Tuesday, April 29, 2008
ऋणम् लित्वा घृतम् पीवेत् !
यह एक कहावत है जो सदियों से हर किसी ने वक्त बे वक्त अपने सुविधा के अनुसार कहा ही है। एक बार मेरे भी जेहन में यह कौध गया जब मैंने अपने आसपास या यूँ कहे कि अपने ही लोगों को यह करते हुए देखा। यह तो हो नहीं सकता कि आप अपने जीवन में कोई शादी या बारात में शामिल नहीं हुए हों। आमतौर पर शादी के समारोहों के पीछे एक दर्द का चेहरा छिपा रहता है, जो शायद ही कोई देख पाता हो। मुझे एक मौका मिला उत्तर भारत के एक शादी में शरीक होने का। देखा हर तरफ लोग हँसी खुशी से सराबोर अपनी खुशी में डूबे हुए थे। मैं भी उस खुशी में शामिल हो गया। नाच गाने से शुरुआत से ही कोसो दूर था, लेकिन ढोल के बजते थाप ने थिरकने पर मजबूर कर दिया। मैं भी त्रिभंगी का नाच बोले या शंकर का नटराज नृत्य का अनुकरण करते हुए, इस थिरकते हुए लोगों के बीच अपने आप को पेबस्त करने की कोशिश कर रहा था। जब थक कर बैठ गया तो थोड़ी सी राहत महसूस हुई। गर्मी का मौसम और बाहर बहती ठंढी बयार का आनंन्द लेते हुए घर से थोडी दूर चला आया। शांत बहते समीर के बीच अमराई से अचानक किसी की हिचकी भरे दबे गले से रुलाई की अवाज सूनाई दी। मेरा सारा का सारा समारोह का उमंग कब कर्पूर की तरह उड़ गया पता ही नहीं चला। जैसे जैसे मैं बागीचे के नजदीक पहुँचता गया और दिल को चीर देनेवाली आवाज कानों में सीसा घोलते जा रही थी। मेरी बेचैनी और बढ रही थी, दिल की धड़कन तेज होते जा रही थी। नजदीक जाकर के देखा तो मेरे होश ही फाख्ता़ हो गये------- ये तो घर के मालिक थे।
अपने ही घर में घर के मालिक का रोना मुझे बडा ही अचम्मभे में डाल दिया। आखिर कारण क्या है समझ में ही नहीं आ रहा था। सभी अपने अपने समान उम्र के लोगों के साथ हिले मिले थे, लेकिन अचानक ये रुलाई की बातें केवल मैं जानता था और घर मालिक। मैं उनके सामने खड़ा था तो मुझे अचानक से देख कर उनकी आवाज ही बन्द हो गयी। बस आँखों से केवल और केवल आँसू बहते जा रहे थे। बहुत जोर देने पर बताया कि समारोह की सारी तैयारी के लिए उन्होने ढेरों कर्ज लिये हैं, जिसे चुका पाने में असमर्थ हैं, जिससे उनकी यह मनो दशा सामने आ रही है। मैं सुनकर सन्न रह गया कि समारोह के खर्च उठाने कि लिए घर तक को गिरवी रख दिया है। अब यह व्यक्ति रहेगा कहॉ और खायेगा क्या। सारे के सारे दाव को तो यह चल चुका है। अपनी असमर्थता को जाहिर भी तो नहीं कर सकता है। यह हालत न केवल एक घर का है बल्कि भारत के हजारों घरों का यही हाल है। अगर झूठी शान को बरकरार रखने के लिए यही सब होता रहा तो शायद वह दिन दूर नहीं जब हर घर का मालिक अपने लोगों के सामने नकली चेहरा लगा कर हँसे फिर दूसरी ओर किसी को बिना बताए रोता रहे। कहावत वही होगी..... हँसते चेहरे के पीछे बेपनाह दर्द छिपा है।.....
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4 comments:
जी बिल्कुल ठीक कहा आपने, ये हमारे समाज की एक बिडम्बना है कि लोग दिखावा करने के लिए, कहीं से भी पैसा लाकर खर्च करते हैं.
इस दिखावे पर कहीं तो लगाम लगना चाहिये मगर बीड़ा उठाये कौन?
ज्यादातर परिवारों में दिखावे के चक्कर में ऐसी हालत हो जाती है ये अलग बात है कि पता नहीं चलता।
Is dikhawe ke ek pahlu ko shayad nazarandaj kar diya hai,kyunki har baat ke 3 pahlu hote hain.Ek jo dikhaya gaya,dusra jo apne najariye se dekha gaya aur tisra wo sach jo andekha hai.Kyun ise sirf dikhawa kahen, kya ye us pita ki majboori nahi hogi jisne apni beti ko naa jane kin-kin sharton ke tahat bida kiya hoga. kya ye mumkin nahi ke is vakye ki paristhiti dikhawa naa hoke ek bebas pita ki aah ho?
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