Tuesday, March 27, 2012

बदलते दिन के साथ बदलती रंगत....,


मुझे याद है कि जब हम कहीं किसी दूसरे शहर में जाते थे, और वहाँ के बदले हुए माहौल का देखते तो खुद को भी उसी माहौल में ढालने के लिए उसी रंगत में हो जाते थे। आज का माहौल भी कुछ अजीब लग रहा है लेकिन इस रंगत में खुद को बदलने का ना तो दिल करता है, और ना ही आत्मा। लोगों का दबाव इस तरह से कि जल्द से जल्द बदल कर, अपने आप को स्वार्थी लोंगों के हवाले कर दें। हर बार आरोपों की बौझार दूसरों पर करना आसान होता है कि सामने वाला व्यक्ति स्वार्थी है। लेकिन लोग अपने गिरेबां नहीं देखते कि अगर सामने वाले व्यक्ति ने आपसे ना तो कुछ लिया और ना ही कभी कुछ मांगा तो स्वार्थी कैसा, उल्टे आपकी आमानत उसी स्थिती में वापस लौटा दिया तो स्वार्थी कैसा। लेकिन भाई यहाँ ना तो आरोप लगाने का कुछ मूल्य चुकाना पडता है और ना ही कुछ खर्च करना पडता है। बस बिना परवाह किया और बगैर सच के पडताल किए बस आरोप लगाते रहें। हर कोई सच भी मान लेगा क्योकि यही तकाजा है अगर आपके आस पास झूठ का ताना बाना इस तरीके से बुना जाए कि सच के सारे अंश ही उस ताने और बाने के बीच फंस जाए ना तो किसी को दिखाई दे और ना ही अपने वजूद को ही दिखा पाए तो झूठ ही सच मान लिया जाता है। यही आज की रंगत है कोई ना तो उस ताने और बाने के बीच दबे सच को देखेगा और ना ही तलाशने की कोशिश करेगा। निश्चय ही आप इस पक्ष पर भी जोर देंगे कि तब सच किस मजबूरी में ताने बाने में फँसा है, क्यों नहीं सबों के सामने आता है। मुझे लगता शायद वो इस अंदेशे में है कि अगर वो सामने आया तो झूठ की परतें तो खुल जाएगी लेकिन जिस रेशमी किमखाब को बनाने में उसने मेहनत की है उस रेशमी किमखाम में ही पेबंद लग जाएगा ना तो वो सजाने का काम आएगा और ना ही किसी और काम में एक बेकार की भाँति अलग कर दिया जाएगा। सच इस बात को भी सोचता होगा कि शायद उसकी बलि देकर के झूठ का कल्याण हो जाए तो कोई बात नहीं अगले जन्म में शायद उसे न्याय मिल पाए। ये मेरा मानना है क्योकि मैनें दोनों पक्षों का एक तटस्थ की भांति देख रहा हूँ। शायद आपकी नजर में कुछ और हो।
ये उदाहरण देने का मेरा मकसद था कि अगर कोई किसी के जरिए दबाया जा रहा है तो हमारा धर्म बनता है कि सही और गलत का फैसला करते समय दोनों पक्षों को देखा और सुना जाए और सही निर्णय सुनाया जाए। कई लोग कहते हैं ऐसा नहीं है कि भला आदमी सही निर्णय ले सकता है, क्योकि वो कभी कभी मोह में भी पडता है। जिससे उसके न्याय करने की प्रवृति भी संदेह के घेरे मे आती है। मैं मानता हूँ कि भला व्यक्ति किसी के मोह में कभी कभी पड सकता है। लेकिन फिर भी वो दोनों की बातें सुनता है, निर्णय भी तर्क संगत बताता है, लेकिन बदले हुए रंग में जब बुरा व्यक्ति साने आता है तो वो ना तो उसके निर्णय को मानने के तैयार है, और ना ही उसके विचारों से सहमत तो भला व्यक्ति क्या करेगा। बुरा व्यक्ति तो हर समय छल प्रपंच ही रचता रहेगा तो भले व्यक्ति में भी उसे बुराई ही दिखाई देगी। ऐसे कई वाकये मैने अपने सामने भी देखें हैं, और आज ऐसा ही एक उदाहरण देख कर मुझे हँसी आती है कि जो लोग कभी खरी खरी बाते कहने का दंभ भरते थे, वो कितने मिथ्याभाषी हैं, हमेशा से अपने झूठ को सच बनाने के लिए किसी के पूरे जीवन की पूँजी भलमानसियत और सच पर य़भी आक्षेप लगाने से बाज नहीं आते। सबसे बडी बात है कि अपनी इस बात कहने के लिए वो तर्क देते हैं कि क्या करें वो परिस्थिती के कारण विवश हैं, लेकिन ये कदापि नहीं सोचते कि परिस्थिती बनाई तो किसने बनाई है। कभी भी उन्होने इन परिस्थितियों को सामान्य बनाने की कोशिश की। कोशिश लगातार उस भले व्यक्ति की तरफ से किया जाता रहा उसपर भी उलाहना ये कि ये तो केवल दिखावा है या उन्हें चिढाने के लिए ये बातें हो रही हैं। लेकिन अगर आप उस अपने भारत भूमि के उस संत और बिच्छू की कहानी को याद करें तो आप स्वत: कहेंगे कि नहीं भले व्यक्ति ने अपना कर्तव्य अपने आचरण के मुताबिक ही निभाया। लेकिन सच को भी झूठ बताने वाले कहाँ इन बातों को समझेंगे वो तो अपनी ही धुन में रहेंगे कि किसी तरह से कुछ ऐंठा जाए, आखिर बदले हुए रंगत के लोगों के लिए पैसा ही तो सब कुछ है। सही में इंडियानामा में मैं इस विषय पर बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ लेकिन संकोच करता हूँ कि कहीं लोग ये ना समझ बैठे कि मैं अपनी भडास निकल रहा हूँ। ऐसा मेरा कदापि मकसद नहीं है। मैं तो केवल कुछ लोगों की बातों को आपके सामने रखने की चेष्टा कर रहा हूँ, शायद इससे किसी को लाभ मिले। देखे कब और कहाँ ये बातें काम करती हैं.....।
अँधेरे अकेले घर में
अँधेरी अकेली रात ।
तुम्हीं से लुक-छिप कर
आज न जाने कितने दिन बाद
तुम से मेरी मुलाक़ात ।
और इस अकेले सन्नाटे में
उठती है रह-रह कर
एक टीस-सी अकस्मात‍
कि कहने को तुम्हें इस
इतने घने अकेले में
मेरे पास कुछ भी नहीं है बात ।

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