¸ चलेंगी ही।
कड़ाही चूल्हों–चढ़ी कुछ तलेंगी ही।
मुद्दतों से पेट में– उनके पचा ही क्या?
कहीं हल्दी¸ कहीं चंदन¸ कहीं कालिख¸
उतारू हैं ठोकने को दोस्त दुश्मन सभी नालिश
इशारों पर आज तक अपने नचा ही क्या?