Tuesday, November 30, 2010
आया बिहार झूम के....
अंधेरे के बाद रौशनी होती है ...ये कहावत बचपन से ही हर किसी को याद होगा। लेकिन चरितार्थ होते हर किसी ने नहीं देखा होगा। लेकिन ये चरितार्थ हुआ इस बार के बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान। हर बार कि तरह लग तो रहा था कि इस बार कहीं प्रगति फिर ना हार हार जाए बाहुबलियों के आगे। लिहाजा पूरा महकमा मुस्तैद था। लेकिन जनता के दिलों में जो आँधी चल रही थी उसके आगे बाहुबली तिनकों की भांति कब उडकर कहाँ चले गए ये किसी को ख़बर नहीं लग पायी। राज्य में सुशासन कायम हो ऐसी संभावनाएँ बन गई हैं। जाहिर है कि पिछली सरकार के गठन से पहले राज्य में पंद्रह सालों तक लोगों की भावनाओं के साथ आत्मा को रौंद दिया गया था। हर कोई यही चाहता था कि कब बिहार से बाहर जाए और अपने जीवन के जुगाड में लग जाए। पलायन और केवल पलायन यही सूनने को मिलता। जो बाहर जाते उनके जीवन भी कोई बहुत बेहतर नहीं होते थे। उन्हें भी कई उपेक्षाओं का शिकार होना पडता था। बेहतर जीवन करने की चाह में एक 10 फुट के घर में दस दस आदमी रहते हैं जीवन बद्दतर और बेहतर के बीट में झूलता रहता था। लोगों की चाह होती थी कि कब घर लौटे और अपने ज़मीन पर कुछ ऐसा करेंगे जिससे घर वालों का भी नाम हो और अपने जीवन को भी पटरी पर लाएंगे। लेकिन जीवन लगा जाता था चाह कभी पूरी नहीं हो पाती थी।
साल 2010 के चुनाव ने नई उम्मीद बाँध दी है,हर किसी को आशा की नई सुबह दिखती है कि अब बदलाव आएगा। कुछ बदलाव तो हुए तब एक लगा कि एक बार फिर से बेहतर माहौल बनेगा और लोगों के लिए कई मौके बनेंगे जिससे हर किसी को अपने अधिकार से जीने का हक मिलेगा।
इस दौरान कई लोग मिले जो इस बारें में साफ राय रखते हुए मिले कि अब सब संभावनाए बेहतर होंगी। होनी भी चाहिए आखिर सरकार जो पूरी तरह मेजोर्टी में जो आ रही है,सरकार की हाथ अब बेहतर तरीके मजबूत है तो क्यों ना माहौल बेहतर हो। अगर बेहतर नहीं होगा तो ये तो सरकार की ही कमजोरी कही जा सकती है। बडे दिनों के बाद बक्त मिला है कुछ बदलाव करने का समय केवल पाँच साल है, इसलिए मौजूदा सरकार को काम भई ऐसे करने होंगे जिससे लोग याद रखें और भरोसा भी। चुनाव के बाद तो लोगों का झूमना यही कहता है कि आया बिहार झूम के, शब्दों में कहें तो यही होगा कि …. पूरब से सूरज निकला फैला उजियारा जगभर, जगदगुरु बनेगा बिहार फैलेगा ज्ञान विश्वभर......।
Sunday, November 28, 2010
Friday, November 26, 2010
आज अचानक से ख्याल आया कि रोज कि भाग दौड में हम का तो करते बही सब हैं हम से हमारी संस्थाने जो चाहतीं हैं। लेकिन इन कामों के बीच में मैं अपने आप को तन्हा ही मानता हूँ। इस लिए कुछ बातें आपके सामने ला रहा हूँ। ये एक आम बात है आज इंडिया( इस शब्द का में इस्तेमाल अपने ब्लॉग की वजह से करता हूँ) का हर एक आदमी अपनी इसी उधेड बुन में है कि कहीं तो उसे सही राह मिलेगी।
मैं और मेरी तन्हाई....
जीवन के उतार चढाव में हर बात,
मैने ना ही छुपाई और ना तो किसी के दिल को ही दुखाई,
लेकिन हर बार लोगों ने मुझे अनेकों आरोपों से रु-ब-रु कराई,
अब हाल है,
आवारा है गलियों में,
लेकिन मैं देख रहा हूँ अपनी तन्हाई,
जाएँ तो जाएँ कहाँ हर मोड पर है रुसवाई,
दिखने में चेहरे तो लगते हैं ये फूल से गुलदस्ते,
लेकिन अपने ने ही मेरा खून किया हँसते-हँसते
ना तो लोग ना तो रास्ते,
इस बेगाने जमाने में कोई भी अपना नहीं अनजाने हैं सब रास्ते,
राहें हैं तमाशाई,
राही तमाशाई,
केवल मैं रह गया अपने इन्हीं शब्दों में,
मैं और मेरी तन्हाई.......
Wednesday, November 24, 2010
ख्वाब ...
हर दिन आपसे से मुखातिब होने की चाह होती है लिहाजा कुछ अच्छा लिखता हूँ तो कभी कुछ तुक बंदियाँ कर लेता हूँ। कोशिश की है कि अपने ख्वाब को आपके सामने रखूँ लेकिन पता नहीं हकीकत लिख पाया हूँ। ये आप ही बता सकते हैं कि आखिर आप इसे क्या मानते हैं ........।
कल रात एक ख्वाब देखा,
समझ ना सका ख्वाब था हकीकत
या जीवन का धोखा,
लेकिन था जोर का झटका धीरे से,
कुए कब्रगाह में मेरी आँखे बन्द थी,
लेकिन धडकन-ए-दिल तेज थी,
इन्तजार था कि कोई अपना मेरे कब्र पर चिराग,
जला जाएगा
जिससे रौशनी मिले ना मिले कमोबेश
सूकून तो आ ही जाएगा,
लेकिन गोया ना तो कब्रगाह ही रौशन हूई,
ना ही कानों ने किसी के आने की आहट सुनाई।
ताज्जुब तब हुआ जब इस दरम्यां दिमाग ने कोई
चेहरा ही नहीं दिखाया,
उन्नींदी आँखे मशक्त के बाद खुई गई,
देखा दिन चढे सूरज निकल आया।
Tuesday, November 23, 2010
कायनात.........
पढते पढते कई बार ख्याल आता है कि आखिर इस कायनात को बनाने वाले ने क्यो सोची होगी कि इतनी हसीन दुनिया को हमारे सामने रख दिया। हर बार कि तरह इन बातों को देखते देखते ज़ेहन में ख्वाब आने लगता है कि क्या कभी ऐसा भी वक्त आएगा कि इस कायनात बनाने वाल कारीगर से रु-ब-रु हो सकें। इसी दौरान कुछ पंक्तियाँ भी नज़रो के सामने हो आई...
कायनात के ख़ालिक़
देख तो मेरा चेहरा
आज मेरे होठों पर
कैसी मुस्कुराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कुराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़मत को
तू तो मानता होगा
हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है
हाँ, कि आज मैंने भी
ज़िन्दगी जनम दी है
आपको कैसा लगा ? जानना चाहूँगा.....
Monday, November 22, 2010
अभी और तेज़ कर लें सर ख़न्जर-ए-अदा को,
मेरे खूँ की है ज़रुरत तेरी शोखी-ए- हिना को,
तुझे किस नज़र से देखें ये निगार-ए-दर्द आगी,
जो दुआएँ दे रही है तेरी चश्न-ए-बेवफा को,
कहीं रह गई हैं शायद तेरे दिल की धडकनों में,
कभी सुन सके तो सुन मेरी खूँशिदा नवा को
कोई बोलता नहीं है मैं पुकारता रहा हूँ,
कभी बुतकदे में बुत को तो कभी काबे में खुदा को । .....
राजनीति में सब जायज.......
आम आदमी के लिए ढेरों वर्जनाएँ होती हैं, लेकिन वही बडे लोगों के कुछ नहीं। क्योकि वही तो नियम कानून तय करते हैं, उन पर कौन बंधन लगाए। इन बडे लोगों में आज के राजनेता हीं सबसे पहले आते हैं। कोई हो या ना हो लेकिन राजनेता सबसे पहले याद किए जाते हैं आखिर उन्हें कौन भूलने की हिमाकत कर सकता है। करोडों डकार जाए तो उनका नाम सबसे पहले, उनके चलते देश के लोगों पर मुसीबतों का पहाड भी टूटे तो मजाल है, किसी भी नेता को अपने आँखो से ओझल कर सके। हर किसी को यही उम्मीद होती है कि आने वाला व्यक्ति उनके दुख को समझेगा और उनके साथ न्याय करेगा। लेकिन होता सब उलट। अकेले महाराष्ट्र में देख ले, आदर्श घोटाले के मामले पर पुरानी सरकार के मुखिया को पद से हटा दिया गया, तर्क था कि आदर्श मामले से मुख्यमंत्रई अशोक चह्वाण ने पार्टी की छवि खराब की है इस लिए उन्हें कोई हक नहीँ कि राज्य के मउखिया बने रहे। केन्द्र सहित राज्य से ये कहा गया कि जल्द ही साफ सुथरी छवि के लोगों को पर्टी में शामिल किया जाएगा लेकिन दिखा वही ढाक के तीन पात, वही लोग शामिल हैं जिन पर ढेर सारे घोटालों का या तो आरोप है घोटालों में दोषी हैं। लेकिन लोग चुप हैं क्योकि सब उनके लिए जायज है जो देश को चलाने का दंभ भरते हैं। अशोक चह्वाण के करीबी माने जाने वाले लोग अशोक चह्वाण के जाने से काफी दुखी थे लेकिन नए मुख्यमंत्री के साथ ऐसे साठगांठ कर बैठे कि कब दूध में पानी की तरह शामिल हो गए कहना मुश्किल है। आखिर इनके उपर कोई बंधन थोडे ही ना है। राजनीति में सब जायज के कई और भी नमूने हैं, जिन्हें अगर एक एक कर देखा जाए तो कहना मुश्किल है कि कौन इस मामले में कितना डूबा है। इन नेताओं के सिलसिले में एक व्यक्ति ने मुझे कहे है कि --- ज़मी बेच देंगे ज़मा बेच देंगे, अगर जनता ना संभली तो ये नेता देश को ही बेच देंगे.....
ये जिसने कहा है ये उसका दर्द था ... इसके बारे में विस्तार से जल्द ही बात करेंगे।
Wednesday, November 17, 2010
आखिर और कितने.....,
ये बात मैं अपनी नहीं कर रहा हूँ, अपने नेताओं के साथ सरकारी नौकरशाहों की कर रहा हूँ। जो हमारे देश को चलाने वाले एक तरह से पहरेदार हैं, लेकिन इस दस महीनों में इनके कारनामे जो सामने आए वो अज़ादी के पिछले 62 सालों में भी नहीं हुए है। पता नहीं इनकी भूख आम आदमी से कितनी ज्यादा है कि खाने के लिए करोडों रुपए डकार जातें हैं और हवा तक नहीं लगने देते हैं। साल की शुरुआत हुई हिमाचल में सुकना जमीन के घोटाले से जिसमें सेना के आधिकारी से लेकर रक्षा महकमा तक शामिल था, और इस तरह के घोटलों का सिलसिला चलता रहा महाराष्ट्र के आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के घोटाले तक। मैने जब इंडियानामा में लिखने की शुरुआत की थी तो अन्दाज़ नहीं था कि इतने बडे घोटालों और ज़ालसाजियों से भी देश को दो चार होना पडेगा। कहीं नेवी में पैसे लेकर लोगों की भरती कराई गई तो कहीं पैसे के लिए देश की प्रतिष्ठा ही दांव पर लगा दी गई। कॉमनवेल्थ खेल के नाम पर कांग्रेसी नेताओं ने जम कर लूट खसोट की। भले ही सरकार ने इन नेताओँ को अपने पद से हटा दिया लेकिन सरकार की साख पर बट्टा लग ही गया।
ज्यादा विस्तार से ना जाकर अपने विषय को केवल आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के मामले पर समेंटें तो देख तक अचंभित होना पडता है कि कैसे अपने फायदे के लिए नेताओं और नौकरशाहों ने फाइलों में हेरफेर करके अपने फायदे से घर हथिया लिया।आम आदमी सडकों पर रहे इससे इन नेताओं को कोई लेना देना नहीं लेकिन अपनी झोली भरने में कभी पीछे नहीं रहे। जब मौका मिला कानून की धज्जियाँ उडाकर अपना उल्लू सीधा करते रहे। जहाँ जहाँ हाउसिंग सोसाइटी के लिए फाइल जाती सभी अपने हिस्से के रुप में इक प्लैट लेने में कोई कोताही नहीं करते । जिसकी जितनी बडी हैसियत उतना ही बडा लालच का मुँह बाए अपना हिस्सा अपने हक में कर लेता था। जानकर अचरज तब और हुआ जब सूबे के मुखिया ही अपने लालच को रोक नहीं सके और अपने रिश्तेदारों के नाम पर फ्लैट चुपके से अपने पास रख लिए। जब मुख्यमंत्री जी ही इस तरह के मसले में लिप्ट हो जाए तो भला पीछे वाले बहती गंगा में हाथ धोने से पीछे क्यों रहे। उनके तो पौ बारह हो गए कि जब मुखिया ही चाहते हैं नियमों में फेरबदल कर दिए जाए तो लाभ उन्हें भी मिलेगा ही। जबकि तय था कि इस जमीन पर कारगील में शहिदों के लिए घर बनाए जाएँगे। किसी भी शहीद के परिवार को घर तो मिला नहीं, बल्कि नाम का खूब इस्तेमाल हुआ। इस सरकारी रवैये के बार में एक ही बात कह सकते हैं---- कहाँ तो तय था कि चिराग़ा देगें हर घर को यहाँ रौशनी मयस्सर नहीं पूरे शहर को.....
Sunday, November 14, 2010
हमने पाई एक नई राह....
कहने में कितना आसान है कि जीवन जीने के लिए नई राह की तलाश मिल गई..। सोंच कर मन एक दम से हर्षित हो जाता है। हकीकत है भी, क्योकि इस दुनिया में जीने के लिए बहाने या यूँ कहें तो एक उद्देश्य का होना बेहद जरुरी है। मैंने तो निश्चय काफी पहले कर लिया था लेकिन अब अपने निश्चय पर दृढ हो चुका हूँ। अपने जीवन के धुँधले पन्नों को जीवन से निकाल तो नहीं सकता लेकिन उस पर धूल की परतें डाल कर बंद कर चुका हूँ। ना चाहते हुए भी कोई अपनी उपस्थिती दर्ज कराने की कोशिश करता है लेकिन उसे दरकिनार करना ही मेरे लिए बेहतर है। मैं इसे कर भी चुका हूँ। मेरे किताब लिखने की गति थोडी धीमी हो गई है। जल्द ही उसमें तेजी लानी होगी। आसपास इतना कुछ घट राहा था कि हर जगह आदर्शवादिता की धज्जियाँ उडी हुई थी। उसकी नीव मैने खोदी थी तो अन्त तक पहुँचाना जरुरी था। उसी में मैं भी व्यस्त था, वन वे ट्राफिक की भांति... चले जल्द मुलाकात होती है। आदर्श के कुछ और पन्नें खोलने हैं।
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