Wednesday, December 8, 2010

माँ रेवा से माँ गंगा तक....


कुछ दिनों पहले ही मैं कुछ दिन पहले ही अपने पसंदीदी गानों को सुन रहा था। जिसमें इंडियन ओसियन का माँ रेवा जो कि मेरा पसंदीदा है वो भी सुनने को मिला सुनते ही अपने पावन भूमी बनारस की यादें तरोताज़ा हो गई। हर बार की तरह ये लगने लगा कि आखिर गंगा से इतनी दूर आ गये हैं फिर भी आज भी चिरपरिचित तस्वीरें आँखों के सामने घूमने लगती है। आखिर इसका कारँ यही है कि हम माँ जो कहते हैं, तो माँ से कितना भी दूर क्यों ना चले जाए भूलना तो संभव हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि नदियाँ सचमुच माँ के समान होती हैं। इसलिए इनके नाम भी होते हैं, माँ रेवा या माँ गंगा । जमाने बदलते गए हैं, नदियों में प्रदुषण का दबदबा इतना बढ गया है कि नदियाँ कब गड्ढों में तब्बदील हो जाती हैं कहना बेहद मुश्किल है। सरकार अपनी लाचारी बताती रहती है लेकिन इसके पीछे कोई ठोस कदम नहीं उठाती है। हमेशा ही नियमें बनते हैं, बैठके होती हैं लेकिन कभी भी इस दिशा में काम नहीं होता है कि ये कहा जा सके कि हाँ सरकार ने माँ स्वरुपा नदियों को इज्जत बढाई।
मेरा ये लिखने का उद्देश्य ये नहीं था कि आपको ये बताऊ कि नदियों के क्या हालात हैं। मैं आपको बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि नदियों की पवित्रता और आपसी सौहार्द को खत्म करने के लिए अब कई तरह के हथ कंडे अपनाए जा रहे हैं। बनारस का बम धमाका एक उदाहरण है। इसे देख कर यही लगता है कि ये एक सोची समझी चाल है जिसे अंजाम दिया गया उन मानवता के नाम पर कलंक लगानेवालों के जरिए। बनारस की गंगा आरती को अगर कोई एक बार देखे तो जीवन में हर बार देखने की चाह लगी रहेगी ये मेरा दावा है। इसके पीछे कारण है कि गंगा का आकर्षण ही उस व्यक्ति को वहाँ तक खींच ले जाएगा। आँखों में वो अनुभूति तो कैद होती ही है, साथ में मानसिक संतोष भी पहुँचाती है जिसका वर्णन करना शब्दों के घेरे में नहीं है। सात दिसंबर को जो बनारस में हुआ उसने कई सवाल खडे कर दिए। गंगा जमुनी संस्कृति वाले शहर में इस तरह के घटना को अंजाम देने वालों का उद्देश्य यही होगा कि किसी तरह पूरे देश में सहयोग और आपसी बंधन के माहौल को बिगाडा जाए। कोशिश भरपूर रही लेकिन उनके कामयाबी को नाकामी में बदले का दायित्व हमारा है। थोडा संयम हमें बरतना होगा और इस मानवता के दुश्मनों को करारा जवाब देना होगा जिससे ये फिर ऐसा कदम उठाने की हिमाकत ना कर सके। मुंबई, अहमदाबाद,दिल्ली, वाराणसी को अभी भूले भी नहीं थे कि गंगा की नगरी में एक बार फिर वो दर्द दे दिया गया जो हमें अपनों को ही शर्मशार कर रहा है। इतने कडे प्रबंध के बाद फिर से ऐसी घटनाएँ यही जाहिर करती हैं कि सरकार भी कहीं ना कहीं लचर है जिससे बार बार ऐसी दिल दहलाने वाली घटनाएँ सामने आती हैं।
इस विचार का अन्त यही है कि माँ रेवा से लेकर माँ गंगा तक की भूमि आज सुरक्षित नहीं है। मनुज पुत्रों तुम चेतों और साथ में अपने उन लोगों को भी सुरक्षित करो जो तुम्हारे करीब हैं....

Sunday, December 5, 2010

हमारी लाचारी..


कल मेरे एक मित्र से बातचीत हो रही थी, बात कब हमारे देश की राजनीति तक पहुँच गई पता ही नहीं चला। लेकिन बातें दिलचस्प थी। अन्त में उन्होने कहा कि भाई अपनी बातचीत को विराम देते हैं और चार पंक्तियाँ भी उन्होने साझा की । वो पंक्तियाँ आपको भी मैं सुना रहा हूँ.....,
देखने में लगता हूँ बीमार,
हो सकता है आप भी मुझसे करें तकरार,,
लेकिन मेरा भी मन करता है करने को प्यार,
पर क्या करुँ मैं भी हूँ,
मनमोहन सरकार की तरह लाचार,
इन पेक्तियों में रहस्य बेहद गहरा है लेकिन इसे जाहिर करना उतना ही जोखिम भरा है जितना इसके नहीं जाहिर होने से । आपको केवल और केवल तुकबंदी लगे।...

Saturday, December 4, 2010

माँ रेवा...


Kandisa, हकीकत है नदियाँ हमारी लिए माँ से कम नहीं । लेकिन ना तो आज हम माँ को ही याद कर रहे और ना ही अपनी इन नदियों को लेकिन जरुरत है अपनी संस्कृति से जुड अपने आप का उत्थान करे साथ ही लोगों को इससे अवगत भी कराएँ। इसी प्रयास में मैने इंडियानामा में इंडिया के कोने कोने से कुछ संगीत आपको सुनाने की चेष्टा कर रहा हूँ ।आप अपने विचार जरुर बताएँगे...।

दुनिया हमारी कदम में.....



Hille Le

ये हमारी कदमों की आहट है, मैंने इसे अपने परिश्रम के काल से सुनते आ रहा हूँ आप भी इसे सुनिए शायद आपको पसंद आए... ये उन कर्मठ लोगों की दास्तां है जो हवा का रुख बदलने का दम रखते हैं.....।

Tuesday, November 30, 2010

आया बिहार झूम के....


अंधेरे के बाद रौशनी होती है ...ये कहावत बचपन से ही हर किसी को याद होगा। लेकिन चरितार्थ होते हर किसी ने नहीं देखा होगा। लेकिन ये चरितार्थ हुआ इस बार के बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान। हर बार कि तरह लग तो रहा था कि इस बार कहीं प्रगति फिर ना हार हार जाए बाहुबलियों के आगे। लिहाजा पूरा महकमा मुस्तैद था। लेकिन जनता के दिलों में जो आँधी चल रही थी उसके आगे बाहुबली तिनकों की भांति कब उडकर कहाँ चले गए ये किसी को ख़बर नहीं लग पायी। राज्य में सुशासन कायम हो ऐसी संभावनाएँ बन गई हैं। जाहिर है कि पिछली सरकार के गठन से पहले राज्य में पंद्रह सालों तक लोगों की भावनाओं के साथ आत्मा को रौंद दिया गया था। हर कोई यही चाहता था कि कब बिहार से बाहर जाए और अपने जीवन के जुगाड में लग जाए। पलायन और केवल पलायन यही सूनने को मिलता। जो बाहर जाते उनके जीवन भी कोई बहुत बेहतर नहीं होते थे। उन्हें भी कई उपेक्षाओं का शिकार होना पडता था। बेहतर जीवन करने की चाह में एक 10 फुट के घर में दस दस आदमी रहते हैं जीवन बद्दतर और बेहतर के बीट में झूलता रहता था। लोगों की चाह होती थी कि कब घर लौटे और अपने ज़मीन पर कुछ ऐसा करेंगे जिससे घर वालों का भी नाम हो और अपने जीवन को भी पटरी पर लाएंगे। लेकिन जीवन लगा जाता था चाह कभी पूरी नहीं हो पाती थी।
साल 2010 के चुनाव ने नई उम्मीद बाँध दी है,हर किसी को आशा की नई सुबह दिखती है कि अब बदलाव आएगा। कुछ बदलाव तो हुए तब एक लगा कि एक बार फिर से बेहतर माहौल बनेगा और लोगों के लिए कई मौके बनेंगे जिससे हर किसी को अपने अधिकार से जीने का हक मिलेगा।
इस दौरान कई लोग मिले जो इस बारें में साफ राय रखते हुए मिले कि अब सब संभावनाए बेहतर होंगी। होनी भी चाहिए आखिर सरकार जो पूरी तरह मेजोर्टी में जो आ रही है,सरकार की हाथ अब बेहतर तरीके मजबूत है तो क्यों ना माहौल बेहतर हो। अगर बेहतर नहीं होगा तो ये तो सरकार की ही कमजोरी कही जा सकती है। बडे दिनों के बाद बक्त मिला है कुछ बदलाव करने का समय केवल पाँच साल है, इसलिए मौजूदा सरकार को काम भई ऐसे करने होंगे जिससे लोग याद रखें और भरोसा भी। चुनाव के बाद तो लोगों का झूमना यही कहता है कि आया बिहार झूम के, शब्दों में कहें तो यही होगा कि …. पूरब से सूरज निकला फैला उजियारा जगभर, जगदगुरु बनेगा बिहार फैलेगा ज्ञान विश्वभर......।

Sunday, November 28, 2010

सईयां


Saiyyan बेहद सुरीला मुझे लगा पता नहीं आपको कैसा लगे......

Friday, November 26, 2010


आज अचानक से ख्याल आया कि रोज कि भाग दौड में हम का तो करते बही सब हैं हम से हमारी संस्थाने जो चाहतीं हैं। लेकिन इन कामों के बीच में मैं अपने आप को तन्हा ही मानता हूँ। इस लिए कुछ बातें आपके सामने ला रहा हूँ। ये एक आम बात है आज इंडिया( इस शब्द का में इस्तेमाल अपने ब्लॉग की वजह से करता हूँ) का हर एक आदमी अपनी इसी उधेड बुन में है कि कहीं तो उसे सही राह मिलेगी।


मैं और मेरी तन्हाई....
जीवन के उतार चढाव में हर बात,
मैने ना ही छुपाई और ना तो किसी के दिल को ही दुखाई,
लेकिन हर बार लोगों ने मुझे अनेकों आरोपों से रु-ब-रु कराई,
अब हाल है,
आवारा है गलियों में,
लेकिन मैं देख रहा हूँ अपनी तन्हाई,
जाएँ तो जाएँ कहाँ हर मोड पर है रुसवाई,
दिखने में चेहरे तो लगते हैं ये फूल से गुलदस्ते,
लेकिन अपने ने ही मेरा खून किया हँसते-हँसते
ना तो लोग ना तो रास्ते,
इस बेगाने जमाने में कोई भी अपना नहीं अनजाने हैं सब रास्ते,
राहें हैं तमाशाई,
राही तमाशाई,
केवल मैं रह गया अपने इन्हीं शब्दों में,
मैं और मेरी तन्हाई.......

Wednesday, November 24, 2010

ख्वाब ...


हर दिन आपसे से मुखातिब होने की चाह होती है लिहाजा कुछ अच्छा लिखता हूँ तो कभी कुछ तुक बंदियाँ कर लेता हूँ। कोशिश की है कि अपने ख्वाब को आपके सामने रखूँ लेकिन पता नहीं हकीकत लिख पाया हूँ। ये आप ही बता सकते हैं कि आखिर आप इसे क्या मानते हैं ........।


कल रात एक ख्वाब देखा,
समझ ना सका ख्वाब था हकीकत
या जीवन का धोखा,
लेकिन था जोर का झटका धीरे से,
कुए कब्रगाह में मेरी आँखे बन्द थी,
लेकिन धडकन-ए-दिल तेज थी,
इन्तजार था कि कोई अपना मेरे कब्र पर चिराग,
जला जाएगा
जिससे रौशनी मिले ना मिले कमोबेश
सूकून तो आ ही जाएगा,
लेकिन गोया ना तो कब्रगाह ही रौशन हूई,
ना ही कानों ने किसी के आने की आहट सुनाई।
ताज्जुब तब हुआ जब इस दरम्यां दिमाग ने कोई
चेहरा ही नहीं दिखाया,
उन्नींदी आँखे मशक्त के बाद खुई गई,
देखा दिन चढे सूरज निकल आया।

Tuesday, November 23, 2010

कायनात.........





पढते पढते कई बार ख्याल आता है कि आखिर इस कायनात को बनाने वाले ने क्यो सोची होगी कि इतनी हसीन दुनिया को हमारे सामने रख दिया। हर बार कि तरह इन बातों को देखते देखते ज़ेहन में ख्वाब आने लगता है कि क्या कभी ऐसा भी वक्त आएगा कि इस कायनात बनाने वाल कारीगर से रु-ब-रु हो सकें। इसी दौरान कुछ पंक्तियाँ भी नज़रो के सामने हो आई...


कायनात के ख़ालिक़
देख तो मेरा चेहरा
आज मेरे होठों पर
कैसी मुस्कुराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कुराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़मत को
तू तो मानता होगा
हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है
हाँ, कि आज मैंने भी
ज़िन्दगी जनम दी है


आपको कैसा लगा ? जानना चाहूँगा.....

Monday, November 22, 2010


अभी और तेज़ कर लें सर ख़न्जर-ए-अदा को,
मेरे खूँ की है ज़रुरत तेरी शोखी-ए- हिना को,
तुझे किस नज़र से देखें ये निगार-ए-दर्द आगी,
जो दुआएँ दे रही है तेरी चश्न-ए-बेवफा को,
कहीं रह गई हैं शायद तेरे दिल की धडकनों में,
कभी सुन सके तो सुन मेरी खूँशिदा नवा को
कोई बोलता नहीं है मैं पुकारता रहा हूँ,
कभी बुतकदे में बुत को तो कभी काबे में खुदा को
। .....

राजनीति में सब जायज.......


आम आदमी के लिए ढेरों वर्जनाएँ होती हैं, लेकिन वही बडे लोगों के कुछ नहीं। क्योकि वही तो नियम कानून तय करते हैं, उन पर कौन बंधन लगाए। इन बडे लोगों में आज के राजनेता हीं सबसे पहले आते हैं। कोई हो या ना हो लेकिन राजनेता सबसे पहले याद किए जाते हैं आखिर उन्हें कौन भूलने की हिमाकत कर सकता है। करोडों डकार जाए तो उनका नाम सबसे पहले, उनके चलते देश के लोगों पर मुसीबतों का पहाड भी टूटे तो मजाल है, किसी भी नेता को अपने आँखो से ओझल कर सके। हर किसी को यही उम्मीद होती है कि आने वाला व्यक्ति उनके दुख को समझेगा और उनके साथ न्याय करेगा। लेकिन होता सब उलट। अकेले महाराष्ट्र में देख ले, आदर्श घोटाले के मामले पर पुरानी सरकार के मुखिया को पद से हटा दिया गया, तर्क था कि आदर्श मामले से मुख्यमंत्रई अशोक चह्वाण ने पार्टी की छवि खराब की है इस लिए उन्हें कोई हक नहीँ कि राज्य के मउखिया बने रहे। केन्द्र सहित राज्य से ये कहा गया कि जल्द ही साफ सुथरी छवि के लोगों को पर्टी में शामिल किया जाएगा लेकिन दिखा वही ढाक के तीन पात, वही लोग शामिल हैं जिन पर ढेर सारे घोटालों का या तो आरोप है घोटालों में दोषी हैं। लेकिन लोग चुप हैं क्योकि सब उनके लिए जायज है जो देश को चलाने का दंभ भरते हैं। अशोक चह्वाण के करीबी माने जाने वाले लोग अशोक चह्वाण के जाने से काफी दुखी थे लेकिन नए मुख्यमंत्री के साथ ऐसे साठगांठ कर बैठे कि कब दूध में पानी की तरह शामिल हो गए कहना मुश्किल है। आखिर इनके उपर कोई बंधन थोडे ही ना है। राजनीति में सब जायज के कई और भी नमूने हैं, जिन्हें अगर एक एक कर देखा जाए तो कहना मुश्किल है कि कौन इस मामले में कितना डूबा है। इन नेताओं के सिलसिले में एक व्यक्ति ने मुझे कहे है कि --- ज़मी बेच देंगे ज़मा बेच देंगे, अगर जनता ना संभली तो ये नेता देश को ही बेच देंगे.....
ये जिसने कहा है ये उसका दर्द था ... इसके बारे में विस्तार से जल्द ही बात करेंगे।

Wednesday, November 17, 2010

आखिर और कितने.....,


ये बात मैं अपनी नहीं कर रहा हूँ, अपने नेताओं के साथ सरकारी नौकरशाहों की कर रहा हूँ। जो हमारे देश को चलाने वाले एक तरह से पहरेदार हैं, लेकिन इस दस महीनों में इनके कारनामे जो सामने आए वो अज़ादी के पिछले 62 सालों में भी नहीं हुए है। पता नहीं इनकी भूख आम आदमी से कितनी ज्यादा है कि खाने के लिए करोडों रुपए डकार जातें हैं और हवा तक नहीं लगने देते हैं। साल की शुरुआत हुई हिमाचल में सुकना जमीन के घोटाले से जिसमें सेना के आधिकारी से लेकर रक्षा महकमा तक शामिल था, और इस तरह के घोटलों का सिलसिला चलता रहा महाराष्ट्र के आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के घोटाले तक। मैने जब इंडियानामा में लिखने की शुरुआत की थी तो अन्दाज़ नहीं था कि इतने बडे घोटालों और ज़ालसाजियों से भी देश को दो चार होना पडेगा। कहीं नेवी में पैसे लेकर लोगों की भरती कराई गई तो कहीं पैसे के लिए देश की प्रतिष्ठा ही दांव पर लगा दी गई। कॉमनवेल्थ खेल के नाम पर कांग्रेसी नेताओं ने जम कर लूट खसोट की। भले ही सरकार ने इन नेताओँ को अपने पद से हटा दिया लेकिन सरकार की साख पर बट्टा लग ही गया।
ज्यादा विस्तार से ना जाकर अपने विषय को केवल आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के मामले पर समेंटें तो देख तक अचंभित होना पडता है कि कैसे अपने फायदे के लिए नेताओं और नौकरशाहों ने फाइलों में हेरफेर करके अपने फायदे से घर हथिया लिया।आम आदमी सडकों पर रहे इससे इन नेताओं को कोई लेना देना नहीं लेकिन अपनी झोली भरने में कभी पीछे नहीं रहे। जब मौका मिला कानून की धज्जियाँ उडाकर अपना उल्लू सीधा करते रहे। जहाँ जहाँ हाउसिंग सोसाइटी के लिए फाइल जाती सभी अपने हिस्से के रुप में इक प्लैट लेने में कोई कोताही नहीं करते । जिसकी जितनी बडी हैसियत उतना ही बडा लालच का मुँह बाए अपना हिस्सा अपने हक में कर लेता था। जानकर अचरज तब और हुआ जब सूबे के मुखिया ही अपने लालच को रोक नहीं सके और अपने रिश्तेदारों के नाम पर फ्लैट चुपके से अपने पास रख लिए। जब मुख्यमंत्री जी ही इस तरह के मसले में लिप्ट हो जाए तो भला पीछे वाले बहती गंगा में हाथ धोने से पीछे क्यों रहे। उनके तो पौ बारह हो गए कि जब मुखिया ही चाहते हैं नियमों में फेरबदल कर दिए जाए तो लाभ उन्हें भी मिलेगा ही। जबकि तय था कि इस जमीन पर कारगील में शहिदों के लिए घर बनाए जाएँगे। किसी भी शहीद के परिवार को घर तो मिला नहीं, बल्कि नाम का खूब इस्तेमाल हुआ। इस सरकारी रवैये के बार में एक ही बात कह सकते हैं---- कहाँ तो तय था कि चिराग़ा देगें हर घर को यहाँ रौशनी मयस्सर नहीं पूरे शहर को.....

Sunday, November 14, 2010

हमने पाई एक नई राह....


कहने में कितना आसान है कि जीवन जीने के लिए नई राह की तलाश मिल गई..। सोंच कर मन एक दम से हर्षित हो जाता है। हकीकत है भी, क्योकि इस दुनिया में जीने के लिए बहाने या यूँ कहें तो एक उद्देश्य का होना बेहद जरुरी है। मैंने तो निश्चय काफी पहले कर लिया था लेकिन अब अपने निश्चय पर दृढ हो चुका हूँ। अपने जीवन के धुँधले पन्नों को जीवन से निकाल तो नहीं सकता लेकिन उस पर धूल की परतें डाल कर बंद कर चुका हूँ। ना चाहते हुए भी कोई अपनी उपस्थिती दर्ज कराने की कोशिश करता है लेकिन उसे दरकिनार करना ही मेरे लिए बेहतर है। मैं इसे कर भी चुका हूँ। मेरे किताब लिखने की गति थोडी धीमी हो गई है। जल्द ही उसमें तेजी लानी होगी। आसपास इतना कुछ घट राहा था कि हर जगह आदर्शवादिता की धज्जियाँ उडी हुई थी। उसकी नीव मैने खोदी थी तो अन्त तक पहुँचाना जरुरी था। उसी में मैं भी व्यस्त था, वन वे ट्राफिक की भांति... चले जल्द मुलाकात होती है। आदर्श के कुछ और पन्नें खोलने हैं।

Sunday, October 17, 2010

रावण एक बार फिर मरा... राम राज्य की उम्मीद..


रावण को तो एक बार फिर हमने मारा सदियों से मारते आ रहें हैं लेकिन रावण की संना रक्तबीज की तरह पनपते जा रही है। शायद इस बार इस पर रोक लग जाए और राम राज्य कायम हो। लेकिन किस तरह का राम राज्य आएगा ये समझना बेहद कठिन है। ना तो इस जमाने में कोई सीता है और ना ही राम, सबके अपने विचार हैं। कोई कहता है कि मैं श्रेष्ठ तो कोई कहता है कि नहीं मैं सही बाकी सारी कायनात झुठी। सदियों पहले कबीर ने सच कहा है.. कबीरा एह बाजा़र में भांति भांति के लोग कोई झूठ को सच बनावे किसकी का सच भी झूठ हो... (ये भावार्थ मैंने निकाला है, व्याकरण और विश्लेषण पर ना जाएँ।

Friday, October 15, 2010

गुरुर है मेरा...


मैने कभी भी स्वार्थ को पहले नहीं देखा है.., लेकिन हर बार मेरे उपर आरोप ही लगा कि मैं स्वार्थी और घमंडी हूँ। मैं मानता हूँ कि मैं घमंडी तो नहीं लेकिन अपने आप पर गुरुर करता हूँ। इसका कारण भी है कि एक तरह से हर कुछ खुद ही पाया है और उसके लिए जी तोड कोशिश भी की है.... जिन लोगों ने आरोप लगाया है, उनकी सफाई तो नही लेकिन मन के उद्गार जरुर इसी संदर्भ में कुछ पंक्तियों के रुप लिख रहा हूँ......

क्या अपने आप पर
गुरुर होना बुरी बात है?
जब किसी ने साथ ना दिया छण भर
तो अकेले चलना अजीब बात है!
हमसे तो सबों ने वादा लिया कर,
लेकिन निभाने का समय बहुत दूर है,

हमने तो कभी ये कल्पना नहीं की
चाहे शरीर में प्राण रहे या जी,
हर बार साथ चलने की मंशा सामने की
जबकि रास्ते में ही हाथ झटक दी,

अब जब जीवन है वीरान
तो ठान ली,
करने को अपने भाग्य का उत्थान
अब लोगों को है इस पर भी आपत्ति
तो क्यों ना मानू मैं इसे विपत्ति,

चलो मान लिया उन्हें आज भी है प्यार
देखते हैं तो मिलता है बदला हुआ व्यवहार
क्या चाहते हैं मुझसे, मनुहार?,
मुझसे तो हो न सकेगा ऐसा सत्कार,

जिस संबंध की नीव है स्वार्थ
तो क्यो कहते हैं कि करते हैं परमार्थ,

कहते हैं आइना कुछ नहीं छुपाता
लेकिन चेहरे के पीछे छिपे चेहरे को भी तो नहीं दिखाता,

इस हकीकत को आप भी जानते हैं,
क्या अब भी कहते हैं
कि अपने आप पर
गुरुर होना बुरी बात है।

Tuesday, October 12, 2010

नहीं मरुँगा मैं....

जो जीवन की धूल खाकर बडा हुआ है,
जो तूफानों में ख़डा हुआ है,
जिसने धरती को सोने में बदला है,
जिसने वक्त और लोहे को मोडा है,
जो रवि के रथ का घोडा है,
कोई और नहीं खुद का वजूद है,
वह मारे नहीं मरेगा,
नहीं मरेगा वो,
नहीं मरने दूंगा उसे....
लगभग एक अध्याय ज पूरा हो गया मेरे उस जीवन वृतांत का तभी मैंने इन पंक्तियों को लिखा है। अभी तो और पूरा जीव को ही कागजों में समेटना है कुछ और पंक्तियाँ लिखता जाउगा। चलिए इसी बहाने आप से मिलते भी रहंगे।

Tuesday, October 5, 2010

एक नया अनुभव......

ये वाकया है 26 सितम्बर का है जब मैंने अपने तथाकथित हितैषी लोगों से बात की। बात करके मन मस्तिष्क सिहर उठा कि लोगों मन में कुछ और रखते हैं और बोलते कुछ और हैं। जो भी भगवान करता है , अच्छा करता है। मैंने पिछले 4 मार्च से अपने साथ हुए अनाचार और अत्याचार को शब्दों में पिरो चुका हूँ। जल्द ही एक किताब कहें या लम्बे अभिलेख के सिलसिले में आपके सामने पेश करुँगा।.......

Monday, September 13, 2010

एक बार फिर....

पिछले लगभग एक बर्ष से मैं आप से दूर रहा हूँ कुछ कारण थे इस आप बीती को मैंने शब्दों में बाँधा है जो कि अब एक किताब की शक्ल में बदल गई है। जल्द ही आपके सामने होगी मैं कोशिश करुँगा कि पहले आप के सामने ही लाऊ जल्द मिलूँगा आपसे। मैं अपने आप के साथ आप से भी ये प्रण लेता हूँ कि अब हमेशा आपके सानिध्य में रहूँगा दूर नहीं जाऊगा क्योकि बेहद तकलीफ झेल ली....

Sunday, March 7, 2010

माया ममता मोह जाल...


आपके सामने भी कई बार ये समस्या आई होगी कि किसी की भावनाएँ आपको कुछ करने ना करने के लिए उसका रही होंगी तो कभी रोक रही होंगी। या कोई इन बंधनों में बांधना चाहता होगा। मैं केवल और केवल माँ के साथ निस्वार्थ रुप से ममता के बंधन में जरुर हूँ। माँ भी मेरे साथ समान रुप से है। लेकिन आज कल समाज में और परिवेश मे इस तरह के अलग अलग बंधनों को बाँधने के लिए कई लोग तत्पर हैं जो दिखाने की कोशिश करते हैं कि मैं ही आप का हितैषी हूँ और आपका सबसे करीबी। गाहे बगाहे ज्ञान भी दे डालते हैं कि आप लोग अपने बुजुर्गों का ख्याल क्यों नहीं करते। लेकिन जब उनसे थोडा आग्रह ये उम्मीद करो तो उसी समय कहने लगते हैं कि मेरी तबीयत इतनी खराब है कि मैं तो बिस्तर से हिल ही नहीं सकता। ये हकीकत मुझे तब महसूस हुआ जब मेरे खुद के भतीजे की तबीयत ज्यादा खराब हुई। घटना होली के दूसरे दिन की है, अचानक से खराब हुए तबीयत को देख कर मैं भी घबरा गया। बदले हुए माहौल को देख कर अंदाज ही नहीं लगता था कि किया तो क्या किया जाए। लेकिन आनन फानन में डॉक्टर के पास ले गया और वहाँ भर्ती करा दिया। छोटे शहर का डॉक्टर डर के मारे इलाज में कोई कोताही नहीं बरतना चाह रहा था। हर संभव इलाज करके निश्चिन्त होना चाहता था। लेकिन क्लिनिक और हॉस्पिटल की अव्यवस्था को देखर विश्वास ही नहीं हो रहा था। उपर से क्लिनिक का इन्चार्ज डींगे हाकने में ही व्यस्त, कि अव्यवस्था के बावजूद राज्य के गवर्नर उसके क्लिनिक के दर्शन के लिए झुमेल लगाते हैं। क्लिनिक की अव्यवस्था को देखकर जल्द से जल्द भतीजे को वहाँ से ठीक करा कर घर ले जाने की फिराक में हम लोग थे। लिहाजा हम उस बिगडे व्यवस्था से जूझ रहे थे साथ ही भतीजे को जल्द स्वस्थ्य कराने की कोशिश भी।
इसी भागमभाग के बीच लगातार लोगों के फोन आते रहे हॉस्पिटल आने के लिए। समझ से परे था कि एक बीमार बच्चे से लोग मिलकर क्या जाहिर करना चाहते हैं या उसके परिवार वालों को ये दिखाने की कोशिश की आपकी चिन्ता हमें भी है। मैं कहता हूँ कि अगर सही में उनको चिन्ता थी तो शायद परिवारवालों से मिलकर अपनी बातों जाहिर कर सकते थे, तो शायद वो बेहतर होता। बार बार मुझे जताने की कोशिश कुछ समझ में नहीं आया। लगता है उन्होने अपने उस विचार को थोपने की कोशिश की कि वो मेरे वास्तविक हितैषी हैं। अगर शुभचिन्तक हैं तो मनषा कर्मणा और वचन से एक रहें दिखावा करने की चेष्टा ना करें तो बेहतर होगा। मैं तो कभी दिखावा में ना रहा और ना ही रहूँगा। लेकिन लोगों का आरोप है कि मैं ही दिखावा करता हूँ। खैर जो भी हो एक नया अनुभव दे गया ये वाकया। इस वाकये पर बरबस यही कहने को मन करता है कि जहाँ नहीं चैना वहाँ नहीं रहना.....

हकीकत ऐसा भी.....


हकीकत है कि कोई अपना कहने का आज भरे समाज में खोजने पर ही मिलता है। हर कोई यही कहता है कि संभव तभी है जब आप अपने पास हर किसी को देखे खोजे और समझे कि कोई तो है जो आप के पीछे दीवार की तरह अडिग है और जीवन भर रहेगा। लेकिन ना तो ये कभी होगा और ना ही ये समाज होने देगा। हमने बहुत सोचा कि इस बार तो विचार बदलेगा कुछ बातें हकीकत बनेंगी, लेकिन चालाक लोमडी की तरह एक दूसरे से आगे निकलने की होड में लोग कभी भी ये नहीं भूलते कि मानवता भी कुछ चीज है जिसे बडे मजे से जिया जा सकता है। सबसे बडा आश्चर्य तब होता है जब लोग जानते हुए भी इन बातों को दुहराते हैं जिससे ना तो सरोकार है और ना ही सुनने और महसूस करने में ही अच्छा लगता है। आप भी कहेंगे कि कहाँ बेसिर पैर की हाकने लगा है, कहीं कि बातें कहीं और जोड रहा है क्या कहेगा और करेगा क्या कुछ समझ में नहीं आ रहा है तो भाई मैं आप को बता दू कि मेरे कुछ अपने विचार थे उन्हीं को शब्दों के रुप में आप के सामने लाने की कोशिश कर रहा हूँ। विचार कहने से ज्यादा सटीक होगा कि ये वो हकीकत है जो खुद पर गुजर चुकी हुई है, इसलिए इसे अनुभव के दायरे मे रखना ज्यादा बेहतर होगा। आप के साथ के वो पल तो कभी भी हम नहीं भूल सकते हैं जब आपने हमें संबल दिया। संबल ऐसा वैसा भी नहीं, जब मैंने पब्लिक में लिखने की शुरुआत की उसी समय आप लोगों ने हौसले बढाए जिससे मैं और भी उत्साहित हुआ और बढचढ कर लिखने लगा। आपलोगों के हौसले ने मेरे लिए एक नई शुरुआत की काम की जिससे हमें लगने लगा कि आप मेरे परिवार के हिस्से हैं। ये ब्लॉग लिखने के पीछे वही कारण है, जिसे आप से मैं बाँट रहा हूँ।
आज मैं अपने उसी शहर में हूँ जहाँ पला-बढा, पढाई की और ढेरों मस्तियाँ भी, लेकिन ये शहर आज मुझे अनजाना सा लगने लगा है। चेहरे जाने पहचाने से लगते हैं लेकिन भावशून्य हैं। हर कोई बेगाना सा लगने लगा है, वो गलियाँ जिनमें भगा दौड़ करके दिन बीत जाया करता था अब नहीं लगता है कि वहाँ कभी वो उधम कूद हो सकेगी। हर कोई किसी स्वार्थ सिद्धि की लालसा में लगा रहता है। इन सबके पीछे कारण देखता हूँ तो लगता है कि बदलते समाज के चलते लोगों का नजरिया बदल गया है। कुछ परिवेश की राजनीति भी इसके पीछे का कारण है। जिसको मैं भली भाँति देख रहा हूँ समझ रहा हूँ लेकिन माहौल ऐसा है कि चुप रहना बेहतर समझ रहा हूँ आखिर देखें कब तक सहनशीलता जवाब नहीं हे पाता है। जब जवाब दे देगा उसी दिन संग्राम नहीं रण होगा जो बहुत भीषण होगा....

Friday, January 1, 2010

द्वार खोलो नया साल आया है....


नए साल की ढेरों बधाइयाँ, आप सबों को हमारी तरफ से साल 2010 बेहद तरक्की के साथ आनंन्द बिखेरे..
नया बरस के हर पल हर क्षण आप सबों का अभिमान बने,
रोज सरोज मास मधु पाखि संवत् सर अभिमान बने...।
एक नए संकल्प के साथ कि नए साल में आप इंडियानामा के जरिये ढेर सारी बातें बताउँगा.. एक बंधन में आप सबों को बाँधूगा जो कि आप को इंडिया के हर कोने से परिचित कराए... विदा मित्रों...