Tuesday, July 8, 2008

मैं कब हम होगा…. ?


एक सवाल मेरे जेहन में बराबर कौंधता रहता है कि मैं कभी हम में बदलेगा या नहीं। अपनी अपनी परिस्थितियाँ हैं कि किस तरह से एक दूसरे के करीब लोग लाते हैं। अगर अपनी बात करूँ तो कभी भी मैं में नहीं जीता क्योकि यह एक ऐसी परिस्थिती है जो अगर हावी हो गया तो अहम को दिलो दिमाग पर छाप डालता है। खुद की परिस्थितियों पर अगर विचार करू तो सारी बातें मेरी समझ में भी आ जाती है कि मैं भी मैं की भाषा बोलता हूँ। लेकिन जब से नाम इंडियानामा जुडा है तो धीरे धीरे मैं हम में बदलते जा रहा है। ना कोई जात रहा ना कोई धर्म और ना ही कोई प्रांत-प्रदेश सब समान दिखने लगे। ये बदलाव अनयास नहीं हुआ लगे सालों साल इसके पीछे। हरबार अपनी पहचान को भूलाकर नई दिशा पर चल निकला एक दूसरे से लोगों को जोडने के लिए तो विचारों में भी बदलाव लाया और फिर हम कि राह पर निकल पड़ा। लेकिन घर में आज भी मैं मै ही हूँ कारण यही है कि जिसको जिस भाषा में समझाना चाहिए उसी भाषा में समझाता हूँ। मेरा यही अभी तक मानना है लेकिन हो सकता है कि इस विचार को त्यागना पडेगा ना कि मेरे लिए बल्कि हर किसी को। इस तर्क के पीछे एक छोटा सा वाकया आपको बताता हूँ , वो यूँ है कि अपनी घूमन्तू प्रवृति के चलते कई बार ऐसी जगहों पर निकल पड़ता हूँ कि कहना मुश्किल होता है कि कहाँ आ गया हूँ। हुआ ऐसा ही घूमते घूमते बहुत दूर निकल आया था। गाँव की पगडंडियाँ थी लेकिन चेहरे और भाषा बिल्कुल ही अन्जाने थे। हर कोई अपरिचित की निगाहों से देख रहा था।लेकिन अचानक मेरे दिमाग में ये बिजली कौंधी कि मैं कैसे इनको अपने से जोडूँ।क्योकि इन लोगों का शोषण काफी लोगों ने किया है अब बारी है इनको इनकी स्थिती का भान कराने का। इसलिए सबसे पहले वहाँ घूमते बच्चों के बीच शहर से लाई टॉफियों का अम्बार लगा दिया और बगल के खेत में चला गया हल जोतते किसान के साथ मैं भी शरीक हो गया। तब क्या था सबकी चुप्पी टूटी और मैं, मैं से हम में बदल गया।
यही बात अगर आप दुहराये तो हो सकता है कि आपके बीच का भी मैं कहीं खो जाये और हम में बदल जाये। आज के परिवेश में जितना जल्द यह बदलाव हो वह एक मध्यम वर्गीय के लिए अच्छा है। मसलन लगभग 2 करोड अबादी वाले शहर में रहने को घर का सपना देखने वालों लाखो लोग आज भी अपना दम फूटपाथ पर तोड़ देते हैं। आखिर घर नसीब होता है तो, उसीको जो जितना ही जल्द मैं को छोड़कर हम को अपना लेता है। ठेठ में बोलूँ तो जिसने एक दूसरे का हाथ पकडा उसने अपने सर के उपर छत पाया। मतलब साफ सहकारिता ने ही मध्यम वर्ग को सहारा दिया। सैकड़ो कॉपरेटिव सोसाइटी ने इस महनगर में लोगों को शरण दी। जिसके बदौलत लोगों के सर पर छत है। ये इतिहास गवाह है चाहे वो प्राकृतिक प्रकोप हो या वो मानव के जरिये बनाई संकट उससे निज़ात मिला है समवेत स्वर से उठाये विरोध से ही। आर्थिक प्रगति में नई क्रांति लाकर के दूध की नदी बहा दी आनंन्द गाँव ने। अमूल नाम से नई पहचान ही दे दी। महाराष्ट्र के हर इलाके में चीनी मिलें इसका जीता जागता उदाहरण हैं। ये किसी एक ने नहीं किया है सैकड़ो हाथों ने मिलकर किया है। तब किसी एक के भडकाने पर क्यों एक दूसरे के हम दुश्मन बन जाते हैं यह बडी गंभीरता से सोचने वाली बात है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किसी के भडकाने पर मैं से अलग हट कर हरकोई हम के रुप में आगे बढे और डटकर उसका मुकाबला करे और मैं के रुप मे खडा भडकाने वाले दानव का नाश कर डाले..... जरा गंभीरता से सोचिए......।