Wednesday, September 10, 2008

अब तो बस करो.....


साल 2007 से लेकर अब 2008 का सितम्बर माह आ गया है लेकिन, आपसी लडाई है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। लोग हैं कि एक दूसरे को मरने मारने से पीछे नहीं हट रहें हैं। हर बार केवल एक ही मुद्दा कि महाराष्ट्र में हो तो केवल और केवल मराठी ही बोलनी होगी। क्या ये देश का अभिन्न अंग नहीं है, मानता हूँ कि लोग कहेंगे कि जिस जगह प्रांत में रहते हो तो वहाँ का सम्मान तो करों। तो इसमें लोगों को हर्ज क्यों हो रही है। हर बार ये क्या कहना जरुरी होता है कि बाहर से आये लोग यहाँ का सम्मान नहीं करते। मेरे समझ से ये केवल और केवल मुद्दा राजनीतिक बनते जा रहा है। अपनी राजनैतिक रोटीयाँ सेकने के लिए लोग एक दूसरे के खिलाफत सहित मरने मारने पर उतारु हो रहे हैं। पिछले दिनों या यों कहें हर बार जब बंद और विरोध होते हैं तो ये सबसे पहले सरकारी सम्पतियों का निशाना बनाते हैं और उसको तबाह बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। तब कहाँ चली जाती है प्रदेश प्रेम कहाँ रह जाते हैं सम्मान करने के वादे। मैं खुद महाराष्ट्र का नहीं हूँ लेकिन मुझे गर्व है कि मैं देश के उस हिस्से में रहता हूँ जहाँ आजा़दी के बाद ढोरों प्रगति हुई है। इस प्रगति में केवल और केवल इसी प्रदेश के लोगों का हाथ नही है। सबों का सम्मिलित प्रयास है। यहाँ के हिमायती कह सकते हैं कि आप अपने प्रदेश वापस चले जाओं मैं चला जाउगा बेहिचक नहीं रुकूँगा लेकिन एक जवाब जरुर दे दें कि आखिर जो हिमायती है वो बता दें कि आजा़दी में उनका क्या योगदान रहा है। हम तो यह कह रहे हैं कि भले ही प्रयास किया या ना किया अपने प्रदेश के ।उन पहलुओं को भी हमने उन लोगों को बताया जो इस बार में जानकारी ही नहीं रखते थे। लेकिन आप में से कुछ ही लोग हैं जो अपनी संस्कृति के हर पहलू को बाहर से आये लोगों को अवगत कराते हैं।
जब आप अपनी संस्कृति में उनलोगों को समेटेगों नहीं तो वो हरबार अपने आप को उपेक्षित सा समझेंगे। जिससे मन में द्वेष फैलना वाजिब है। ऐसा नहीं है कि यही एक तरीका है ,सबसे इन राजनीति के रोटी सेकनेवालों पर पाबंदी लगाया जाए जिससे अपने आप ये खुद के खोल में ही दुबके रहें। जिससे उन्हें अपने मुँह की खानी पडे। ये शुरुआत से ही लक्षित है कि जिस काम को दबाव के साथ आप करवाना चाहते हैं, वो कभी भी नहीं होता है। आपस में ही मतभेद होने लगते हैं जिससे एक दूसरे पर भड़कना स्वाभाविक है लोग आपस में ही गुत्थम-गुत्था करते रहते हैं। हर बार एक मन में ग्लानि लगती है कि क्या यही वो कल्पनाएँ थी हमारे अपने पुरोधाओं के, ये सारी स्थिती को देखकर शर्म आती है। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि फिर से हम आपसी द्वेष के दौर में जी रहे हैं जहाँ केवल और केवल आपसी रंजिश ही हावी है ना कि आपस में कोई सदभावना है।
मैंने अपने मन का उद्गार आपको बताने की कोशिश की है हो सकता है कि आप इससे सहमत ना हो लेकिन ये बात जरूर है कि आप जब दूसरे को खुले दिल से स्वीकार नहीं करेंगे तो दूसरा आपको दिलखोल के कैसे स्वीकार करेगा। हमने तो कभी दिल के दरवाजे को बन्द नहीं रखा लेकिन ये बाते इतने झकझोर रहीं हैं कि ये क्या हो रहा है... अब भी ये बन्द तो करो राजनेताओं अपने लाभ के लिए हजारों लोखो लोगों को जलते हुए आग में झोकने के बाद भी दिल नहीं ठंढा नहीं हुआ... मीडिया भी तो बाज आए इनको लाभ पहुँचाने से.....।

Tuesday, September 9, 2008

हर बार कि तरह एक बार फिर बेबस......,


साल दर साल लोग भले ही प्रगति करते जाए लेकिन हर बार कि तरह प्रकृति के आगे वेबस हो ही जाते हैं। बचपन से सुनते आ रहें हैं कि मधेस इलाके की शोक है कोसी। कुवांरी नदी कही जानेवाली कोसी के रौद्र रुप को देखकर भय लगना स्वाभाविक लग रहा है। हरबार की भांति अब स्थिती नियंत्रण से बाहर निकलती जान पडती है। हलाकि सरकार के हिसाब से सलाना इससे निबटने के लिए लाखो रुपये भी सरकार खर्च करने से गुरेज नहीं करती है, लेकिन आज के हालात में सब बेमानी नज़र आते हैं। हम उन्हें पिछडा कहे या भ्रष्टाचार में गले तक डूबे हैं ये कहे कुछ स्पष्ट नहीं है। लेकिन हाँ इतना जरुर कह सकते हैं कि वर्तमान बिहार सरकार के नियत में ही खोट है, जिससे मदद के हाथ ना तो बढ रहें हैं और ना ही सही मायनों पर मदद ही मिल पा रही है। लोग कि स्थिती देख कर ना कि दया भाव उमड़ता है ब्लकि क्षोभ होता है कि यही सरकार है जो खुद को जनता का हम दर्द कहती है। लेकिन सतहीतौर पर काम करने में वो बेहद ही नाकारा साबित होते हैं। अपने ही लोंगों के सामने ऐसी बातों को सामने लाते हैं कि यह कहना बेहद मुश्किल हो जाता है कि ये क्या करना चाहते हैं सचमुच ये मदद करना चाहते हैं या मदद के नाम पर कोइ ढोंग। हकीकत में ये मदद से ये कोसो दूर हैं केवल और केवल बस छलावा ही करते रहते हैं।
ये कोई मामूली बात नहीं है,कि लगभग 30 लाख लोग और 200 किलोमीटर तक बाढ की विनाश लीला फैली पडी है। हरबार ये एक ना एक नया बहाना बडी आसानी बना डालते हैं। इस बार का बहाना है कि कोशी के बाँध में दरार आया नेपाल सरकार के अनदेखी के कारण से। मतलब साफ है कि अपनी करतूत को छुपाने के लिए ये लोग नेपाल सरकार के मत्थे सार दोष मढना चाहते हैं। इसबार फिर से अपने आप को पाक साफ साबित करने के होड़ में लगे हैं ये माहानुभाव। वैसे तो होना ये चाहिए कि इस मुसीबत की घडी में ये लोग एक दूसरे का हाथ बटाएँ लेकिन ये एक दूसरे को ही नीचा दिखने के फिराक में हैं। इसी बेबसी के दौरान मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला जो खुद ही इस चक्की में पिस चुका था। अपने परिवार के अधिकांश लोगों को खो चुका वह व्यक्ति कभी एक दरवाजे पर दस्तक लगाता तो कभी दूसरे दरवाजे पर अपने अरदास लेकर के जाता। कहीं किसी अधिकारी का दिल पसीजे और कोई कार्यवाही हो कि जिन्दा ना हो सके तो कम से कम अपने रिश्तेदारों की लाशों को भी तो खोज निकाले जिससे उनके दाह संस्कार किया जा सके। हमने तो यह भली भांति देखा कि वो अफसर इन लाचार और बेबस लोंगों की बातों को सुनना तो दूर बात करने को तैयार नहीं। जब यह रवैया बरदाश्त नहीं हुआ तो कुछ कानूनी और ठोस कदम उठाने पडे जिससे उनकी सुनवाई हो सकी। हालात तब और सोचनीय हो जाते हैं जब इन लोगो को मदद करने के लिए तैयार दल बार बार नि:शुल्क अपनी सहायता के लिए तत्पर रहता है और ये कहते हैं कि इसके लिए कितने पैसे लेंगे। मदद के लिए तैयार लोग भी कभी ये सपने में नहीं सोच पाते हैं कि कोसी की इस रूद्र रुप से निपटने के लिए ऐसा भी होता है क्या? कुछ खबर ऐसी भी आयी कि मृतकों के शरीर को तलाश करने के लिए अधिकारियों ने उनके घरवालों से पैसे माँगे जो देने में समर्थ हुआ वो तो अपने घरवालों का दाह संस्कार कर पाया जो नहीं समर्थ रहा वो आज भी अपने लोगों के अंतिम संस्कार के लिए विभाग-विभाग का चक्कर लगा रहा है। ऐसा नहीं है कि लोगों ने मदद नहीं किया सबों ने खूब मदद किया। आप को शायद जानकर ये आश्चर्य हुआ होगा कि जहाँ इस प्रदेश के लोगों को नफरत की निगाह से देखा जाता है उन लोगों ने भी मदद किया भले ही वहाँ रहनेवाले लोग इसी प्रदेश के हैं। लेकिन एक बात भले ही मैं दबी जुबान से कहूँ लेकिन कहूँगा जरुर कि मदद के लिए सारे प्रदेश के लोग एक जुट होकर के नहीं आये,ये बात अगर किसी और प्रदेश में होती तो सभी बढ चढ करके आते।.. जरा आप भी अपने दिल से सोचिए क्या वो देश का एक हिस्सा नहीं है...क्या उनलोगों को मदद नहीं चाहिए ..रोडे अटकानेवालों को सबक नही सिखाना चाहिए...अफसर क्या जाने लोगों की आप बीती...

Friday, September 5, 2008

आज लिखने का मन करता है.......


कुछ दिनों पहले मैंने सोच ही लिया था कि अब फिर कभी इंडियानामा में कुछ भी नहीं लिखूँगा। लेकिन आस पास इतना कुछ घट चुका कि अब अगर मैं रुकता हूँ तो अपने इंडियानामा के नाम को सार्थक नहीं कर पा रहा हूँ। गुजरात से लेकर के कश्मीर तक जल रहा है। गुजरात में सैकड़ो किस तरह से अनाथ हुए ये सभी जानते हैं। हम और आप भले ही इन बातों को भूल जाएँ लेकिन जिन पे ये बीती है उसको लोग कैसे भूल सकते हैं। आतताइयों की रुह भी नहीं काँपती इन नीरीह लोगों के साथ ऐसी हरकते करते हुए। हालात तो ये तक हो गये कि लोगों के हस्पतालों में ले जाती एम्बेलून्सों पर भी बम का निशाना लगाया। कुछ उत्साही यगये लोगों को बचाने तो वो भी किसी आतंकी के शिकार बन गये। ये तो बातें उस प्रदेश की है जहाँ हर कोई अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहा था जो भी आता वहाँ को रोजगार और शासन की व्यवस्था की प्रशंसा किये बगैर नहीं जाता लेकिन अचानक से हुए इस हादसे ने वहाँ से लोगों के पलायन करने पर मजबूर कर दिया।
हम यों कह सकते हैं कि साल की शुरुआत ही कुछ ऐसी शर्मनाक रही जिसे याद करने पर शुद को भी शर्म आती है। आरक्षण का भूत एक बार फिर जगा और लोगों को बांटता गया। हर किसी के हाथ में कलम कम हथियार ज्यादा दिखने लगो। गुजरों की करतूत ने सरकार सहित देश को लगभग एक हजार करोड़ का नुकसान पहुँचाया। ऐसा नहीं कि आरक्षण मिल जाने से रातों रात उनकी तरक्की हो गयी। वहीं वो भूल गये कि हजार करोड का नुकसान पहुँचाने के बाद उनकी वसूली सरकार उन्हीं से करेगी,भले ही उसका रुप कोई और हो। अभी वो आग बुझी ही नहीं थी कि अपने नेताओं की संसद की करतूत ने हमें कहीं का नहीं छोडा। क्या सरकार को बचाने के लिए कोई ऐसा भपी कर सकता है ? जानवरों की मंडी की तरह बोलिया लगने लगी। बेशर्मी की हद पार करता तब दिखी जब तथा कथित नेता ने ये कहना शुरु किया कि लोग मेरे यहाँ खुद कहने आये थे कि देखिये मैं बिकने को तैयार हूँ आप खरीदेगें क्या। जैसे तैसे यह मामला धीमा पडा कि अहमदाबाद में आतंकियों की करतूत एक और जख्म दे गया। गुजरात के जख्मों पर अभी मरहम लगे नहीं थे कि कश्मीर की हरकत ने और शर्म से अपना सर झुका दिया। एक बार दान में दे जाने के बाद फिर से जमीन लेने की हरकत ने अपने ही इतिहास को झुठला दिया। हमारी बातों को कोई अन्यथा मतलब आप लोग ना निकालें। मैं केवल इस खून खराबे से अपने लोंगों को बचाना चाहता हूँ, ना कि प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहा हूँ। हर बार जाति और धर्म के नाम पर लोगों को बाँटने का काम किया जाता रहा है। हद तो तब होगयी कि जब राजनितिक पार्टियों ने चक्का जाम की घोषणा कर दी। इस चक्का जाम ने कितनों की जान ली ये गिनना तो मुश्किल है। हर जाम ने सैकडो को संकटमें डाल दिया। बेवजह लोगों के कारोबार में नुकसान सहित अनेकों परेशानियों से रुबरु होना पडा। लम्बे अन्तराल से मेरे मन में ये विचार कौंध रहे थे जिससे मजबूर होकर के मैंने फिर से अपने बातों का आपके सामने रखने का फैसला किया है। अब सवाल उठता है कि क्या हम इतने कमजोर हो गये हैं कि हरकोई आता जाता हम पर हमले करता जाएगा और हमारी रीढ को कमजोर करता जाएगा ? जागो मेरे दोस्तों जागों नाकाम करों इन दहशत गर्दों के इरादों को और इन मौका परस्त राजनेताओं को खदेड़ डालो अपनी इस मेहनत से बनाई गयी धरती से जिसे हम वसुन्धरा कहते हैं।