मैं दिल से आज भी किसान हूं। यह बात मुझे तब महसूस हुआ, जब मैं मुंबई में किसान मोर्चे को नजदीक और बारीक से देखा। 12 मार्च का दिन यूँ तो मुंबई के लिए बेहद ही खास है, क्योंकि 25 साल पहले इसी दिन मुंबई दहल उठी थी। लेकिन साल 2018 में इस 12 मार्च का दिन मेरे लिए खास रहा। आम दिन की तरह 11 मार्च को मैं रोजमर्रे के काम में व्यस्त था। यह तय था कि अगले दिन किसान मार्च मुंबई में पहुंचेगा, इसके लिए सारी तैयारियां भी हो चुकी थी। जगह जगह कैमरे और यूनिट में लगा दिए गए थे। लेकिन किसान रात में ही 11 मार्च को सोमैया ग्राउंड से आजाद मैदान की तरफ निकल पड़े। अब मेरे लिए चुनौती का समय था कि मैं अपने शिफ्ट को खत्म करके घर चला आउ या वहीं रुक जाऊं। जिम्मेदारी थी और उस जिम्मेदारी को निभाना भी था। जब किसान मुंबई के लोगों को सहूलियत को देखते हुए रात में ही निकल पड़े तो मैं भला कैसे अपने ऑफिस को छोड़कर घर चला आता। मैं भी वहीं रुक गया और रात करीब 1:00 बजे किसानों के साथ पैदल सफर पर निकल चला आजाद मैदान की तरफ।। तकरीबन 5:30 घंटे पैदल चलते रहे उस दौरान मैं आला पुलिस अधिकारी, महाराष्ट्र सरकार के मंत्री और विशाल आदिवासी किसानों का हुजूम था। यह एक अलहदा अनुभव था। मुंबई में तकरीबन 22 किलोमीटर लगातार पैदल चलने का यह एक अनुभव था। मुंबई में कई तरह के बम ब्लास्ट हुए आतंकी हमले हुए बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हुई इन सब स्थितियों में मैंने पत्रकारिता की कलम को थामे रखा, तो तकरीबन 200 किलोमीटर का सफर तय करके आ रहे किसानों के लिए मैं अपनी कलम को विराम कैसे दे सकता था। मैं मौजूद रहा उनके बीच, उनके समस्याओं को सुना सोचा समझा और महसूस भी किया कि आखिर वह किस समस्याओं से जूझ रहे हैं। जंगल की जमीन को खेती लायक बनाते हैं लेकिन इस जमीन का मालिकाना हक उनके पास नहीं है। पथरीली जमीन पर हार तोड़ मेहनत कर उसे उर्वरा बनाते हैं लेकिन इस जमीन का मालिकाना हक उनके पास नहीं है। कहने को वह अन्नदाता है लेकिन सालों साल अकाल पड़ने सूखा होने या बाढ़ की स्थिति या होने पर उन्हें अनाज का एक दाना नसीब नहीं होता है क्योंकि उनके पास राशन कार्ड नहीं है। अपनी उपज की रक्षा वह वैसे करते हैं जैसे कोई मां अपने शिशु की रक्षा करती है , लेकिन फसल हो जाने पर बाजार में उनको उनकी लागत तक नहीं मिलती है। लिहाजा या तो सड़कों पर उन्हें फेंक ना होता है या यूं ही फसल सड़ जाती है। जिन नदियों का पानी उनके खेतों तक जाना चाहिए वह बड़े-बड़े मल्टीनेशनल कंपनियों तक जाता है कोक ,कोल्ड ड्रिंक्स और ऐसे पर बनाए जाते हैं कि नशे में लोग धुत्त हो जाते हैं अनाज का भरा पूरा खेत पानी के लिए तरसता रहता है। नेता मंत्री या कोई भी जो कि उनके मत पर यानी वोट पर सरकार में शामिल होता है या उनका प्रतिनिधित्व करता है उसे वेतन और पेंशन के रूप में लाखों रुपए मिलते हैं। इन अन्नदाताओं को वृद्धा पेंशन के रूप में महज ₹600 मिलते हैं जिससे इनकी गुजारा भी नहीं होती। बिजली का बिल इन्हें देख कर इनका सर चकराने लगता है कि आखिर यह अनाज उगाए या इस बिजली के बिल से अपना सर फोड़े। इस तरह की कई समस्याएं थी जिन्हें देखकर यह महसूस होता है कि हम जिन्हें अन्नदाता कहते हैं वो कितनी समस्याओं से जूझ रहे हैं।
इन समस्याओं से रूबरू होते हुए जब मैं आजाद मैदान पहुंचा तो मुझे कोई थकान नहीं थी। दिल में यही था कि जिस तरह से महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया है कम से कम इन की बात माने सुनें और उनकी समस्याओं को दूर भी करें। लेकिन तब मुझे घोर आश्चर्य हुआ जब इन को मदद करने के नाम पर राजनीतिक दलों ने अपनी दुकान सजा ली। अपने-अपने पोस्टर और बैनर लगाकर टेबल सजा लिए, और इन्हीं कतार में लाकर खड़ा कर दिया कि आइए खाना ले जाइए और कुछ बिस्किट और पानी ले जाइए। अगर मदद ही करनी है तो उन्हें खाना देती और उनके पांव छूते क्यों कीजिए अन्नदाता आपके शहर में आए हैं उन्हें कतार में लगाकर हाथ पसारने पर मजबूर नहीं करना चाहिए था। वह दृश्य मुझे देखकर अचरज होने लगा कि आखिर ऐसे बुद्धिजीवी लोगों ने क्यों ऐसे किया इन भोले भाले किसानों और आदिवासियों को क्यों बे जा मूर्ख बना रहे हैं। तब और मुझे कोफ्त होने लगी जब इन राजनीतिक दलों ने मीडिया के सामने आकर यह कहना शुरू किया कि हमने उनकी मदद के लिए पानी दिया है बिस्किट दिया है खाने का सामान दिया है आप इसे मीडिया में दिखाइए मुझे कोफ्त होने लगी कि आखिर यह कौन सी मिट्टी के बने हैं कि इन्हें शर्म भी नहीं आ रही। तकरीबन 75 साल की उम्र में पैर में छाले हुए उस महिला को देखकर मुझे दिल कचोटने लगा कि वह किस उम्मीद से मुंबई में आई है और उसे क्या मिलेगा। उसी तरह से 10 साल के बच्चे को भी देख कर अजीब से मन में हलचल होने लगी कि वह मुंबई तो पहली बार आया है वह क्या देख रहा है। राजनीतिक दल महज एक वोट की तरह इन्हें देख रहे हैं इन्हें लुभाने की कोशिश कर रहे हैं अगली बार जरूर उन इलाकों में यह राजनीतिक दल पहुंचेंगे और वहां यह दिखाएंगे कि हमने आपकी मदद मुंबई में की थी। कौन सी मदद है किस तरह की मदद कर रहे हैं मदद की सबूत के तौर पर इनकी तस्वीरें रख रहे हैं अपने Twitter Facebook हर जगह इन लोगों की तस्वीरें वह टांग रहे हैं।
खैर जब उनकी बातों को मैंने सुना कि हमने अपना दिल बड़ा किया मुंबई के किसी भी व्यक्ति को कष्ट नहीं होने दिया हम भले ही 15 घंटे चलकर आए इसके बाद बगैर आराम किए बगैर फिर चले तो मेरा भी दिल भर आया। सुबह तक मैं काम करते गया लेकिन मुझे कहीं कोई थकान महसूस नहीं हुई अगले पूरे दिन तक मैं काम कर सकता था, लेकिन बंधन था ऑफिस का मुझे लौट कर आना पड़ा।
मैं यहां मैं यहां अपनी बात नहीं लिख रहा हूं मैं इंडियानामा के जरिए भारत के उस अन्नदाताओं से आपकी मुलाकात करा रहा हूं जिनकी सुध लेने वाले शायद ही सुध ले रहे हैं। उनका इस्तेमाल तो सब कोई कर रहा है लेकिन उनके बारे में सोचने वाले बेहद ही कुछ कम लोग हैं। शायद यह सरकार जरूर उनके बारे में सोचें और उनके लिए कुछ बेहतरीन फैसले ले जरूरी भी है क्योंकि अनाज आप फैक्ट्रियों में नहीं उगा सकते फैक्ट्रियों में किसी भी अनाज को आप नहीं बना सकते। अनाज के अवशेषों का आप इस्तेमाल फैक्ट्रियों में करते हैं लेकिन शुद्ध अनाज आप किसी भी मशीन के जरिए नहीं बना सकते। हरी सब्जियां कोई मशीन नहीं बना सकती। इन सारी चीजों को देखकर अगर मैं कहूं कि मैं भी किसान हूं तो इस बात पर मुझे फक्र महसूस होता है कि आखिर मेरी परवरिश जो हुई है देने के लिए ना कि लेने के लिए। दादी सही कहते थे कि बेटे हाथ सदा देने के लिए उठना चाहिए कभी भी हाथ लेने के लिए नहीं उठना चाहिए। अन्नदाता है देने वाले लेकिन बेचारे मजबूर होकर मुंबई में अपनी समस्याएं कहने आए कि कोई तो सुने।
आज तुम्हारे लिए कुछ पंक्तियां लिख दूं,
कौन जाने कल मेरी कलम चले ना चले?
परिस्थितियों की आपाधापी के इस दौर में मालूम नहीं,
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