Monday, June 30, 2008

भारतीयता भूलते भारतीय...


हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमारे इंडियानामा में इस विषय पर भी लिखना पड़ सकता है कि भारत में ही भारतीयता से कोसो दूर जा चुके हैं धरती के लाल। लाख कोशिशों के बाद ना तो वो दर्जा मिल रहा है ना ही वो आधार जो कि एक सम्मान का जगह भी दिला सके। हाताश मन अपने आप में ही इन बातों का अर्थ ही ढूँढने लगता है कि क्या होगा। आखिर क्यों ये बातें हो रही हैं ? कहीं प्रयास की दिशा तो सही नहीं है, या मेरे प्रयास को लोग गलत समझ रहें हैं। हर किसी को यही समझाने की कोशिश करता हूँ कि पहले आप भारतीय हैं बाद में आप किसी प्रांत और कस्बे से जुडे हैं। आपकी पहचान भारतीय होने से है ना कि किसी प्रांत विशेष की बातें सबसे पहले आती है।
अब आखिर ये बातें उठती हैं तो इसके पीछे कारण क्या है कुछ बातें धुँधली सी नजर आने लगती है कि ये और कुछ नहीं केवल और केवल राजनीतिक सोंच है जिसे एक दूसरे पर हावी करने की मंशा होती है। ये हालात भले ही क्यों ना एक जगह की हो लेकिन यह बेहद आम बात है कि अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए लोग बराबर एक दूसरे के छाती पर पैर रखते हैं जिससे तकलीफ उन्हें कम उनको देखनेवालों को ज्यादा हो। आखिर आप कह सकते हैं कि मैं इन बातों को आपके सामने क्यों ला रहा हूँ। तो जाहिर है कि मेरा ध्येय है कि बहुजन हिताए और बहुजन सुखाए। लेकिन इस सारे गतिरोध में कौन हितकर्ता है और कौन दोषी ये तो कहना बेहद ही मुश्किल होगा कि और इसका मंजिल क्या और भी कठिन हैं। बचपन का एक द्वन्द है जिसे मैं आप तक पहुँचाने की कोशिश करता हूँ, हरबार एक चाहत होती है कि मैं अकेला क्यूँ रहूँ क्यों ना कोई साथी ढूँढू और उसके साथ अपने विचार की एक एक बारीकियों को खोल दूँ। लेकिन सामनेवाले का विचार देख कर सारे सपने चूर-चूर होते नजर आते हैं। हर बार खुद को मैं दोषी नहीं मान सकता कि आखिर क्यों ऐसा हो रहा है। जब साथ साथ दिन बिताए लोग ही खुद को किनारा करने लगे तो अपने आप को उपेक्षित सा समझना वाजिब है। आखिर क्यों सवाल बड़ा है, ये मेरे समझ से परे है। मन छोटा हो जाता है कि कहाँ तो सोचा था कि हर किसी के दिल से दिल को जोड़ दूँ लेकिन जब खुद को ही किनारा किया हुआ महसूस करता हूँ तो सारे काम काज ठप्प हो जाते हैं।
हमारे पुरखे बहुत पहले ही कह चुके हैं कि दिल से दिल को मिलाओ ना कि उपर ही उपर और अन्तरात्मा को भूल जाओ। पैसा कमाने से ज्यादा लोग कमाने पर तवज्जो दो लेकिन यहाँ तो हर कोई अपनी ही धुन में खो जाता है कि किसको फुरसत है आदमी पर ध्यान दे। बस चले तो उसे रौंद कर आगे बढ जाये बिसात ही कहाँ कि कोई चूँ भी कर दे।हम अपनी कमजोरी समझते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि सामनेवाला हमारी स्थिती पर ध्यान नहीं देता। हमेशा वो नजर गडाये ही रहते है अपनी तो स्थिती यही है कि कुछ ना होते हुए भी सब कुछ मान लेना पड़ता है कि सरासर मेरी ही गलती है। अब चुप बैठना उचित नहीं है, जितना जल्द हो सके लोगों को जगाना होगा कहीं देर ना हो जाये और आने वाली पीढी बहुजन हिताए के बदले निज़ स्वार्थ को ही सर्वोपरी माने.....मानव से मानव को जोडो....

Monday, June 9, 2008

क्या कोई पितृ घातक भी हो सकता है.......?


ऐसा हम आये दिन ही सुनते हैं, ये कोई नई बात नहीं है। लेकिन सवाल उठता है उस बेटे के बारे में जो अपना जीवन ही परिवार और माता पिता के लिए छोड दिया वो कभी अपने आदरणीय पिता का घातक हो सकता है क्या ? इसका जवाब हमें नहीं मिला। लेकिन अगर गंभीरता से इसपर विचार करें तो सारी हकीकत समझ में आ जायेगी। पहले एक वाकया आपको बताता हूँ। बात कोई बहुत ही ज्यादा पुरानी नहीं है, यही कोई दो चार साल पहले की है। एक जानकार थे नाम था ब्रह्मदत्त राय अपने तीन पुत्रों में सबसे ज्यादा स्नेह था अपने दूसरे बेटे से।लेकिन एक-एक कर जब बेटे उनसे अलग होने लगे तो वो अपने आप को मरा हुआ समझने लगे। किसी को उन्होंने कुछ नहीं कहा। लेकिन जब दूसरा बेटा अलग होने लगा तो उन्होंने आग्रह किया कि बेटा छोड़कर जाने से पहले मेरा पिन्ड दान करके जाओ पता नहीं राम ना करे अगर कहीं लौट के ना आ सके तो कमसे कम मेरा, तुम पिन्ड दान तो कर ही चुके रहोगे । अब हम अगर बात करें पितृ घातक की तो लोगों ने ब्रह्मदत्त जी के दूसरे बेटे को ही माना क्योकि उसी में उनका स्नेह बसा था और उसी के जाने के बाद उन्होने प्राण त्याग दिये। ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं था और यह सब कुछ अचानक सा हो गया। ज्यादा स्नेह दूसरे बेटे से होने के चलते सभी उसी को अपने पिता का प्राणघातक मानने लगे थे। सबों के जाने के बाद ब्रह्मदत्त जी पर कोई असर नहीं पड़ा, लेकिन दूसरे बेटे के जाने के बाद तो सारी कायनात ही बदल गयी।
इस घटना ने तो खासकर मुझे तो मेरी अन्तरात्मा तक को झकझोर दिया। लेकिन बातों की गहरायी में गया तो मैं दोष किसको दूँ यह तो समझ से परे हो गया। दोनों ही एक दूसरे पर अपने-अपने प्राण न्योक्षावर करने को तैयार थे, लेकिन उनको घातक की संज्ञा देना मेरे दिमाग पर मनो बोझ सा लग रहा है। बात की गहराई में गया तो समाज में मौजूद घूटन सामने आ गया। सेवानिवृत होने के बाद ब्रह्मदत्त जी की जिन्दगी बिल्कुल ही कठिन हो गयी थी। पत्नी का देहांत होने से पहले ही टूट चुके थे। अब सामाजिक धारणाएँ उनके जीवन को और भी कष्ट दायक बना दी थीं। हालात यहाँ तक आ पहुँचे थे कि उन्होने कई बार घर की परेशानियों से तंग आकर के आत्म हत्या करने का भी प्रयास किया, लेकिन दूसरे बेटे के प्रयास ने उनको सारी कठिनाइयों से बाहर निकाला, तब से उससे और भी ज्यादा स्नेह बन गया। बेटे का बाहर निकलने का भी एक कारण बना घरेलू कलह, जिससे बहुत पहले अपने प्राणों को त्याग देने वाले व्यक्ति को इससे कोई मोह रहा ही नहीं और फिर इस दुनिया को छोड़ चला। ये सारी बातों मेरी आँखो के सामने चलचित्र की भाँति घूमती रहीं है जिससे मैं खुद को कभी भी व्यवस्थितसा नहीं महसूस कर पा रहा हूँ। हर बार ब्रह्मदत्त जी के दूसरे बेटे के बारे में सोंचता हूँ तो उसके प्रति हो रहे अन्याय को अपने उपर ही मानता हूँ। लेकिन मैं उस व्यक्ति को पितृघातक तो कतई ही नहीं मानता हूँ। क्या समाज अपना सोच नहीं बदल सकता ? जो मातृ और पितृ देवो भवो मानता था वो घातक कैसे गो सकता है , क्या पूरा परिवार जिम्मेवार नहीं है........?

जो देखा नहीं वो भी अपना लगे….


क्या आपको कभी ऐसा लगता है कि जब किसी दूरदराज़ में बैठे व्यक्ति से बात करते हैं, तो लगता है कि उससे पहले भी मिल चुके हैं या यूँ कहें कि वर्षों से उसे जानते हैं। मेरे साथ तो यह हमेशा ही होता है। मैं शहर दर शहर तो शुरुआती दौर से ही भटकता से रहा हूँ। इसी घुम्मन्तु प्रवृति के चलते कई बार नये नये लोंगों से मिलता रहता हूँ। कई बार फोन पर भी बातें करता रहता हूँ। हर बार एक नया ही दोस्त बना लेता हूँ। अनेक दफ़ा तो यही लगता है कि जिस व्यक्ति से मैं बाते कर रहा हूँ उससे तो वर्षों पहले मिल चुका हूँ और वो तो जैसे मेरे बचपन का ही दोस्त है। मैं पहले ये गौर नहीं कर पाता था लेकिन साल 2007 से इन बातों पर गौर किया तो पता चला कि हू-ब-हू ये बाते सोलहो आने सच हैं। वाकया यूँ सामने आया कि काम के सिलसले में मेरे हेड ऑफिस से मिला ऑडर ने ऑडर देनेवाले के आवाज़ में ऐसा अधिकार जता दिया कि, मैं तो उसे वर्षों से जानता हूँ। उस आवाज़ में पता नहीं क्या ऐसी बात लगी कि मैं तो समझ गया कि भाई दसकों से बिछड़ा यही मेरा वो दोस्त है, जो कि बचपन में बनारस से तबादला होने की वजह से बिछड गया था। बार बार उससे बात करने का मन करने लगा। लेकिन नया कार्य क्षेत्र होने के वजह से ये संभव नहीं हो सका। खैर काम के आपा धापी में मैं वो सारी बातें भूल गया। रह गया याद तो केवल और केवल वह आदेश। आगे का किस्सा सुनाऊँगा फिर कभी क्यों कि उसी ने जीवन में एक अच्छे दोस्त की कमी को पूरा किया है। उसने हम से कुछ माँगा नहीं है बस दिया ही दिया है। और मैं अभागा उसे आज तक कुछ भी नहीं दे पाया हूँ।
खैर बात ये है कि जिसे आप देख भी नहीं पाते हैं वो भी आपको अपना लगने लगे तो कैसा लगता है। मेरे दिमाग से वो एक कडी होती है एक दूसरे से जोडने की। मस्तिसक के लाख कोशिकाओं में हलचल होने लगती है, तरंगे अपना काम और ही तेजी से करने लगती हैं। शायद ये केवल मेरा मानना हो लेकिन कल्पना किजिए कि जिसे आपने देखा तक नहीं वो अगर आप कोई काम बिगाड़ देता है तो आप उससे गुस्से के मारे आपे से बाहर हुए जाते हैं अगर वही व्यक्ति आपसे माफी माँग लेता है तो आपका सारा गुस्सा काफूर होकर के गायब हो जाता है। लेकिन कई बार आपकी इस भावना का गलत इस्तेमाल भी होता है। हाल ही में एक टेलीफोन कम्पनी ने इसी भावना को विज्ञापन के रुप में इस्तेमाल किया है। कोई महालिंगम साहब हैं जो इस भावना को रख कर एक सर्विस देने वाली कम्पनी में फोन करते हैं जहाँ लोग आवाज़ बदल कर उनसे बातें करते हैं बदले में फोन को सुननेवाले लोग टाकटाइम पाते हैं। ये बात तो विज्ञापन की है लेकिन अगर इसके सही मायनों में लिया जाए तो आज भी लोग टेलीफोन पर यही कहते मिल सकते हैं....देखा भले ही ना हो लेकिन तुम तो लगे प्यारा ।