Tuesday, September 4, 2007
सरकारी बनाम प्राइवेट नौकरी
नौकरी छोड़ना और नई नौकरी को पाना जहॉ एक बेहद अनुभव सहित दक्ष व्यवसायिकता का काम है, वहीं कई बार भावनाएँ ,ज्यादा बलवती हो जाती हैं। मुश्किल होने लगती है ,कभी कभी जमी जमायी नौकरी और कम्पनी को छोडना । लेकिन हर बार काम के साथ अपनी ही आगे बढ़ने की चाहत, ज्यादा मजबूत होती हैं। आज के जमाने में युवा अब आजाद है, समझदार है अपना घाटा नफ़ा देख सकता है। मौके भी कई उपलब्ध है तो क्यों कोई अपने सपनों को बंधन में बाँधे। सबसे ज्यादा उठापटक होती है पत्रकारिता में, वो भी टी.वी. पत्रकारिता में। एक दिन में पूरी दुनिया सहित सारे तौर तरीके ही बदल जातें हैं। अब उसे लगता है कि उसके मेहनत का सही आकलन होगा। कुछ हद तक यह होता भी है, तब जाकर के युवा अपने निर्णय से संतुष्ट हो जाता है।
पुरानी कम्पनी उस में अपना फायदा देखती है, कि कभी तो उसके जाल में आधुनिक युवा फसेगा, लेकिन यह हो नहीं पाता है। खैर कही ना कही उस युवा के दिल में भी एक डर समाया रहता है कि भविष्य क्या होगा, फिर अब भरोसा जाता है ईश्वर की तरफ।
आज भी हालात वहीं है नौकरीयॉ लाखों बिखरी पड़ी हैं, लेकिन देने वाले अपनी शर्तों पर ही नौकरी देते हैं। सरकारी नौकरी मिलने से तो रही, आरक्षण का भूत जो सालों पहले शरीर सहित आत्मा पर अपना अधिकार जमा चुका है। पढ़ने की थो़ड़ी सी ललक रखने वाले लोग चाहते है कि काम सम्मान का मिले। जिसमें नाम सहित इज्जत भी मिले, इसी लालसा में दधीचि की तरह हड्डीयो के ढांचा में शरीर को बदल डालते है। गॉव घर के लोग कहते थे ,कि शरीर है तो जहॉ है, लेकिन आज यही उलट हो गया है कि जहॉ है तो शरीर भी हो ही जाएगा। कॉल सेन्टर की नौकरी हो चाहे कोइ बडी कम्पनी का अधिकारी ही क्यों ना कोई बन जाए लेकिन सरकारी नौकरी ना मिलने का दर्द उसे कम, उससे जुड़े लोगों को ज्यादा सालता है। कई बार मेरी भी बहस की कचहरी, मेरे हितैषियों के साथ लगती रही है। पिता जी हर संभव समझाने की कोशिश करते रहें है। लेकिन मैंने हर बार नकारा ही है, जिद्दी बालक की तरह अपनी ही जिद पर अडा रहा। पिता जी से अपना दर्द कहे तो कैसे कहें। कहीं पिता जी ये ना समझ बैठे कि उनका सुपुत्र या यों कहें उनका कुपुत्र हार मान गया। पिता जी ही कहा करते हैं संघर्ष ही जीवन है तो घबराना क्यों। रेत से भी तेल निकलेगा, चट्टान से भी ,मीठे सोते की धारा निकल पड़ेगी ये तो केवल नौकरी का ही सवाल है। एक नौकरी जाएगी तो दूसरी मिलेगी, लेकिन यदि आपका विश्वास टूटेगा तो दूसरा फिर से नहीं मिलेगा। बडी पुरानी कहावत है कि हारने वाले का साथ कोई नहीं देता। अतः यदि साथ चाहिए तो जीत को किसी भी कीमत पर हासिल करना ही होगा।
बाढ़ का कष्ट
हर बार कुछ अच्छा लिखने की चाहत रहती है, लेकिन दुर्भाग्यवश नियमित रुप से कुछ लिख पाना संभव नही हो पाता है। आपा धापी की जिन्दगी में व्यक्ति भूल जाता है कि कुछ मन के हिसाब से भी करना चाहिये। खैर देर आये, आये तो सही। आस पास बहुत कुछ घट चुका, बड़े लोगों ने कलम तोड़ कर लिखा भी है। लिखावट की बाढ़ सी आ गयी है। अरे हॉ बाढ़ से याद आया, देश के एक बहुत ही बड़े हिस्से के लोग बाढ़ की विकरालता से जूझ रहे हैं।
धुरन्धर नेता लोग अपनी रोटी सेकने का कोइ भी मौका हाथ से निकलने नहीं देना चाहते । झपट पड़े हैं मौके को अपने हक में भुनाने के लिए। कही कोइ सहायता बांटने की वकालत कर रहा है तो कहीं कोइ जनता का हाल लेने पहुँच रहा है अपने उड़न खटोले में सवार होकर के । लेकिन अपना अंदाज भी दिखा गये कि भाई अब हम प्रदेश के नहीं देश को चलाने वाले हैं। हम कहीं भी कुछ कर सकते हैं,चाहे उड़न खटोले को क्यों ना सड़क पर ही उतार दें। कोइ बोल कर के तो दिखाए, मजाल है एक चूँ की भी आवाज निकल पडे। यदि आवाज निकलेगी भी तो मंत्री जी अपने अंदाज विशेष से उसे हँसी ठट्ठे में उड़ा देंगे। हुआ भी वही , विरोधी पक्ष चिल्लाता रहा मंत्री जी ने कहा अंगूर खट्टे हैं इसलिए लोग अपनी भंडास निकाल रहें हैं। खैर बात आयी और गयी लेकिन लोंगो को मिला कोरा छलावा। अपने लोंगों को भी नहीं मिला कोइ निदान, अब दौर चला सरकार पर दोषारोपण करने का।
ताज्जुब तब होता है जब प्रदेश मुख्यमंत्री को विदेश दौरे से फुरसत ही नहीं मिल रही है। लौट कर आने पर अपनी जनता की सुध लेनी चाही और जनता को राह चलना सीखाने लगे। एक बार फिर राहत का सिलसिला चलाने की शुरूआत हुई। इस बार राहत कार्य का काम किसे सौपा जाए एक सवाल बन गया। मन बे-मन से काम सरकारी देखरेख में करवाना शुरू हुआ। ठेकेदारों को इसमें कोइ मलाई जो नहीं मिलनी थी सो काम में केवल खाना पूर्ति किया गया। पखवारे भर लोग घरों में दुबके रहने को मजबूर रहे, गॉव देहातों में तो लोग नित्य क्रिया को भी पूरा करने में असमर्थ रहें। फिर भी कोइ ठोस नतीजा नहीं निकला। हर बार यही होता रहा है चाहे कम विकसित प्रदेश हो देश की आर्थिक राजधानी ही क्यों ना हो। एक बार फिर सारे दावे खोखले साबित हुए है। सरकार , आबादी के एक तिहाई लोगों के दुख दर्द से क्यों बेखबर है यह विकट मसला जनता सहित विचारकों के लिए अब अनसुलझा बना है। सब माया है, माया तू बड़ा ठगनी।
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