Tuesday, December 15, 2009

क्या शराब पीना इतना जरुरी है.....


इतने अर्से के बाद आप लोगों से मुखातिब होना और सीधा यही सवाल उछाल देना अपने आप में कुछ अजीब सा लगता है। लेकिन ये मेरी मजबूरी कहें या यो कहें कि जब मैं किसी उधेड़बुन में होता हूँ तो आप सबों से चर्चा करने बैठ जाता हूँ। इससे मैं अपने आप को आप के करीब मानता हूँ। पहले विस्तार से वाकया की चर्चा आपसे कर दूँ। पिछले दिनों बिहार की कई शादियों और कुछ उत्सवों में जाने का मौका मिला। हर जगह ढोल नगाडो की थाप और फिल्मी गीतों की धुन पर नाचते युवा, ये तो आम बात थी। लेकिन हर पंद्रह मिनट के बाद लोगों का एक दूसरे का चेहरा तकना और पूछना कि व्यवस्था क्या है ? मुझे कुछ अटपटा सा लगा।अपने दिमाग को काफी दौडाया, व्यवस्थाएँ तो मैं अपने आँखो के सामने देख ही रहा था अब और कौन सी व्यवस्था की बात लोग कर रहे हैं। पूरे नाचते लोगों के साथ-साथ चलता गया लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। अचानक नजर मेरी नाचते लोगों के पीछे-पीछे चलती गाडी पर पडी। गाडी में नाच कर थकते लोग शराब के दौर से अपनी थकान मिटा रहे थे। हर बार यही कह रहे थे कि व्यवस्था मस्त है। समझ में आया कि व्यवस्था मतलब शराब का छलकता दौर।
ये माजरा एक विवाह और समारोह का नहीं हर समारोह में यही नजारा। लगता था कि शराब ही सबसे अहम है। जिसमें पूजा भले हो या ना कोई फर्क नहीं पडता लेकिन शराब तो सबसे पहले ही होना चाहिए। जैसे शराब न होकर चर्णार्मित हो । मैं अपने जीवन में इस तरह का माहौल तो पहली बार देखा, देख कर सकते में आ गया। हर बार देख कर लगा कि क्या जरुरी है शराब पीना ?जिसके आगे सारी बातें गौण हो जाती हैं। अपने, अपने ही लोगों में दोष देखने लगते हैं। इन सारी बातों को सही ठहरानेवाले कहते हैं कि समाज है तो करना बेहद जरुरी है। साथ में यह भी कहते हैं कि अगर आप लोगों को शराब नहीं पिलाएगे तो लोग आपके यहाँ आएँगे ही नहीं।अगर ऐसा है तो उनलोगों को बुलाने की क्या आवश्यकता। जो बगैर शराब के तल भी नहीं सकते। अब ये कौन सा समाज है जिसमें शराब पीना जरुरी है, ऐसा भी नहीं कि पिता पुत्र एक साथ जाम से जाम टकराते हैं, यहाँ महिलाएँ तो शराब को छूती भी नहीं लेकिन अपने आप को समाजिक और व्यवहारिक कहनेवाले लोग कहते हैं कि यही जरुरी है बाकी हो या ना हो। यहाँ तक कि घरवाले भी उन पीने पिलाने वाले लोगों के सामने सबसे छोटे नजर आने लगते हैं। खुशी हो तो खुशी के नाम पर पिलाने का रिवाज गम है तो गम के नाम पर पिलाने का रिवाज बन गया है। फर्क नहीं पडता बस केवल पीने पिलाने से ही मतलब है। अब मेरा सीधा सवाल आप से है क्या किसी भी समारोह में मदिरा इतना जरुरी हो गया कि उसके बिना सभी अपाहिज हो गये हैं। अपने आप को बडा दिखाने का यह झूठी शानो शौकत आखिर कब तक चलती रहेगी। ये समाज का पतन है या उस व्यक्ति का डर कि अगर हमने समाज के सामने नतमस्क नहीं हुआ तो यह तथाकथित समाज हमें कुचल देगा। जिसके सामने हाथ बाँधे रहना उनकी मजबूरी है। थोडा आप भी अपने विचार बताइए.....।

1 comment:

Mugdha Singh said...

samaj me aur bhi aisi hi bahot sari buraiyan hain, beshak aaj yah ek status symbol ban gaya hai, par ise swikarne wale bhi hum hi hain. Jahan tak shaadi me dikhawe ki baat hai, kitni bhi koshish kar le koi ise rokne ki, par ye rukti nahin. Karan bahot hain. Khas kar ke shaadi vivah ke mamlon me log dikhawa karna jaruri samajhte hain aur ab is maansikta ko badalna mumkin nahin lagta. Dusro ke saamne badappan dikhane k liye chahe kaam kitna bhi nich kyun naa ho log chukte nahin.