Monday, December 28, 2009

यही है पथ....


हर कदम एक परीक्षा यही नियती है भले ही हमारी हो या आपकी, लेकिन सच्चाई यही है। ये परीक्षा आपने खुद के जीवन में कई बार दुहराई होगी। लेकिन आखिर में तन्हा ही दिखा होगा सारा आकाश। कभी तो खुद का जीवन ही पूरा का पूरा एक परीक्षा का मंच कहें या यो कहें, कदम कदम पर परीक्षा होने लगती है। लगता है कि तलवार की धार पर चल रहे हैं। कई बातें हैं जिनमें आगे बढने की होड़ हो या किसी और तरह का दबाब जिसमें लगता है कि तलवार पर चले चलें, भले ही खुद के पैर जख्मी हो जाए। जबतक साँस है तब तक तो चला ही जा सकता है। लोग भले ही सोंच सकते हैं इससे होगा क्या आखिर, ये तो बिल्कुल मूढ व्यक्ति है। मैं कहता हूँ कि ये तेरा, ये मेरा, ये मैं तभी तक है जब तक शरीर में जान और अहं है। जब यही नहीं रहेगा तो कौन किससे मेरा तेरा करता रहेगा। रही बात की आखिर इससे मिलेगा क्या । तो कुछ बातें होती हैं जिसमें घाटा नफा नहीं देखा जाता है केवल और केवल तम को जलाया जाता है। शरीर का तम जैसे जले जलना चाहिए यही एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए। परीक्षाएँ तो कक्षाओं में पास बहुत ही की होगी आपने भी और हमने भी, लेकिन कुछ हैं कि चाहते हुए भी उन परीक्षाओं से बाहर नहीं आया जा सकता है, शायद इसे ही ज़िन्दगी की हकीकत कहते हैं.... दो विचार आपस में गुत्थम गुत्था कर रहे हैं...लगता है मैं विषय से विषयांतर हो रहा हूँ... आगे थोडा ही लिख रहा हूँ....
यह लडाई, जो कि अपने आप से मैने ठानी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढी है,
यह पहाडी, पांव क्या चढते,जो धमनियों के भरोसे चढी है,
सही हो या गलत है,
अब तो पथ यही है।

और कितना बाँटोगे....


1947 के बँटवारे का दर्द हम आज भी झेल रहे हैं। ज़मीनों के बँटवारे हो गए जिसने दिलों पर लकीर खींच दी। एक बार फिर इन दिलों को बाँटने का सिलसिला शुरु हो गया। कोई कहता है भाषा के आधार पर बाँट दो तो कोई कहता कि नहीं, क्षेत्रफल और दूरियाँ ज्यादा है इस लिए एक और राज्य दे दो। दहल उठा समाज, होने लगी मारा-मारी, एक दूसरे के ही खून के प्यासे हो गये लोग। हर कोई नफरत करने लगे एक दूसरे से। राजनेता अपने ही राजनीतिक रोटियाँ सेकने में लगे हैं। कोई ये नहीं सोंच रहा है कि सदियों से साथ-साथ रहते आये लोंगों को ही एक दूसरे के खिलाफ भडका रहे हैं तो कहीं आगे चलकर यही उल्टे उनके उपर ही न आन पडे। 28 भागों में तो पहले ही बँट गए हैं और भी बाँटने की भरपूर कवायद शुरु है। कहीं जात के आधार पर तो कहीं धर्म के आधार पर लोग अपने अलग राज्य की माँग करने लगे हैं। वो दिन दूर नहीं कि आने वाले दिनों में चार गाँव वाले मिलकर कहने लगेंगे कि हमें भी एक अलग राज्य दे दो। अगर बँटवारा का सिलसिला यही रहा तो सिंन्धु प्रदेश कहे जाने वाला राष्ट्र महज कुछ ही किलोमीटर में सीमित रह जाएगा।
फिलहाल तो ज़मीनों की ही बँटवारा हो रहा है, आने वाले दिनों में जिस तरह से बँटवारा पर राजनीति हो रही कोई एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में भी जाने के लिए हमें सोंचना होगा। तब क्या होगा ये सोंच कर मैं तो चिन्तित होता हूँ, शायद आप भी सोंचने लगेंगें इसकी कल्पना मात्र से। अभी महज कुछ सालों की ही बात है, जिसमें उत्तरांचल को उत्तर प्रदेश से अलग किया गया और झारखंड को बिहार से, लेकिन अगर इन इलाकों में प्रगति की सोंचे तो दूर-दूर तक कोई नामों निशान नहीं है। हाँ ये जरुर है कि राजनेताओं ने कई बेनामी संपत्ति जरुर बना ली। गरीब और गरीब होते गए जबकि खद्दरधारी मोटे सेठ के रुप में बदलते गए। सरकार भी इस तरफ से आँखें मूँद ली है इसके पीछे भी अपने ही स्वार्थ हैं कि लोग लडते रहें जिससे उनकी खामियों पर पर्दा पडा रहे। हालाकि इन बातों को ना तो गंभीरता से देखी जा रही है ना ही सूनी जा रही है। इस बँटवारे का विरोध करने वालों की आवाजें गूँज तो कतई नहीं सरकार के सामने फुस्फुसाहट से भी कम ही अपनी उपस्थिति दाखिल करा पा रही हैं। जिन लोगों के विकास की बातों की गई थी आज भी उनके पास ना तो खाने के आनाज के दाने हैं और ना ही तन ढंकने के लिए कपडे। कोफ्त होती है कि हमारे ही चुने लोग हमें नोंच नोंच के मार रहें हैं। बदले तो किसे बस केवल इनका मुँह तकते रहना है और कहना है, जमीन बाँट रहे हो , दिलों को बाँट रहे हो, पानी को बाँट दिया अब क्या धमनियों में चलनेवाले रक्त को भी बाँट डालोगे.....