Saturday, August 16, 2014

मित्रता के रहस्य ..

हमनें मित्रता की शुरूआत या इसे समझना तब शुरू किया जब इसे महसूस किया! कॉलेज में आने के बाद कई तरह के मित्र मिलें. लेकिन मैं अपने दिल की बातें बेहद ही अपने आप में निहीत रखा इसे कभी जाहिर नहीं किया. लेकिन अचानक से मेरे दोस्तों ने जब नई तकनीकि की सहारा लेकर मोबाईल ग्रुप शुरू किया तो हम सब एक दूसरे के करीब आए.मित्रता दिवस के अवसर पर एक दूसरे को बधाई देते हुए दोस्तों ने कई संदेश दिए मैं उनका संंकलन आपके सामने रख रहा हूँ जरा आप भी इसे देखें और अपने विचार से अवगत कराए..
1.
ईश्वर ने हमारे शरीर
की रचना कुछ इस प्रकार की है
कि ना तो हम अपनी पीठ
थपथपा सकते है और ना ही स्वयं
को लात मार सकते हैं
इसलिए हमारे जीवन में मित्र होना जरुरी है..
2.
खवाहिश  नही  मुझे  मशहुर  होने  की।
आप  मुझे  पहचानते  हो  बस  इतना  ही  काफी  है।
अच्छे  ने  अच्छा  और  बुरे  ने  बुरा  जाना  मुझे।
क्यों  की  जीसकी  जीतनी  जरुरत  थी  उसने  उतना  ही  पहचाना  मुझे।
 ज़िन्दगी  का  फ़लसफ़ा  भी   कितना  अजीब  है,
शामें  कटती  नहीं,  और  साल  गुज़रते  चले  जा  रहे  हैं....!!
3
एक  अजीब  सी  दौड़  है  ये  ज़िन्दगी,
जीत  जाओ  तो  कई  अपने  पीछे  छूट  जाते  हैं,
 और  हार  जाओ  तो  अपने  ही  पीछे  छोड़  जाते  हैं।.


हम क्या दिखाने की कोशिश करते हैं ?

ये बात मेरे समझ से परे है कि आखिर लोग अपने प्रोफाइल जो कि आज कल आम है, क्यों इस तरह से रखते हैं कि बेहद अटपटा सा लगे। शायद अपने आप को कुछ ज्यादा ही अग्रगामी समझते हों ।यहाँ मैं अग्रगामी शब्द का उपयोग कर रहा हूँ क्योकि ये शुद्ध हिन्दी है। जरा आप भी गौर करें इन तरह तरह के प्रफाइलों को ये एक नमूना है इसके बाद भी कई इस तरह के प्रफाइल सामने आए हैं। जैसे एक और सामने आया है थोडा इसे भी गौर से देखिए तो शायद आपको भी अटपटा लगे। दरअसल ये सारी बातें
कहीं ना कहीं से ली गई हैं। भले ही वो किसी के लेखन से, कवित्त से या उनके किसी गद्य के अंश से लिए गए हैं। लेकिन अपने इस अपनी बेफिक्री दिखाने की कोशिश है। क्योकि हजार घर घूमने के बाद भी किसी को चैन नहीं आता है। लेकिन क्यों चैन नहीं आता ये आज तक मैं समझ नहीं सका हूँ। केवल इन बातों को उपरी तौर पर देखा जाए तो समझ में नहीं आता लेकिन जब इसके परिदृश्य और पिछला अंश को देखा जाए तो
इनकी गूढता समझनी होगी। हाल फिलहाल में कई बार इस तरह के लिखावट की हँसी उडाई गई। लेकिन मैने तो निश्चय कर लिया है अब रुकना नहीं है, अनवरत लिखते रहना है।  चलते चलते एक और नमूना आपको दे जाउँ इसे भी देखे क्योकि ये कुछ अजीबो करीब लगेगा। ये नमूने मुझे एक बार फिर आप से मुखातिब होने का कारण दे गए। उम्मीद है कि इस तरह के कई मसले मुझे आप से जोडे रखेंगे ।...

Sunday, August 3, 2014

कैसे बदल गया ज़माना


नमस्कार को टाटा खाया जूती खाया बाटा
अंग्रेजी के चक्कर में भई हुआ बड़ा ही घाटा
बोलो धत्त तेरे की
माताजी को मम्मी खा गई पिता को खाया डैड
दादाजी को ग्रैंडपा खा गए सोचो कितना बैड
बोलो धत्त तेरे की
गुरुकुल को स्कूल खा गया गुरु को खाया चेला
सरस्वती जी की प्रतिमा पर उल्लू मारे ढेला
बोलो धत्त तेरे की
चौपालों को बार खा गया रिश्ते खाया टी वी
देख सीरियल लगा लिपस्टिक बक बक करती बीवी
बोलो धत्त तेरे की
अंगरखे को कोट खा गया धोती खायी पैन्ट
अंगोछे को टाई  खा गई अत्तर को खाया सेंट
बोलो धत्त तेरे की
रसगुल्ले को केक खा गया दूध पी गया अंडा
दातुन को टूथपेस्ट खा गया छाछ पी गया ठंढा
बोलो धत्त तेरे की
बातचीत को चेट  खा गया चिट्ठी पत्री नेट
हुतुतू को ताश खा गई  गुल्ली  खाया बैट
बोलो धत्त तेरे की
परंपरा को कल्चर खाया हिंदी को अंग्रेजी
दूध दही के बदले पीकर चाय बने हम लेजी
बोलो धत्त तेरे की

                        

दोस्ती सदा के लिए

हमने दोस्ती की है, वो है सदैव के लिए! हमने ये भी तय किया है कि अपने दोस्तों के लिए समय निकालकर उनसे रू ब रू होउगा ! मैं स्वार्थी नहीं हूँ , इतना जरूर है कि दोस्ती जब की है तो उसे हमेशा के लिए निभाउगा भी! ये जरूर है कि मेरे लिए हर दोस्त जरूरी है और  मैं उनके लिए हर हद को जा सकता हूँ! मित्रों आप सबों को भी दोस्ती का ये दिन मुबारक ....  ये मित्रता का  प्रतीक है समुद्र मे सेतू ! आप को याद है... राम ने अपने मित्रों के बल पर ही समुद्र में सेतू का निर्माण किया था। खैर ये तो आधुनिक सेतू है, इसे ही प्रतीक के रूप में आपके सामने लाया हूँ...





Thursday, July 31, 2014

क्या यही है प्रलय ?








उजडा पडा सारा नगर,
सूनी पडी सारी डगर,
चिडियाँ प्यासी डरी सहमी खडीं,
कुटिया सकल टूटी पडीं ,

छायी अवनि -आकाश में दहशत !

क्या यही है प्रलय !!  

Thursday, July 24, 2014

एक कदम आगे

                         

               हमने एक कदम और आगे बढने की कोशिश की है। कहीं ये गलत तो नही.. ? ये सोच कभी ना कभी आपको भी कौंधता होगा। मेरे समझ से हर व्यक्ति इस बात से जरूर ही रूबरू होता है । लेकिन पिछले चार पाँच सालों में मैं ज्यादा ही आमने सामने हुआ हूँ ऐसे वाकयों से। लेकिन तब मैंने कदम भी नहीं बढाए थे। मन में एक बात जरूर थी कि शायद कदम बढाते तो कुछ हो सकता था। लेकिन कदम ना बढाने का कारण भी बेहद मजबूत रहा मेरे लिए, परिस्थितियाँ सामान्य नहीं थी, अपने आप ही कई अवरोधक आते रहे थे। मेरे समझ से वक्त के साथ हर माहौल बदल जाता है, और सोंच भी बदल जाती है। मैंने अपने सोंच में कई बदलाव लायें हैं, भले ही वो सोच कारगर हों या ना हो इसका विचार तो नहीं किया। लेकिन ये जरूर है कि हमने सोचा कि किसी भी तरह परिस्थितियों को सामान्य किया जाए, इस सिलसिले में कोशिश भी की। किसी ने कहा है कि सोंच भले ही कामयाब ना हो लेकिन कोशिशें कामयाब जरूर होती हैं....


उम्मीदों से दिल बर्बाद को आबाद करता हूँ,
मिटाने के लिए दुनिया नई ईजाद करता हूँ ।
तिरी मीआद--ग़म पूरी हुई ऐ ज़िंदगी खुश हो,
क़फ़स दूटे न टूटे मैं तुझे आज़ाद करता हूँ ।
जफ़ा-कारो मिरी मज़लूम ख़ामोशी पे हँसते हो
ज़रा ठहरो ज़रा दम लो अभी फरियाग करता हूँ।
मैं अपने दिल का मालिक हूँ मेरा दिल एक बस्ती है,

कभी आबाद करता हूँ तो कभी बर्बाद करता हूँ।   

Saturday, July 19, 2014

क्या हम दोस्त बन सकते हैं ?


ये बात बेहद ही व्यक्तिगत है लेकिन इंडियानामा में इसलिए लिख रहा हूँ , क्योकि ये हर भातीय के हृदय से जुडा है। हर कोई इस दुविधा में है कि आखिर संबंधो को कैसे आगे लेकर बढे। अगर कोई अहम आडे आ जाता है, भगवान ही मालिक है। बहरहाल आपको पहले कुछ पंक्तियों में समेटने के बाद पूरा विवरण विस्तार से बताता हूँ ।

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए
रहते हमारे पास तो ये टूटते जरूर
अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिए
चाहा था एक फूल ने तड़पे उसी के पास
हमने खुशी के पाँवों में काँटे चुभा लिए
सुख, जैसे बादलों में नहाती रही हों बिजलियाँ
दुख, बिजलियों की आग की बादल में हम नहा लिए
जब ना लिख सके कोई नज्म तो हमने यही किया
अपने कलम से हमनें खुद को ही घायल कर लिए
अब भी हमारे किसी दराज में मिल जाएँगे किसी को
वो सूखे फूल , वो उपहार जो हमने अपने दोस्त को कभी ना दिए..

क्या हम दोस्त बन सकते हैं......?.सालों बाद ये बात हमसे उस व्यक्ति ने पूछा जिसे हम दोस्त ही नहीं जीवन में बहुत कुछ मानते थे.. मानते हैं... और शायद मानते भी रहेंगे.. ये जरूर है कि वक्त के साथ मायने जरूर बदले। लेकिन मेरा विश्वास कायम रहा। मैं अपने इस करीबी कहे जाने वाले व्यक्ति से बात भी बेहद ही इत्तेफाक से हो गई। हालाकि इस बात को वो जरूर आरोप लगा चुके हैं, इत्तेफाक नहीं मेरी चालाकी थी। येजरूर है कि मैं चाहता था कि बात करुँ हर पहलू पर चर्चा करूँ और सिलसिला शुरु करने के लिए लिखता लेकिन उसे कभी भी ना तो जाहिर करता और ना ही भेजने का प्रयास करता। य़े सुनिश्चित जरूर करता है कहीं किसी के उमंग के जीवन में खलल ना पडे। भले ही मेरे साथ जो हुआ या जो हो रहा है इस बात को जाहिर ना करूँ, कभी किया भी नहीं लेकिन व्यथित हुआ तो लेखनी को सहारा बनाया। लेकिन कब वो इलेक्ट्रॉनिक जामने में पोशिदापन रहा ही कहाँ लिखापट कब सामने प्रकट हो गया मुझे पता ही नहीं चल सका। जब पुरजोर आपत्ति हुई तो अपनी गलती का अहसास हुआ कि आखिर मैने किया क्या। निर्णय लियाकि आइंदा से ऐसा नहीं होगा इसबाद पर बेहद ही ध्यान रखूँ। लेकिन लापरवाह जीवन में एक बार भी गलती हो ही गई। इस का दोष मैं जरूर भारत सरकार को दूँगा... आप भी कहेंगे कि पागल हो गई है.. गलती खुद करता है और दोष किसी और पर। दरअसल भरतीय रेल के सफरने ये सब चुगली की। जेब में रखे मोबाइल में लिखा मैसेज डिलिट करने के बाद आखिर सेन्ड हो ही गया। शायद डिलिट ही जल्दी में ना हो सका हो। लेकिन कुछ भी हो गलती तो है मेरी इसे सुधारना होगा ही क्योकि इस बार उलाहना के साथ जबरदस्त विरोध भी आया। ये जरूर है कि आगे से मैं बेहद ही खास रूप से ख्याल रखूँगा, किसी के जीवन में रूकावट ना बनूँ.. । दोस्त बनने की बात पर इतना जरूर कहूँगा,, ये तो निर्भर उसपर होता है जो बातों को समझ सके कि आखिर दोस्त बनाने की इच्छा रखते हैं क्या दोस्ती करने के बाद निभा पाएँगे..

दोस्ती जब किसी से की जाये,
दुश्मनों की भी राय ली जाये
मौत का ज़हर है फ़िज़ाओं में,
अब कहाँ जा के साँस ली जाये,
बस इसी सोच में हूँ डूबा, 
कि ये नदी कैसे पार की जाये, 
मेरे माज़ी के ज़ख़्म भरने लगे,
आज फिर कोई भूल की जाये ।

खैर अब फिर से मैं आप लोगों से मुखातिब हो रहा हूँ. दोस्ती जो एक शब्द है अपने आप में बेहद ही गंभीर अर्थ समेटे हुए है। कृष्ण द्रौपदी के दोस्ती जग जाहिर है। शायद ही दो अलग अलग विचार भिन्न अवस्था के लोगों में ऐसी दोस्ती देखने को मिले। लिखना तो बहुत कुछ था लेकिन इतने पर ही रोकता हूँ.. फिर कभी इस मुंद्दे पर कई उदाहरण आपके सामने रखूँगा।

Monday, April 28, 2014

क्या पाप तीर्थाटन से कम हो जाता है ?


मेरे समझ से ये बात बेहद परे हैं कि अगर आप अपराध करते हैं और उसे कम करने के लिए तीर्थाटन करते हैं तो कम हो जाता है। हाल फिलहाल में मैं कई लोगों से मिला, जो साल में पूरे दल बल के साथ तीर्थाटन पर निकलते हैं। तीर्थाटन कम उनके लिए पिकनिक ज्यादा ही रहता है। एक समय था जब समाज को दिशा देने वाले लोग तीर्थाटन के लिए जाते थे और बेहद ही संजीदगी से वहां की बातों को लोगों को अवगत कराते थे, और बेहद ही शालीनता से कुछ बातों पर अमल कराने के लिए लोगों को प्रेरित करते थे। लेकिन अब लगता है कि समय बदल गया। वैसे भी सरकार अध्यात्मिक दुरिज्म के लिए कई तरह के प्रयास कर रही है। लेकिन इन रास्तों पर जाने वाले विरले ही अध्यात्म के संगी साथी होते हैं, शायद ही उन्हें अध्यात्म से कोई सरोकार हो वो तो बस एक बहाना भर बना लेते हैं अपने पिकनिक मनाने का चल पडते हैं दल बल के साथ अध्यात्मिक दुरिज्म पर। इन रास्तों पर जाने वाले कोई साधारण इंसान ही नहीं होते जाने माने ज्ञानी लोग भी होते हैं। वो भी अपने आसपास के लोगों से प्रभावित रहते हैं और इस राह पर बह निकलते हैं।
                       हाल ही में रामदेव बाबा ने राहुल गाँधी के दलितों के यहाँ हनीमून मनाने की बात कही जो निश्चय ही अशोभनीय थी। लेकिन ये धुम्क्कड कैसे भक्त हैं जो अध्यात्म के नाम पर जाते तो हैं तीर्थ स्थलों पर और डूबे रहते हैं अपने ही रंग में। दरअसल इसमें एक बेहद सूक्ष्म पहलू मुझे समझ में आता है शायद आप भी इसे समझ सकते हैं ये एक तरह से नेटवर्किंग का जरिया बन गया है। क्योंकि अगर आप किसी के साथ साथ सफर करते हैं या यो कहें कि कुछ दिन साथ साथ बीताते हैं तो एक दूसरे के करीब आते हैं, और इस ग्रुप यात्रा में कुछ चालाक किस्म के लोग इसी करीबी का फायदा उठा कर अपनी स्वार्थ सिद्धि कर लेते हैं। शायद रामदेव बाबा भी इसी तरफ इशारा करना चाहते थे कि दिखावे के लिए राहुल जाते हैं दलितों के यहाँ लेकिन अपनी स्वार्थसिद्धि के हर अवसर  को अपने पाले में करने के लिए कोई कसर नहीं छोडते।
                        ये तो एक पहलू था अब मैं दूसरे पहलू की तरफ आपको मोड रहा हूँ। समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो ये मानते हैं कि अपराध, छल, किसी के प्रति अत्याचार, किसी के हिस्से को छीनना, झूठ बोलना ये उनकी दीनचर्या या यो कहें उनके रोज मर्रे का काम है। लेकिन अचेतन मन के किसी भी कोने में ये बातें उन्हे कचोटती जरूर है कि छल से ही उन्होने अपनी उपलब्धि हासिल की है दूसरी ओर इस कचोटते मानस की ग्लानि को कम करने के लिए दान पुण्य और तीर्थाटन को निकल पडते हैं। मैं लगभग 12 साल पहले ऐसे ही एक व्यक्ति से मिला था। जिसकी कही बातें मुझे आज भी याद है कि मैं साधु सन्तों के दरबार में इस लिए जाता हूँ कि वहाँ आने वाले कई तरीके के लोगों से मिल सकूँ और अपने उद्योग के बढावे में उनकी सहायता ले सकूँ। मैं आश्चर्य से उससे पूछ बैठा क्या वो सन्त इसकी अनुमति देते हैं कि तुम ऐसा करो। उसने साफ साफ कहा कि सन्त की मैं सेवा( उन पर हजारो रुपए खर्च) साल भर करता हूँ तो उनको सहमति देनी ही पडेगी। आपको दोनों पहलुओं से अवगत कराया। लेकिन सवाल अपनी जगह पूर्ववत है कि क्या सचमुच इस तरह के तीर्थाटन से पहले से किए गए पाप कम हो जाते हैं। आपकी राय भी मैं जानना चहूँगा।
मेरी राय में उनके पाप कम नहीं होते बल्कि उस पाप के सहभागी कई और लोग हो जाते हैं क्योकि पीडा किसी एक व्यक्ति ने दी थी। लेकिन उसे दण्ड कहें या सही राह पर चलने की मशविरा देकर सुधारने के बजाए उसके सुर में सुर मिलाने वाले कई लोग सहायक हो गए।
                          कई जगहों पर घूमते घूमते मैनें इसे महसूस किया .. हो सकता है कि मेरे विचार गलत हों लेकिन अधिकांश लोगों से बातचीत करने पर पता चला कि उनके विचारों , और मेरे विचार में सामंजस्य है।....         

Wednesday, April 2, 2014

जिन्दगी का अर्थ...

जिन्दगी के मायने ...देखने का एक नज़रिया...
मरना हो गया है अब
और जीने के लिये हैं
दिन बहुत सारे ।
इस
समय की मेज़ पर
रक्खी हुई
जिंदगी है 'पिन-कुशन' जैसी
दोस्ती का अर्थ
चुभना हो गया है
और चुभने के लिए हैं
पिन बहुत सारे।
रिश्तों के नाम पर
खाली लिहाफ हैं
यादें हैं नश्तर जैसी
संबंधों का मसला
दर्द हो गया है
और दर्द देने के लिए हैं
तैयार सारे।

निम्न-मध्यमवर्ग के
परिवार की
अल्पमासिक आय-सी
है जिंदगी
वेतनों का अर्थ
चुकना हो गया है
और चुकने के लिए हैं
ऋण बहुत सारे।

कभी कभी लगता है कि
जिन्दगी के हिसाब किताब से
दर्दों के क्रेडिट से

अब डेबिट करने होंगे ढेर सारे । 

Monday, March 24, 2014

जो हम कह ना सकें


हर कोई अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने के लिए कुछ ना कुछ माध्यम अपनाता है चाहे वह कोई भी हो। माँ अपने बेटे तक अपनी बात पहुँचाने के लिए अपनी सेवा सहित हर उस छोटी छोटी बात के ख्याल कर बेटे को जता देती है कि उससे कितना प्यार करती है। पिता भले ही उपर से सख्त हों लेकिन वक्त बे वक्त अपनी संवेदनाओं को जाहिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। चाहे वो एक आम इन्सान या कोई बहुत ही बड़े सेलीब्रेटी ही क्यों ना हों। अब रही बात बेटों की तो इसमें थोड़ी सी कंजूसी आसानी से देखी जा सकती है। बात हम अपने आस पास की करें तो ये बातें हम यूँ ही राह चलते हुए देख सकते हैं। आधुनिक कहे जाने वाली संतान कहती है कि ये तो उनके फर्ज था, सो ये तो उनको करना ही था। कुछ और मॉडर्न ख्याल की संताने कहती हैं कि, पैरेंन्टस तो अपनी मस्ती मना रहे थे,उसी के नतीजे के रुप में हम पैदा हो गये हैं। अब भला उनको कोई कैसे समझाये कि आज के इस सोंच तक आप को पहुँचाने के लिए माता-पिता ने कितने पापड़ बेले।
लेकिन संवेदनाएँ मरी नहीं हैं। आज भी लोग हैं जो श्रवण कुमार की याद ताजा कर देते हैं। माता पिता को भले ही अपने कंधे पर बिठा कर तीर्थ यात्रा तो नहीं करा रहें हैं लेकिन वो भाव रखते हैं। अमिताभ बच्चन अपनी माँ के देहान्त के बाद बिखरते से नजर तो आये  थे । लेकिन अपनी सारी शक्ति को समेट कर माँ के साथ हर उस पल को समेट कर रखा जो उनके दिल के बेहद करीब था। ये बात साफ जाहिर कर दिया कि क्या अहमियत थी उनके जीवन में माता-पिता की। अब एक सवाल यह भी उठता है कि अमिताभ के किए को तो सबों ने देखा लेकिन बनारस के उस कन्हैया के किये को किसी ने नहीं जाना जिसने अपने देवता समान माता पिता के लिए हर संभव प्रयास किया बचाने के लिए शरीर का एक एक अंग बेचकर उनको लम्बी बीमारी से मुक्ति दिलाई। मैं खुद अपने दिल के हर उस कोने से मुबारक देना चाहता हूँ। और उसपर गर्व भी करता हूँ कि गुमनामी में रह कर उसने वो कर दिखाया जो बड़े बड़े लोग नहीं कर सकते हैं।
अब मूल विषय पर बात करें
,कुछ बातें वो होती हैं जिन्हें हम कह नहीं पाते हैं, उनको कहने के लिए भावनाए सबसे ज्यादा बलवती होती हैं। हमें तो चाहिए उन भावनाओं की सहायता ले उन बातों को अपने आदर्शों तक पहुँचाने के लिए। बातों को जितना जल्दी हो कह देना चाहिए कहीं देर ना हो जाए। पुराणों में लिखी बातें मातृ देवो भव पितृ देवो भव, शत प्रतिशत सही हैं।

वक्त बदल गया..

अब वो समय नहीं रहा..
धीरे धीेरे कब वक्त बदल गया मुझे पता ही नहीं तल सका लेकिन अब हालात कुछ और हैं,कोई कहीं और बस गया है तो कहीं और। हमारे बीच इतनी गहरी खाई पैदा हो गई है कि शायद माउन्ट एवरेस्ट भी उस खाई में समा जाए। हमें दुख है तो महज खुद के छले जाने का बाकी ऐसा कुछ नहीं जिससे मैं किसी और के करीब मानूँ.. अपने विचारों को शब्दों में उतारने के लिए कलम ही सहारा है । तो ये भी है..
ज़िन्दगी की कमीज़ के
दोनों सिरों पर लगे
काज और बटन की तरह थे हम
वक़्त को
जब झुरझुरी आती थी
इस कमीज़ को ढूंढ़ कर
पहन लेते थे,
लेकिन बक्त बदल रहा है,
कल प्यार किया था हमने
नए बने प्रेमियों की तरह
कल साथ खडे थे हम,
घर में बने थे दो दरवाज़े की तरह, सरसराया करते थे हम
जिनमें हवाओं की तरह...
अब बह रही है गर्म हवा हमारे बीच

दुश्मनी के साक्षात प्रतीक बन

विचार आम जनता के

सफर के दौरान जनता के विचार...

16 वीं लोक सभा के चुनाव नजदीक होने के साथ ही लोग भी अपने इलाके के नेता  चूनने के लिए एक अलग तरीके से वितार कर रहे हैं। कोई सुरक्षा तो कभी प्रगति तो कोई सहुलियत की कामना कर रहा है। इन्ही के विचार जानने की कोशिश की .. 

एक मुख्यमंत्री ऐसा भी

एक साधारण इन्सान ...
ये जरुरी नहीं है कि हर कोई  एक ही समान हो, लेकिन आऐज के बहलते दौर में कुछ लोग अनुकरणीय भी हैं। कुछ ऐसे ही लोगों से मिलने का भी मौका मिला कुछ अंश यहाँ हैं।
एक अंश और भी ...
कुछ और बातों...
  



गोवा एक अलग नज़रिए से


गोवा देखने का नज़रिया ..

ये जरुर है कि चुनाव का समय नजदीक होने से लोग अपने नेताओं को बेहद नजदीक से जानने की कोशिश करते हैं। इसी प्रयास में गोवा की राजनीतिक हालात जानने की हमारी कोशिश रही जरा आप भी देखिए ..

1.


एक दूसरा अंश यहाँ है...


Wednesday, March 5, 2014

एक याद...

रोको मत टोको मत
सोचने दो इन्हें सोचने दो
रोको मत टोको मत
होए टोको मत इन्हें सोचने दो
मुश्किलों के हल खोजने दो
रोको मत टोको मत
निकलने तो दो आसमां से जुड़ेंगे
अरे अंडे के अन्दर ही कैसे उड़ेंगे यार
निकालने दो पाँव जुराबें बहुत हैं
किताबों के बाहर किताबें बहुत हैं।।।।

जीवन एक फ़कीरी

जो सुख पाऊँ राम भजन में
सो सुख नाहिं अमीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
भला बुरा सब का सुनलीजै
कर गुजरान गरीबी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
आखिर यह तन छार मिलेगा
कहाँ फिरत मग़रूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
प्रेम नगर में रहनी हमारी
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
कहत कबीर सुनो भयी साधो
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥