Wednesday, September 5, 2007
गोकुल अष्टमी के बदलते स्वरुप में अपनी जिम्मेवारी
एक जमाना था,जब कान्हा ने भी मटकी फोड़ी थी,लेकिन वो वक्त था द्वापर का । मटकी फोड़ने का चलन तो आज भी है लेकिन कलयुग में इसके मायने बदल गए हैं । खासकर मुंबई में तो यह राजनीतिक पार्टियों का मात्र प्रचार का स्टेज भर रह गया है। इसकी रही सही कसर फिल्मी अभिनेताओं ने निकाल दी है। मुझे तो यहां हर कोई उत्साह बढ़ाने के बहाने, अपनी ही मार्केटिंग करता नजर आया। खत्म होते गये तो वो मायने, जिसे लेकर इस उत्सव को सोल्लास मनाने की परंपरा को बढ़ावा मिला। फिल्मों में दिखायी गयी गोकुलाष्टमी हकीकत से कोसों दूर होती है ,लेकिन लोग उसी में जीना चाहते हैं। राजनेता भी अपना फायदा इसी में देखते हैं, जिसके चलते वे बड़े से बड़े आयोजनों का बढ़ावा देते हैं। भले ही आधुनिक गोपाल शिष्टाचार के हदों को पार कर जाएं । लेकिन ऐसे ही गोपाल गोकुलाष्टमी के बहाने मटकी फोड़ने को बेताब नजर आते हैं। पल भर ये गोपाल यह भूल जाते हैं कि कल से फिर उसे नमक तेल लकडी के जुगाड में जुटना होगा। औऱ आज उत्साह बढ़ाने को जुटे नेता राजनेता कहीं आसपास भी नजर नहीं आएंगे।
लोकनमान्य तिलक के प्रोत्साहन से शुरु हुए ऐसे सार्वजनिक उत्सवों में जन जन से जुड़ाव के साथ साथ देश के परम्पराओं की झलक दीखती है। गोकुलाष्ठमी के दौरान मटकी फोड़ना भी मस्ती,सार्वजनिक उत्सव,समान अवसर को देने की कोशिश,और एक दूसरे को आगे आने का मौका देने के अलावे यह आम जन को बेहद करीबी रिश्तों में बाँध देता है। इन रिश्तों की गर्माहट फिर से महसूस करनी और करानी होगी हर किसी को तभी तो सही मायने में इस त्योहार के साथ न्याय हो पायेगा। वक्त के बदलते करवट में भले ही नेता अपना फायदा देखें,लेकिन हमें साथ चलने के मौका को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।
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