Tuesday, December 15, 2009

दर्द बाँटने से कम होता है लेकिन किससे.....


एक दर्द है जिसे मुझे बाँटने का मन करता है लेकिन समझ में नहीं आता है कि किसके साथ बाटू। ले देकर के आप को ही बोर करने का साहस करता हूँ। आप आगे बढने से पहले जरूर पूछेगें कि आखिर है क्या जिससे ऐसी दर्द उपज गयी। तो भाई इस दर्द का रिश्ता दिल दिमाग दोनों से है, या यूँ कहें कि शुरुआत दिल से होकर अब दिमाग पर पूरी तरह हावी हो गया है। हुआ यूँ कि शहर शहर भटकने के बाद मुम्बई तो मैं आ गया लेकिन शहर मुझे किसी तरह से पसंद नहीं था। लेकिन दोस्त मिलते गये धीरे-धीरे मन लगता गया। अब तो हालत ये है कि कहीं बाहर जाता हूँ तो जल्द वापस लौटने का मन करने लगता है। लोग भले कुछ कहें लेकिन यहाँ के विशाल समुद्र में हर कुछ समा जाता है। लेकिन इस समुद्र ने भी मेरा दर्द सुनने और अपने में समाने से इन्कार कर दिया। आखिर खुद का दर्द है तो निपटना भी खुद ही होगा।
दर्द है, मानव का मानव पर विश्वास का उठ जाना। मैं मानता हूँ कि हरे कोई एक समान है। कोई जाति हो, धर्म हो, या कोई भाषा-भाषी मैं अलग नहीं मानता। लेकिन मुम्बई में आकर लगा भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोग एक दूसरे को अलग समझते हैं ,अब इस दर्द को कहूँ तो किससे। मुझे लगा कि यह महानगर है और लोगों की सोच छोटी कैसी। पता चला कि राजनीति को चमकाने के लिए लोग एक दूसरे के खिलाफ ही भडकाने लगे जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को वो बाँट सके। रही सही कसर आपसी जलन पूरी कर देती है कि लोग एक दूसरे से नफरत करने लगते हैं। रही बात मुम्बई तो मुझे नहीं लगता कि कभी भी इसका मिज़ाज ऐसा रहा है। लोगों के विचारों को और भी आगे बढाने वाले लोग यहाँ रहते हैं खास कर के फिल्म से जुडे लोग यहाँ हैं तो नहीं लगता कि इस दर्द की पौध यहाँ ज्यादा दिनों तक रह सकेगी।
राजनेताओं की राजनीति से लोग भी सकते में आ जाते हैं कि कल तक एक दूसरे के करीब रहने वाले लोग अचानक से दूर कैसे हो गये। लगता है कि यही बटवारा की राजनीति है। हम और आप लडते रहें और राजनेता अपने पैसे को बढाने में मस्त रहे। यही तो वो भी चाहते हैं कि उनकी नाकामी पर भी पर्दा पडा रहे कोई उनके ओर उँगली भी ना उठा पाए। अगर वक्त रहते हम संभल पाए तो ठीक ना तो रही सही मेल मिलाप का एक सिलसिला भी जाएगा। एक दूसरे के दुश्मन ही सामने नजर आएँगे कोई भी एक दूसरे का चेहरा भी नहीं देखेगा। अगर इस दर्द को मैं आपके सामने रखूँ तो हो सकतो है कि आप भी यही कहेंगे कि ये दर्द तो मेरा है। इस दर्द से हम सब कमोबेश पीडित हैं इस दर्द को आप और हम देख रहें हैं जो देखते हुए भी नहीं देखना ताहतें उसे हम राजनेता कहते हैं। जिस हम ही चुनकर अपना प्रतिनिधित्व देते देश चलाने के लिए। इनके झाँसे से आपको भी निकलना होगा और हमें भी नहीं तो कहीं हम आज़ाद भरत के गुलाम ना बन जाएँ... सवाल वहीं है कि इस दर्द को बाँटे तो किससे.. जो गुलाम बनाने को उतारु है उससे या उससे जिसे अभी ये दर्द दवा लगती है लेकिन वो भी बँटवारे की राजनीति का शिकार होगा और उसे भी यह दर्द उपहार में मिलेगा........।

2 comments:

Udan Tashtari said...

फूट डालो और राज करो..बड़ा पुराना सिद्ध फार्मूला सिद्ध करने में लगे है यह नेता!!

परमजीत सिहँ बाली said...

सही लिखा....अब जाए तो जाए कहाँ..