Sunday, May 15, 2011

छला गया मैं...



मैं अपने आप से ये सवाल करता हूँ कि दुनिया में बहुत सारी घटनाएँ आस पास घट रहीं हैं लेकिन इनसे कहीं दूर होता जा रहा हूँ। ये सब देखते हुए लग रहा है कि मैं कहीं अपने उद्देश्य से भटक तो नहीं गया हूँ। शायद हाँ ...., लेकिन सच मानिए तो नहीं हाँ आज मेरे देखने का दायरा शायद कुछ दूर तक ही सिमट गया है व्यापक नहीं रहा। जो दंश मैं झेल रहा हूँ इन परिस्थितियों में यही केवल उचित जान पड रहा है। उम्मीद है कि इस जहर को जल्द ही पी जाउँ और फिर से चिर परिचित समाज में हँसी खुशी से फिर लौट सकूँगा...शब्दों के रुप सें शायद यही उधेडबुन है....

घायल हो गया हूँ मैं
समय ने छला है मुझे
एक तुम हो कि
चमड़ी हटे भाग को
बार-बार छूते हो
खेलते हो मेरे घाव से
मुस्कुराते हो
जब-जब भी मैं
कराहता हूँ दर्द में
प्यार की परिभाषा के इस पक्ष को
समझना चाहता हूँ मैं सचेतन,
अँधेरे के गर्भ में पल रहे
श्वेत अणुओं से
कुछ सार्थक सवाल करना चाहता हूँ मैं
जानना चाहता हूँ
तुम्हारे दिए पीड़ा की समय-सीमा को,
विदा होना चाहता हूँ मैं,
साथ में जानना चाहता हूँ मैं
तुम्हारी मुस्कुराहट की अबूझ पहेली को....।.

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