Monday, April 28, 2014

क्या पाप तीर्थाटन से कम हो जाता है ?


मेरे समझ से ये बात बेहद परे हैं कि अगर आप अपराध करते हैं और उसे कम करने के लिए तीर्थाटन करते हैं तो कम हो जाता है। हाल फिलहाल में मैं कई लोगों से मिला, जो साल में पूरे दल बल के साथ तीर्थाटन पर निकलते हैं। तीर्थाटन कम उनके लिए पिकनिक ज्यादा ही रहता है। एक समय था जब समाज को दिशा देने वाले लोग तीर्थाटन के लिए जाते थे और बेहद ही संजीदगी से वहां की बातों को लोगों को अवगत कराते थे, और बेहद ही शालीनता से कुछ बातों पर अमल कराने के लिए लोगों को प्रेरित करते थे। लेकिन अब लगता है कि समय बदल गया। वैसे भी सरकार अध्यात्मिक दुरिज्म के लिए कई तरह के प्रयास कर रही है। लेकिन इन रास्तों पर जाने वाले विरले ही अध्यात्म के संगी साथी होते हैं, शायद ही उन्हें अध्यात्म से कोई सरोकार हो वो तो बस एक बहाना भर बना लेते हैं अपने पिकनिक मनाने का चल पडते हैं दल बल के साथ अध्यात्मिक दुरिज्म पर। इन रास्तों पर जाने वाले कोई साधारण इंसान ही नहीं होते जाने माने ज्ञानी लोग भी होते हैं। वो भी अपने आसपास के लोगों से प्रभावित रहते हैं और इस राह पर बह निकलते हैं।
                       हाल ही में रामदेव बाबा ने राहुल गाँधी के दलितों के यहाँ हनीमून मनाने की बात कही जो निश्चय ही अशोभनीय थी। लेकिन ये धुम्क्कड कैसे भक्त हैं जो अध्यात्म के नाम पर जाते तो हैं तीर्थ स्थलों पर और डूबे रहते हैं अपने ही रंग में। दरअसल इसमें एक बेहद सूक्ष्म पहलू मुझे समझ में आता है शायद आप भी इसे समझ सकते हैं ये एक तरह से नेटवर्किंग का जरिया बन गया है। क्योंकि अगर आप किसी के साथ साथ सफर करते हैं या यो कहें कि कुछ दिन साथ साथ बीताते हैं तो एक दूसरे के करीब आते हैं, और इस ग्रुप यात्रा में कुछ चालाक किस्म के लोग इसी करीबी का फायदा उठा कर अपनी स्वार्थ सिद्धि कर लेते हैं। शायद रामदेव बाबा भी इसी तरफ इशारा करना चाहते थे कि दिखावे के लिए राहुल जाते हैं दलितों के यहाँ लेकिन अपनी स्वार्थसिद्धि के हर अवसर  को अपने पाले में करने के लिए कोई कसर नहीं छोडते।
                        ये तो एक पहलू था अब मैं दूसरे पहलू की तरफ आपको मोड रहा हूँ। समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो ये मानते हैं कि अपराध, छल, किसी के प्रति अत्याचार, किसी के हिस्से को छीनना, झूठ बोलना ये उनकी दीनचर्या या यो कहें उनके रोज मर्रे का काम है। लेकिन अचेतन मन के किसी भी कोने में ये बातें उन्हे कचोटती जरूर है कि छल से ही उन्होने अपनी उपलब्धि हासिल की है दूसरी ओर इस कचोटते मानस की ग्लानि को कम करने के लिए दान पुण्य और तीर्थाटन को निकल पडते हैं। मैं लगभग 12 साल पहले ऐसे ही एक व्यक्ति से मिला था। जिसकी कही बातें मुझे आज भी याद है कि मैं साधु सन्तों के दरबार में इस लिए जाता हूँ कि वहाँ आने वाले कई तरीके के लोगों से मिल सकूँ और अपने उद्योग के बढावे में उनकी सहायता ले सकूँ। मैं आश्चर्य से उससे पूछ बैठा क्या वो सन्त इसकी अनुमति देते हैं कि तुम ऐसा करो। उसने साफ साफ कहा कि सन्त की मैं सेवा( उन पर हजारो रुपए खर्च) साल भर करता हूँ तो उनको सहमति देनी ही पडेगी। आपको दोनों पहलुओं से अवगत कराया। लेकिन सवाल अपनी जगह पूर्ववत है कि क्या सचमुच इस तरह के तीर्थाटन से पहले से किए गए पाप कम हो जाते हैं। आपकी राय भी मैं जानना चहूँगा।
मेरी राय में उनके पाप कम नहीं होते बल्कि उस पाप के सहभागी कई और लोग हो जाते हैं क्योकि पीडा किसी एक व्यक्ति ने दी थी। लेकिन उसे दण्ड कहें या सही राह पर चलने की मशविरा देकर सुधारने के बजाए उसके सुर में सुर मिलाने वाले कई लोग सहायक हो गए।
                          कई जगहों पर घूमते घूमते मैनें इसे महसूस किया .. हो सकता है कि मेरे विचार गलत हों लेकिन अधिकांश लोगों से बातचीत करने पर पता चला कि उनके विचारों , और मेरे विचार में सामंजस्य है।....