Wednesday, December 8, 2010
माँ रेवा से माँ गंगा तक....
कुछ दिनों पहले ही मैं कुछ दिन पहले ही अपने पसंदीदी गानों को सुन रहा था। जिसमें इंडियन ओसियन का माँ रेवा जो कि मेरा पसंदीदा है वो भी सुनने को मिला सुनते ही अपने पावन भूमी बनारस की यादें तरोताज़ा हो गई। हर बार की तरह ये लगने लगा कि आखिर गंगा से इतनी दूर आ गये हैं फिर भी आज भी चिरपरिचित तस्वीरें आँखों के सामने घूमने लगती है। आखिर इसका कारँ यही है कि हम माँ जो कहते हैं, तो माँ से कितना भी दूर क्यों ना चले जाए भूलना तो संभव हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि नदियाँ सचमुच माँ के समान होती हैं। इसलिए इनके नाम भी होते हैं, माँ रेवा या माँ गंगा । जमाने बदलते गए हैं, नदियों में प्रदुषण का दबदबा इतना बढ गया है कि नदियाँ कब गड्ढों में तब्बदील हो जाती हैं कहना बेहद मुश्किल है। सरकार अपनी लाचारी बताती रहती है लेकिन इसके पीछे कोई ठोस कदम नहीं उठाती है। हमेशा ही नियमें बनते हैं, बैठके होती हैं लेकिन कभी भी इस दिशा में काम नहीं होता है कि ये कहा जा सके कि हाँ सरकार ने माँ स्वरुपा नदियों को इज्जत बढाई।
मेरा ये लिखने का उद्देश्य ये नहीं था कि आपको ये बताऊ कि नदियों के क्या हालात हैं। मैं आपको बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि नदियों की पवित्रता और आपसी सौहार्द को खत्म करने के लिए अब कई तरह के हथ कंडे अपनाए जा रहे हैं। बनारस का बम धमाका एक उदाहरण है। इसे देख कर यही लगता है कि ये एक सोची समझी चाल है जिसे अंजाम दिया गया उन मानवता के नाम पर कलंक लगानेवालों के जरिए। बनारस की गंगा आरती को अगर कोई एक बार देखे तो जीवन में हर बार देखने की चाह लगी रहेगी ये मेरा दावा है। इसके पीछे कारण है कि गंगा का आकर्षण ही उस व्यक्ति को वहाँ तक खींच ले जाएगा। आँखों में वो अनुभूति तो कैद होती ही है, साथ में मानसिक संतोष भी पहुँचाती है जिसका वर्णन करना शब्दों के घेरे में नहीं है। सात दिसंबर को जो बनारस में हुआ उसने कई सवाल खडे कर दिए। गंगा जमुनी संस्कृति वाले शहर में इस तरह के घटना को अंजाम देने वालों का उद्देश्य यही होगा कि किसी तरह पूरे देश में सहयोग और आपसी बंधन के माहौल को बिगाडा जाए। कोशिश भरपूर रही लेकिन उनके कामयाबी को नाकामी में बदले का दायित्व हमारा है। थोडा संयम हमें बरतना होगा और इस मानवता के दुश्मनों को करारा जवाब देना होगा जिससे ये फिर ऐसा कदम उठाने की हिमाकत ना कर सके। मुंबई, अहमदाबाद,दिल्ली, वाराणसी को अभी भूले भी नहीं थे कि गंगा की नगरी में एक बार फिर वो दर्द दे दिया गया जो हमें अपनों को ही शर्मशार कर रहा है। इतने कडे प्रबंध के बाद फिर से ऐसी घटनाएँ यही जाहिर करती हैं कि सरकार भी कहीं ना कहीं लचर है जिससे बार बार ऐसी दिल दहलाने वाली घटनाएँ सामने आती हैं।
इस विचार का अन्त यही है कि माँ रेवा से लेकर माँ गंगा तक की भूमि आज सुरक्षित नहीं है। मनुज पुत्रों तुम चेतों और साथ में अपने उन लोगों को भी सुरक्षित करो जो तुम्हारे करीब हैं....
Sunday, December 5, 2010
हमारी लाचारी..
कल मेरे एक मित्र से बातचीत हो रही थी, बात कब हमारे देश की राजनीति तक पहुँच गई पता ही नहीं चला। लेकिन बातें दिलचस्प थी। अन्त में उन्होने कहा कि भाई अपनी बातचीत को विराम देते हैं और चार पंक्तियाँ भी उन्होने साझा की । वो पंक्तियाँ आपको भी मैं सुना रहा हूँ.....,
देखने में लगता हूँ बीमार,
हो सकता है आप भी मुझसे करें तकरार,,
लेकिन मेरा भी मन करता है करने को प्यार,
पर क्या करुँ मैं भी हूँ,
मनमोहन सरकार की तरह लाचार,इन पेक्तियों में रहस्य बेहद गहरा है लेकिन इसे जाहिर करना उतना ही जोखिम भरा है जितना इसके नहीं जाहिर होने से । आपको केवल और केवल तुकबंदी लगे।...
Saturday, December 4, 2010
माँ रेवा...
Kandisa, हकीकत है नदियाँ हमारी लिए माँ से कम नहीं । लेकिन ना तो आज हम माँ को ही याद कर रहे और ना ही अपनी इन नदियों को लेकिन जरुरत है अपनी संस्कृति से जुड अपने आप का उत्थान करे साथ ही लोगों को इससे अवगत भी कराएँ। इसी प्रयास में मैने इंडियानामा में इंडिया के कोने कोने से कुछ संगीत आपको सुनाने की चेष्टा कर रहा हूँ ।आप अपने विचार जरुर बताएँगे...।
दुनिया हमारी कदम में.....
Hille Le
ये हमारी कदमों की आहट है, मैंने इसे अपने परिश्रम के काल से सुनते आ रहा हूँ आप भी इसे सुनिए शायद आपको पसंद आए... ये उन कर्मठ लोगों की दास्तां है जो हवा का रुख बदलने का दम रखते हैं.....।
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