Tuesday, September 4, 2007
बाढ़ का कष्ट
हर बार कुछ अच्छा लिखने की चाहत रहती है, लेकिन दुर्भाग्यवश नियमित रुप से कुछ लिख पाना संभव नही हो पाता है। आपा धापी की जिन्दगी में व्यक्ति भूल जाता है कि कुछ मन के हिसाब से भी करना चाहिये। खैर देर आये, आये तो सही। आस पास बहुत कुछ घट चुका, बड़े लोगों ने कलम तोड़ कर लिखा भी है। लिखावट की बाढ़ सी आ गयी है। अरे हॉ बाढ़ से याद आया, देश के एक बहुत ही बड़े हिस्से के लोग बाढ़ की विकरालता से जूझ रहे हैं।
धुरन्धर नेता लोग अपनी रोटी सेकने का कोइ भी मौका हाथ से निकलने नहीं देना चाहते । झपट पड़े हैं मौके को अपने हक में भुनाने के लिए। कही कोइ सहायता बांटने की वकालत कर रहा है तो कहीं कोइ जनता का हाल लेने पहुँच रहा है अपने उड़न खटोले में सवार होकर के । लेकिन अपना अंदाज भी दिखा गये कि भाई अब हम प्रदेश के नहीं देश को चलाने वाले हैं। हम कहीं भी कुछ कर सकते हैं,चाहे उड़न खटोले को क्यों ना सड़क पर ही उतार दें। कोइ बोल कर के तो दिखाए, मजाल है एक चूँ की भी आवाज निकल पडे। यदि आवाज निकलेगी भी तो मंत्री जी अपने अंदाज विशेष से उसे हँसी ठट्ठे में उड़ा देंगे। हुआ भी वही , विरोधी पक्ष चिल्लाता रहा मंत्री जी ने कहा अंगूर खट्टे हैं इसलिए लोग अपनी भंडास निकाल रहें हैं। खैर बात आयी और गयी लेकिन लोंगो को मिला कोरा छलावा। अपने लोंगों को भी नहीं मिला कोइ निदान, अब दौर चला सरकार पर दोषारोपण करने का।
ताज्जुब तब होता है जब प्रदेश मुख्यमंत्री को विदेश दौरे से फुरसत ही नहीं मिल रही है। लौट कर आने पर अपनी जनता की सुध लेनी चाही और जनता को राह चलना सीखाने लगे। एक बार फिर राहत का सिलसिला चलाने की शुरूआत हुई। इस बार राहत कार्य का काम किसे सौपा जाए एक सवाल बन गया। मन बे-मन से काम सरकारी देखरेख में करवाना शुरू हुआ। ठेकेदारों को इसमें कोइ मलाई जो नहीं मिलनी थी सो काम में केवल खाना पूर्ति किया गया। पखवारे भर लोग घरों में दुबके रहने को मजबूर रहे, गॉव देहातों में तो लोग नित्य क्रिया को भी पूरा करने में असमर्थ रहें। फिर भी कोइ ठोस नतीजा नहीं निकला। हर बार यही होता रहा है चाहे कम विकसित प्रदेश हो देश की आर्थिक राजधानी ही क्यों ना हो। एक बार फिर सारे दावे खोखले साबित हुए है। सरकार , आबादी के एक तिहाई लोगों के दुख दर्द से क्यों बेखबर है यह विकट मसला जनता सहित विचारकों के लिए अब अनसुलझा बना है। सब माया है, माया तू बड़ा ठगनी।
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