Sunday, December 27, 2009
धीरे धीरे सब गए...
आप से वादा किया था कि मैं जरुर आपके पास फिर आउँगा। तो लिजिए एक बार फिर आपके सामने मुखातिब हूँ। आपकी और हमारी बात अधूरी रह गयी थी। जी हाँ मैं भूला हुआ नहीं हूँ, आपसे वायदा किया था कि मैं आपको दूसरी कडी सुनाने को। जनाब अब ज्यादा समय नहीं लूँगा हाजिर है दूसरी कडी---
पके आधे बाल मेरे,
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मंद होती,
देख रहा हूँ आ रही,
मेरे दिवस की अवसान बेला।...
ये कहानी यही कहती है कि धीरे धीरे सभी जाएँगे। लोकिन जीतेगा वही जो समय से अपना रण ले हरा दे उसे। लेकिन इसके लिए अद्मय हिमत की जरुरत है उस साहस की जो शायद मुझ से निकल गया है क्योकि जब दिवस का अवसान सामने दिखाई देने लगता है तो हर बात साफ और स्पष्ट दिखनी खुरु हो जाती है। मेरे साथ ये बातें एक एक अक्षर तक साबित हो रही हैं।
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2 comments:
सही हैं भाव!
अवसान बेला...की ओर तो सभी बढ़ रहे हैं....लेकिन वे सभी साफ देख पा रहे हैं या नही.....कुछ कह नही सकते....।आप ने बहुत गहरी बात कह दी.....अच्छी पोस्ट है।
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