Sunday, December 27, 2009
मैं कौन....
मैं आप से मुखातिब होता हूँ तो लगता है कि घर आ गया हूँ। सच भी है मेरे पिता जी कि दो बातें आज मुझे कुछ सोंचने पर मजबूर करती हैं। परिवार तो गाँव की मिट्टी से जूडा ही था लिहाजा घर सें सगुण और निर्गुण बंदिशों की भरमार हुआ करती थी दो हैं आप को बताता हूँ।
पहला---- मन फूला- फुला फिरे,
जगत से कैसा नाता रे,
माता कहे कि पुत्र हमारा, बहन कहे वीर मेरा,
भाई कहे ये भुजा हमारी, नारी कहे नर मेरा,
पेट पकड कर माता रोए बाह पकड कर भाई,
लपट झपट कर तिरिया रोए हँस अकेला जाई,
जब लगे जीवा माता रोवे, बहिन रोवे दस मासा,
तेरह दिन तक तिरया रोव, फिर करेघर बासा,
चार गज चरगजी मँगाया, चढे काठ की घोडी,
चारो कोने आग लगाया फूँक दिया जस होरी,
हाड जरे जस जरे लाकजी, केश जरे जस घासा,
सोने जैसी काया जर गयी कोई ना आया पासा,
घर की तिरीया ढूँढन लगी , ढूँढ फिरी चहुँ देशा,
छोडो जग की आशा.....
इसके साथ एक और है वो भी आपके सामने ला रहा हूँ.... लेकिन हकीकत ये है कि जैसे ही पिता जी इसकी शुरुआत करते घर में सन्नाटा छा जाता... सभी चुप हम भी.. । इसके अलावा दूसरी वंदिश जो थी वो है.. उसे लिखूँगा लेकिन इस पर पहले आप लोगों के मन के उद्गार तो जान लूँ....
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3 comments:
राजीव जी जीवन नश्नर हैं ये शायद सबसे सत्य इस जगत का लेकिन फिर भी इसी जीवन के लिए सब कुछ करने की लालच, बचपन में कहीं पर पढ़ था की 70 करोड़ योनि के बाद मनुष्य का जन्म होता हैं माना आप की बात लेकिन क्या करे मानव की कमजोरियो का जो हमे इन सब छोड़ने नही देती।
हम दूसरा भी पढ़ना चाहेंगे..
http://dafaa512.blogspot.com/
निश्चित ही दूसरी भी जल्द पढ़वाये.
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