Wednesday, September 19, 2007
सेतू के पहरेदारों का सच .. भाग—2,
सेतू के पहरेदारों की हालत दिनों दिन बेहद खास्ता होते चली जा रही थी। उनकी गुहार थी कि भगवान इस बार उन्हें बचा लेंगे। इस बार कोई जाति और धर्म का मामला नहीं है। अब तो वो निराश होकर के कहने लगे, हाय रे राम जी कहाँ शेषनाग पर सोये हैं, यहां हमारी भद हो रही है,अब तो नींद खोलिए, हे सीता मईया आप ही भगवान से हमारे दुःख की कहानी कहिए। लेकिन सब कुछ बीतता जा रहा है,उनकी फजीहत में कोइ कमी नहीं आ रही है, ब्लकि अब तो उसमें इजाफा ही हो रहा है। देखे आगे आने वाले दिन उनपर कितने भारी होते हैं।
खैर एक बात तो मानना ही होगा कि शांत जल में कंकड डालने की कला भारत की राजनितिक पार्टियाँ बेहद तरीके से जानती हैं। कोई नया मुद्दा हो या ना हो गड़े भूत को उखाड़ने में उन्हें खूब मजा आता है। इसके पीछे भी एक गहरी सोंच है कि क्यों ये पुरानी बातों को दुहराते हैं। इसका सीधा जवाब हमारे बडे बुजुर्ग एक कहावत के रूप में देते हैं। वे कहते हैं पुराने चावल का ही पन्थ्य होता है। यानि बीमारी से निजात दिलाने की दवा पुराना चावल ही है,जो आसानी से पच जाता है। वही है कि पुराने मुद्दे बेहद आसानी से लोगों के दिमाग पर घर कर जाता है। पिछले कई दसकों में जो भी लोगों को बाँटने वाले मुद्दे हुए,वो सभी पुराने पन्नों में दबे मामले और घटनाएँ थी। इसके जवाब में कोई भी अपनी सफाई देने को न तो तौयार है ना ही बात भी करना चाहता है। उल्टे ही जनता पर ही दोष मढ़ा जा रहा है। पर्दे के पीछे से वार करने वाले कभी भी सामने आने की हिम्मत नहीं करते हैं, तो अब कैसे सामने आ करते हैं। जलते हुए राष्ट्र के पुरोधा आग में इसे झोक कर के चुपचाप तमाशा देख रहे थे। जैसे समुद्र में ज्वार भाटा को बाहर बैठ करके लोग देखा करते हैं। अब जलता हुआ छोड़ करके सभी किनारा करने लगे थे।
लेकिन बीच बहस में , इसके लाभों की कोइ चर्चा ही नही हुई। थोड़े संक्षेप में ही सही, कई अलग अलग रोजगार के अवसरों के साथ, विकास का नया अध्याय ही लिखा जा सकता है। हर बार 2500 किलोमीटर के सफर से भी बचा जा सकता है। थोड़े देर के लिए सेतू के बारे में प्रचलित पौराणिक बातों को ही सच मान लें तो भगवान कभी भी मानव के विकास के रास्ते में रूकावट बनकर नहीं आये हैं। ब्लकि एक रास्ते ही खोले हैं, तब हम और आप कौन होते है विरोध का स्वर खड़ा करने वाले। इतिहास और पुराण दोनों गवाह हैं कि परिवर्तन कृष्ण और राम ने भी किया था। जब जरुरत थी तो समुद्र
को ही सुखा देने पर उतारू थे। हम तो केवल रास्ता बनाने की बात सोंच रहे हैं। हमें तो चाहिए कि राम का नाम लेकर काम शुरू कर देना चाहिए।
सेतू के पहरेदारों का सच
राम के नाम पर राजनीति करने वालों के लिए जैसे भगवान ने एक नया जीवन दान ही दे दिया हो, सरकार रुपी माध्यम से राम सेतू नामक मुद्दा देकर के। समाप्ति के करीब पहँच चुकी पार्टी के लिए ऑक्सीजन का काम किया इस विकास की घोषणा ने। हर जगह एक बार फिर लोगों को भेड़ की तरह हॉक करके ले जाने की तैयारी शुरू हो गई और लोग फिर से मरने मारने पर उतारु दिखने लगे। सबसे पहले नजर में आयी सरकारी सम्पतियों को ही नष्ट करने का बीडा उठाया गया। देखते देखते आग राजधानी से छोटे शहरों की तरफ भी सुरसा की तरह अपना मुँह फैलाए पहुँचती गयी। सरकारी सम्पतियों को आग के हवाले करने में कोइ संकोच बचा ही नहीं। दुगने और चौगुने उत्साह से मौका मिलने पर आम जनता इस आग में घी डालने का काम करती रही। लेकिन सच्चाई से अन्जान और राजनैतिक पार्टियों का मोहरा बनते रही। जबकि मामले की हकीकत कुछ और बयान करती है।
भूगौलिक उथल पुथल के चलते एक स्थल से दूसरे स्थल के टूटने पर भी आपस में हल्की सी लकीर की भाँति दोनों जुडे रहते हैं। वही हाल भारत और श्रीलंका के बीच है। जबकि पुराण के हवाले से यह कहा गया कि लंका पर चढ़ाई के दौरान राम जी ने नल, नील और वानर सेना के सहयोग से एक पुल बनाया था। अब सवाल यह उठता है कि यदि पुल चढाई के दौरान बना था,तो लौटते वक्त उसका इस्तेमाल क्यों नही हुआ। जवाब तैयार मिला कि घर पहुँचने की जल्दी थी, और पुष्पक विमान भी जो मिल गया था। फिर भी बाद में किसी ने पुल का रास्ता, अपनाने की जहमत नहीं उठाई। विभीषण कभी भी पुल होने के वावजूद राम दरबार में नहीं आए। पुराणों को मानने वाले कह सकते हैं कि ,राज काज में व्यस्त हो गये सो आने में कठिनाई थी नही आ सके। लेकिन कोई निरा दूत भी तो नहीं आया। मतलब साफ है ,कही तो किवदन्ती के अनुसार पुल एक बार के उपयोग के लिए बना था। या बाद में समुद्र के पानी में बह गया। या यू कहें कि सच्चाई में बना ही नहीं था। अब थोथी राजनीति है साबित तो करना होगा ही कि पुल वहीं था और आज भी अपने अवशेष के रुप में मौजूद है।राजनेता अब लगे इतिहास और भूगोल दोनों को खंगालने मिला तो मिला नहीं, तो जय जय सीता राम करना ही है। खगोलशास्त्रीयों ने एक सिरे से सारी धारणाएँ खारिज कर दी फिर भी ये हैं, कि मानते ही नहीं। अबकी बार कुछ जोरदार खबर ले कर आने की तैयारी में है कि कहीं से फिर रामलला का कोई प्रतीक मिल जाए कि विकास विकास चिल्लाने वाले नास्तिकों के मुँह पर करारा तमाचा जड़े। अगली गुहार के लिए अगले क्रम में मुलाकात होगी........
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